वर्ष 2020 में सुप्रीम कोर्ट के 60 महत्वपूर्ण फैसलों पर एक नज़र
LiveLaw News Network
23 Dec 2020 12:36 PM IST
COVID-19 संक्रमित वर्ष 2020 में सुप्रीम कोर्ट फिजिकल हियरिंग और फाइलिंग के बजाय वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और ई-फाइलिंग के अभूतपूर्व अनुभवों से गुजरा है।
वर्चुअल कामकाज के साथ भी, सर्वोच्च न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए और कानून के कई प्रमुख प्रश्नों का निपटारा किया। यहां 2020 के 60 महत्वपूर्ण निर्णयों की एक सूची दी गई है, जिसमें वे फैसले भी शामिल हैं जो गंभीर आलोचना का शिकार हुए हैं।
सूची में निर्णयों की व्यवस्था अधिकतर कालक्रम में है और यह उनके सापेक्ष महत्व का संकेत नहीं है।
1.कश्मीर लॉकडाउन एंड इंटरनेट शटडाउनः अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ
10 जनवरी को जस्टिस एनवी रमना, सूर्यकांत और बीआर गवई की तीन जजों की बेंच ने याचिकाओं की एक बैच पर फैसला सुनाया था, जिसमें जम्मू-कश्मीर में कर्फ्यू के आदेशों और इंटरनेट बंद करने की वैधता को चुनौती दी गई थी। जो अगस्त 2019 में राज्य की विशेष स्थिति खत्म करने के बाद लागू किए गए थे।
कश्मीर लॉकडाउन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की एक महत्वपूर्ण उपल्ब्धि उसकी यह घोषणा है कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित इंटरनेट के माध्यम से व्यापार और वाणिज्य की स्वतंत्रता भी अनुच्छेद 19 (1) (ए) और 19 (1)(जी) के तहत संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकार हैं।
जस्टिस एन वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि,''हम घोषणा करते हैं कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और किसी भी पेशे को करने की स्वतंत्रता या इंटरनेट के माध्यम से किसी भी व्यापार या व्यवसाय को करने की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 19 (1) (ए) और अनुच्छेद 19 (1) (जी) तहत संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है।
कोर्ट ने कहा कि,''सीआरपीसी की धारा 144 के प्रावधान केवल आपातकाल की स्थिति में और कानूनन नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने से रोकने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से लागू होगें। सीआरपीसी की धारा 144 के तहत दोहराए गए आदेश, अधिकारों का दुरुपयोग माना जाएगा।''
सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति का उपयोग विचारों या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने से रोकने के लिए नहीं किया जा सकता है।
हालांकि यह निर्णय आनुपातिकता के सिद्धांतों के पुनर्मूल्यांकन के लिए प्रशंसनीय है। कोर्ट ने धारा 144 के मनमाने इस्तेमाल में सावधानी बरतने के लिए भी चेताया। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कोर्ट ने इंटरनेट की उपलब्धता के अधिकार पर कोई राय व्यक्त नहीं की है और स्पष्ट किया है कि फैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यापार व वाणिज्य की स्वतंत्रता के लिए एक उपकरण के रूप में इंटरनेट के उपयोग तक सीमित है। निर्णय याचिकाकर्ताओं को मूर्त राहत दिए बिना सिद्धांत के पुनस्र्थापना के रूप में रहा है।
कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन को एक सप्ताह के भीतर इंटरनेट बंद करने के आदेशों की समीक्षा करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने कहा निर्णय में निर्धारित मापदंडों के अनुसार समीक्षा की जानी चाहिए। यदि बंदी के लिए नए आदेश देना आवश्यक है तो उस आदेश में निर्धारित कानून का पालन किया जाना चाहिए।
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2.विशेष और अजीब हालात को छोड़कर अग्रिम जमानत को एक निश्चित अवधि के लिए सीमित नहीं किया जा सकता हैः सुशीला अग्रवाल व अन्य बनाम राज्य (एनसीटी आॅफ दिल्ली) व अन्य।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अग्रिम जमानत को निश्चित अवधि तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन अगर अग्रिम जमानत की अवधि को सीमित करने के लिए कोई विशेष या अजीब हालात हैं तो अदालत आवश्यकतानुसार कदम उठा सकती हैं।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने ये फैसला सुनाया था।
हालांकि जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस रवींद्र भट ने अलग-अलग फैसले सुनाए लेकिन जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस विनीत सरन के साथ इसी निष्कर्ष पर पहुंचे। न्यायालय ने यह भी कहा कि अग्रिम जमानत आदेश का जीवन या अवधि सामान्य रूप से उस समय और चरण में समाप्त नहीं होता है जब अभियुक्त को अदालत द्वारा बुलाया जाता है, या जब आरोप तय किया जाता है, बल्कि विशेष और अजीबोगरीब मामले को छोड़कर ये मुकदमे के अंत तक जारी रह सकता है।
संविधान पीठ ने जमानत पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत वसूली के प्रभाव पर भी फैसले में चर्चा की। इस संबंध में, जस्टिस अरुण मिश्रा, इंदिरा बनर्जी, विनीत सरन, एमआर शाह और रवींद्र भट की बेंच में कहा कि सुशीला अग्रवाल व अन्य बनाम एनसीटी आॅफ दिल्ली व अन्य मामला बड़े पैमाने पर श्री गुरबख्श सिंह सिबिया और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1980) 2 एससीसी 565 के सिद्धांतों की फिर से पुष्टि करता है।
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3. 'अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए नियुक्ति का कोई पूर्ण अधिकार नहीं' सुप्रीम कोर्ट ने डब्लू बी मदरसा सेवा आयोग अधिनियम को सही ठहराया
सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल मदरसा सेवा आयोग अधिनियम 2008 की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए कहा था कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों के लिए नियुक्ति का कोई पूर्ण और अयोग्य अधिकार नहीं है।
जस्टिस अरुण मिश्रा और यू यू ललित की पीठ ने जून माह में एसके एमडी रफीक बनाम प्रबंध समिति, कोंताई रहमानिया उच्च मदरसा व अन्य के मामले में अपना फैसला सुनाया था।
मामला पश्चिम बंगाल मदरसा सेवा आयोग अधिनियम 2008 की वैधता से संबंधित था,जिसने मदरसों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए एक आयोग का गठन किया था।
बाद में, इस फैसले के खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि यह अल्पसंख्यक अधिकारों पर चंदन दास (मालाकार) बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में 3-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के विपरीत है, जिसे 25 सितंबर, 2019 को पारित किया गया था।
चंदन दास मामले में, न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन, न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति सूर्य कांत की खंडपीठ ने माना था कि शैक्षणिक संस्थानों का प्रशासन करने के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को मिले मौलिक अधिकार को ''अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।''
30 जनवरी को, सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने रिट याचिका पर नोटिस जारी किया जिसमें इस मुद्दे का संदर्भ एक बड़ी पीठ के पास भेजने की मांग की गई थी।
4.JJ Act: 7 साल से ज्यादा की अधिकतम सजा,लेकिन न्यूनतम सजा प्रदान न करने वाले अपराध 'जघन्य' नहीं 'गंभीर' श्रेणी के अपराध हैंःशिल्पा मित्तल बनाम स्टेट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली एंड अदर
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 2 (33) के में 7 साल से अधिक कारावास की सजा का प्रावधान है लेकिन कोई न्यूनतम सजा प्रदान नहीं दी गई है, या 7 साल से कम की न्यूनतम सजा प्रदान की गई है तो इसे 'जघन्य अपराध' नहीं माना जा सकता है।
संविधान के अनुच्छेद 142 को लागू करते हुए न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने अपराध, जहां अधिकतम सजा 7 साल से अधिक का कारावास है, लेकिन कोई न्यूनतम सजा या 7 साल से कम की सजा है तो इसे अधिनियम (जेजे एक्ट) के अर्थ के भीतर 'गंभीर अपराध' की श्रेणी का अपराध घोषित किया।
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5.स्पीकर को 3 महीने के भीतर अयोग्यता पर निर्णय लेना चाहिए; 10 वीं अनुसूची के तहत स्वतंत्र निकाय की आवश्यकताःकेशम मेघचंद्र सिंह बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर विधानसभा व अन्य
सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि विधानसभा के अध्यक्ष को असाधारण कारणों के अभाव में तीन महीने की अवधि के भीतर संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने की याचिका पर फैसला करना चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर स्पीकर को कहा था कि वो अयोग्यता पर चार हफ्ते में फैसला लें। पीठ ने ये टिप्पणी मणिपुर के वन मंत्री टी श्यामकुमार की अयोग्यता के मामले में की है।
वहीं सुप्रीम कोर्ट ने सासंदों व विधायकों की अयोग्यता पर फैसला करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय के गठन की वकालत की।
कोर्ट ने कहा था कि अगर स्पीकर चार हफ्ते में फैसला नहीं लेते हैं तो याचिकाकर्ता फिर सुप्रीम कोर्ट आ सकते हैं। यह मणिपुर विधानसभा में कथित दलबदल से संबंधित एक मामले में जस्टिस आर एफ नरीमन, अनिरुद्ध बोस और वी रामसुब्रमण्यन की एक बेंच द्वारा आयोजित किया गया था।
दरअसल कांग्रेसी विधायकों फजुर रहीम और के मेघचंद्र ने मंत्री को अयोग्य ठहराए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।
इस आदेश की अगली कड़ी के रूप में, सुप्रीम कोर्ट ने 18 मार्च को एक बड़ा कदम उठाते हुए मणिपुर के वन मंत्री टी श्यामकुमार को ना केवल पद से हटा दिया था बल्कि उनके विधानसभा में प्रवेश कर भी रोक लगा दी थी। जस्टिस आर एफ नरीमन की पीठ ने अदालत के आदेश के बावजूद मणिपुर के स्पीकर द्वारा अयोग्यता याचिका पर फैसला ना लेने से नाराज होकर ये फैसला दिया था। पीठ ने कहा कि ऐसे हालात में अदालत संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकार का आह्वान कर ये फैसला ले रही है।
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6. एससी / एसटी संशोधन अधिनियम 2018 की वैधता बरकरार - पृथ्वी राज चैहान बनाम भारत संघ
10 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम 2018 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जिसे सुप्रीम कोर्ट 20 मार्च, 2018 के फैसले के प्रभावों को खत्म करने के लिए अधिनियमित किया गया था, इस फैसले ने अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर कर दिया था।
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7. कानून के साथ संघर्ष में एक बच्चा किसी भी परिस्थिति में जेल या पुलिस लॉकअप में नहीं रखा नहीं जा सकता हैः एससी
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने तमिलनाडु राज्य के अनाथालयों में बच्चों के शोषण के मामले में स्वत संज्ञान लेते हुए कहा था कि,
''हम यह स्पष्ट करते हैं कि जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड्स मूक दर्शक होने के लिए नहीं हैं और तभी आदेश करे, जब कोई मामला उनके सामने आता है। वे तथ्यात्मक स्थिति पर ध्यान दे सकते हैं,अगर जेेजेबी के संज्ञान में आता है कि किसी बच्चे को जेल या पुलिस हिरासत में रखा गया है। यह सुनिश्चित करना जेजेबी का कर्तव्य है कि बच्चे को तुरंत जमानत दी जाए या उसे एक निगरानी होम या सुरक्षा के स्थान पर भेज दिया जाए। अधिनियम को किसी भी व्यक्ति द्वारा उल्लंघन नहीं किया जा सकता है,कम से कम पुलिसवालों द्वारा तो बिल्कुल नहीं।''
8.सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों की जानकारी अपलोड करने को कहाः रामबाबू सिंह ठाकुर बनाम सुनील अरोड़ा और अन्य
राजनीति के अपराधीकरण से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के दौरान आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को टिकट देने पर अहम कदम उठाया है।
जस्टिस आर एफ नरीमन और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण के ''खतरनाक'' प्रवृति को ध्यान में रखते हुए निर्देश दिया था कि सभी राजनीतिक दल लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उम्मीदवार के चयन के 48 घंटे के भीतर या नामांकन के दो सप्ताह के भीतर जो भी पहले हो, अपने उम्मीदवारों के आपराधिक केसों का विवरण प्रकाशित करने करे। इस जानकारी को स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित किया जाना चाहिए, और आधिकारिक वेबसाइटों और पार्टियों के सोशल मीडिया हैंडल में अपलोड किया जाना चाहिए। सूचना में अपराध की प्रकृति और ट्रायल/ जांच का चरण भी बताया जाना चाहिए।
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9.नौसेना और सेना में महिलाओं के लिए स्थायी कमीशन
लैंगिक समानता पर एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि सेना में महिलाओं को उनकी सेवा की परवाह किए बिना सिवाय लड़ाकू भूमिकाओं के बाकी शाखाओं में स्थायी भूमिका दी जानी चाहिए ।
न्यायालय ने यह भी कहा था कि कमांड नियुक्तियों से महिलाओं का पूर्ण बहिष्कार संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ है और अनुचित है। केंद्र का ये तर्क कि महिलाओं को केवल कर्मचारी नियुक्तियां दी जा सकती हैं, कानून में ठहरने वाला नहीं है।
केंद्र सरकार द्वारा दायर की गई अपीलों को खारिज करते हुए पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि वायु सेना और सेना की शॉर्ट सर्विस कमीशन महिला अधिकारी, जिन्होंने स्थायी आयोग के लिए आवेदन किया था, लेकिन उन्हें केवल एससीसी का विस्तार दिया गया था, वो सभी परिणामी लाभों के साथ पुरुष लघु सेवा कमीशन अधिकारियों के बराबर स्थायी कमीशन की हकदार हैं।
यह मामला सचिव, रक्षा मंत्रालय बनाम बबीता पुनिया और अन्य के मामले में है, जिसमें जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने 5 फरवरी को आदेश सुरक्षित रखा था।
लैंगिक समानता पर एक और अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारतीय नौसेना में महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी भी अपने पुरुष समकक्षों के साथ स्थायी कमीशन की हकदार हैं। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने मामले में भारत संघ बनाम स्ळ ब्क् एनी नागराज और अन्य से जुड़े मामलों में फैसला सुनाया।
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10.यदि मुआवजा खजाने में जमा करवा दिया गया है तो पुराने अधिनियम के तहत कार्यवाही समाप्त नहीं होगीः एससी 5-जज बेंच ने इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी के फैसले को सही ठहराया
सुप्रीम कोर्ट की 5-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के तहत यदि मुआवजे का भुगतान खजाने में जमा करके किया गया हो तो कार्यवाही समाप्त नहीं होगी। न्यायालय ने कहा था कि भूमि के मालिक इस बात पर जोर नहीं दे सकते कि राशि को अदालत में जमा किया जाना चाहिए जिससे 1 जनवरी, 2014 से नए भूमि अधिग्रहण कानून के शुरू होने पर पुराने अधिनियम के तहत भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को बनाए रखा जा सके।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने पीठ का फैसला पढ़ते हुए कहा था कि यदि सरकार ने खजाने में राशि जमा कर दी है, तो भूमि मालिक यह नहीं कह सकते कि कार्यवाही में चूक हुई है। मुआवजे का भुगतान करने की बाध्यता सरकार के राशि का प्रस्ताव करने पर है। वास्तव में भूमि मालिकों को या संबंधित न्यायालय में राशि जमा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार, पीठ ने पुणे नगर निगम मामले में 2014 के फैसले को पलटते हुए 2018 इंदौर विकास प्राधिकरण मामले में अपनाए गए दृष्टिकोण की पुष्टि की है।
इस मामले में भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा एवं पारदर्शिता का अधिकार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनियम, 2013 की धारा 24(2) की व्याख्या शामिल है। 2013 अधिनियम की धारा 24 (2) के लिए प्रोविजो में कहा गया है कि जहां पुराने अधिनियम के तहत मुआवजा दिया गया है और भूमि कब्जा धारकों के बहुमत के संबंध में मुआवजा लाभार्थियों के खाते में जमा नहीं किया गया है, तब सभी लाभार्थी नए अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार मुआवजे के हकदार होंगे।
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11. निर्भया केसः एससी ने आधी रात की सुनवाई के बाद आरोपियों की अंतिम याचिका खारिज की
20 मार्च को निर्धारित निष्पादन से कुछ घंटे पहले, निर्भया कांड के दोषियों ने आधी रात को उच्चतम न्यायालय का दरवाजे खटखटाया था। उन्होंने अपने जीवन का विस्तार करने के लिए अंतिम मिनट न्यायिक हस्तक्षेप की उम्मीद की थी।
परंतु आरोपियों को कोई सफलता नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट में रात करीब 2.45 बजे शुरू हुई सुनवाई के बाद जस्टिस आर बानुमति, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस ए एस बोपन्ना की खंडपीठ ने रात लगभग 3. 45 बजे उनकी याचिका को खारिज कर दिया था।
लगभग 3.30 बजे, पीठ ने दोषी पवन कुमार गुप्ता की ओर से दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया। उसने राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका की अस्वीकृति को चुनौती दी थी। न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान शक्ति के प्रयोग पर न्यायिक समीक्षा का दायरा अत्यंत संकीर्ण है।
इसके दो घंटे बाद तिहाड़ जेल में सुबह 5.30 बजे दोषियों को फांसी दे दी गई।
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12.एससी ने COVID19 के चलते अगले आदेश तक 15 मार्च से सभी न्यायालय/ न्यायाधिकरणों में फाइलिंग की सीमा अवधि को बढ़ाया
COVID19 महामारी के दौरान देश भर की अदालतों और न्यायाधिकरणों में फिजिकल फाइलिंग को कम करने के उद्देश्य से 23 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर 15 मार्च से सभी अपील दाखिल करने के लिए सीमा अवधि बढ़ा दी थी। बाद में, 6 मई को इसे मध्यस्थता और सुलह अधिनियम और परक्राम्य लिखत अधिनियम ( एनआई एक्ट) अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्यवाही के लिए भी लागू किया गया था।
बाद में, 19 सितंबर को, अपने 23 मार्च के आदेश को स्पष्ट करते हुए, सीजेआई एसए बोबडे, जस्टिस एएस बोपन्ना और वी रामासुब्रमण्यम की खंडपीठ ने कहा था कि उक्त आदेश केवल ''सीमा की अवधि'' बढ़ाने के लिए है,उस अवधि तक नहीं, जिसमें देरी को कानून द्वारा प्रदत्त विवेक के प्रयोग में शामिल किया जा सकता है।
13.सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों/ केंद्रशासित प्रदेशों को जेलों में कैदियों की संख्या कम करने के लिए छोटे अपराधों में शामिल कैदियों को पैरोल देने पर विचार करने का निर्देश दिया
कोेरोना महामारी के मद्देनजर जेलों में भीड़भाड़ से बचने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को चार से छह सप्ताह के लिए पैरोल पर रिहा होने वाले कैदियों के वर्ग का निर्धारण करने के लिए उच्च स्तरीय समितियों का गठन करने का निर्देश दिया था।
प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा था कि सात साल तक की जेल की सजा वाले अपराध करने वाले कैदियों को पैरोल दी जा सकती है।
बाल देखभाल संस्थानों और किशोर घरों में भीड़ को कम करने के लिए एक अन्य पीठ द्वारा भी इसी तरह के निर्देश जारी किए गए थे।
14. 'एक्स पोस्ट फैक्टो' पर्यावरणीय मंजूरी कानून में अरक्षणीय
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और अजय रस्तोगी की खंडपीठ ने दोहराया था कि 'एक्स पोस्ट फैक्टो' एनवायरनमेंटल क्लीयरेंस (ईसी) की अवधारणा पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।
''... पर्यावरण कानून एक एक्स पोस्ट फैक्टो क्लीयरेंस की धारणा को नहीं आंक सकता है। यह एहतियाती सिद्धांत और साथ ही टिकाऊ विकास की आवश्यकता के विपरीत होगा'' अदालत ने कॉमन काॅज बनाम भारत का संघ मामले में की गई टिप्पणियों के प्रकाश में यह दोहराया।
(Case: Alembic Pharmaceuticals Ltd. v. Rohit Prajapati & Ors.)
15.सुप्रीम कोर्ट ने आरबीआई द्वारा क्रिप्टोकरेंसी पर लगाया प्रतिबंध हटाया
एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरबीआई द्वारा जुलाई 2018 से बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा क्रिप्टोकरेंसी के संबंध में सेवाएं प्रदान करने या क्रिप्टोकरेंसी व्यापार से निपटने के संबंध में लगाए गए प्रतिबंध को हटा दिया था।
जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की तीन जजों की बेंच ने फैसला ये फैसला सुनाते हुए 2018 के सर्कुलर/ अधिसूचना को रद्द कर दिया था। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की याचिका पर ये फैसला आया था। विनियामक निकाय ने 6 अप्रैल, 2018 को एक सर्कुलर निर्देश जारी किया था कि इसके द्वारा विनियमित सभी इकाइयां आभासी मुद्राओं ( वर्चुअल करेंसी) में सौदा नहीं करेंगी या किसी व्यक्ति या इकाई को इससे निपटने में सुविधा प्रदान करने के लिए सेवाएं प्रदान नहीं करेंगी।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सुनवाई के दौरान, आईएमएआई ने तर्क दिया था कि क्रिप्टोकरेंसी कोई मुद्रा नहीं है और आरबीआई के पास कानून के अभाव में इस तरह के प्रतिबंध को लागू करने की शक्तियां नहीं हैं, जिसमें क्रिप्टोकरेंसी को प्रतिबंधित किया गया है। आरबीआई ने हालांकि कहा था कि उसका प्रतिबंध सही है। 2013 से वो क्रिप्टोकरेंसी के उपयोगकर्ताओं को सावधान कर रहा है और इसे भुगतान का एक डिजिटल साधन नहीं मानता है। इस पर कड़ाई से रोक होनी चाहिए ताकि देश में भुगतान प्रणाली खतरे में न पड़े। अंत में, उसका कहना था कि आरबीआई को क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने के फैसले लेने का अधिकार है।
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16.COVID-19, सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी न्यायालयों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग को लागू करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए।
न्याय के लिए अनधिकृत पहुंच के साथ-साथ सामाजिक दूरी को बनाए रखने की अत्यधिक आवश्यकता को देखते हुए, मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और एल नागेश्वर राव की पीठ ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अदालतों के कामकाज को सुव्यवस्थित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे।
(Case: In Re: Guidelines For Court Functioning Through Video Conferencing During Covid-19 Pandemic)
17.एमपी राजनीतिक संकटः सुप्रीम कोर्ट ने कहा, चलते सदन में फ्लोर टेस्ट कराने का राज्यपाल का फैसला सही
मध्य प्रदेश में कांग्रेस- भाजपा के बीच चली सत्ता की लड़ाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपना विस्तृत फैसला सुनाया था।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने इस फैसले में कहा था कि चलती हुई विधानसभा में राज्यपाल का फ्लोर टेस्ट कराने का निर्देश सही था और राज्यपाल के पास ये संवैधानिक अधिकार है कि वो चलते हुए सत्र में फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दे सकते हैं।
पीठ ने कहा कि फ्लोर टेस्ट आवश्यक था क्योंकि सरकार बहुमत खो चुकी थी। राज्यपाल खुद कोई फैसला नहीं ले रहे थे बल्कि केवल फ्लोर टेस्ट करने को कह रहे थे।
शिवराज सिंह चैहान और अन्य भाजपा नेताओं की याचिका पर सुनवाई करते हुए, 22 कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे के बाद मप्र विधानसभा में तत्काल फ्लोर टेस्ट की मांग की गई थी। इसलिए अदालत ने 19 मई को कमलनाथ के नेतृत्व वाली पिछली सरकार के बहुमत साबित करने के लिए मप्र विधानसभा में फ्लोर टेस्ट आयोजित करने के अपने आदेश की पुष्टि की।
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18. आयुष्मान भारत योजना और ईडब्लूएस श्रेणियों के तहत आने वाले व्यक्तियों का ही निः शुल्क COVID-19 परीक्षण होगा;सुप्रीम कोर्ट ने निजी लैब्स को अन्य से चार्ज वसूलने की अनुमति दी
सरकारी और निजी प्रयोगशालाओं, दोनों में COVID-19 के लिए निः शुल्क परीक्षण का निर्देश देने वाले अपने पिछले आदेश के संशोधन करते हुए सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अशोक भूषण और एस रवींद्र भट्ट की पीठ ने निर्देश दिया था कि-
आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत पात्र व्यक्तियों के लिए निः शुल्क परीक्षण उपलब्ध होगा, और भारत सरकार द्वारा पहले से ही अधिसूचित समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के व्यक्ति भी निःशुल्क टेस्ट कराने के हकदार होंगे।
(Case: Shashank Deo Sudhi v. Union of India & Ors.)
19.अनुसूचित क्षेत्रों के स्कूलों में एसटी वर्ग से संबंधित शिक्षकों का 100 प्रतिशत आरक्षण असंवैधानिकः सुप्रीम कोर्ट संविधान पीठ
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ''अनुसूचित क्षेत्रों'' में स्थित स्कूलों में अनुसूचित जनजाति वर्ग से संबंधित शिक्षकों का 100 प्रतिशत आरक्षण संवैधानिक रूप से अमान्य है। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आंध्र प्रदेश के राज्यपाल द्वारा जारी किए गए सरकारी आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें एसटी शिक्षकों के लिए पूर्ण आरक्षण की पुष्टि की थी और आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सरकार दोनों पर जुर्माना लगाया जो सरकार के लिए आरक्षण में 50 प्रतिशत सीलिंग को तोड़ना चाहते थे।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील दायर किए जाने के बाद यह मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया था जिसने उक्त शत-प्रतिशत आरक्षण के लिए सरकार के आदेश को बरकरार रखा था।
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20.एनडीपीएस-मिश्रण में तटस्थ पदार्थ की मात्रा को दवा के वास्तविक वजन के साथ विचार किया जाना चाहिए, ताकि छोटी या व्यावसायिक मात्रा तय हो सकेः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेंस एक्ट, 1985 के तहत नशीली दवाओं या साइकोट्रोपिक पदार्थ के मिश्रण में तटस्थ पदार्थों की मात्रा को, श्छोटी या व्यावसायिक मात्राश् निर्धारित करते हुए अपराधी दवा के वास्तविक वजन के साथ ध्यान दिया जाना चाहिए। तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने इसी दृष्टिकोण पर 2008 के ई माइकल राज बनाम इंटेलिजेंस ऑफिसर, नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो के मामले में दिए निर्णय को रद्द कर दिया, जिसमें माना गया था कि एनडीपीएस एक्ट के तहत मिश्रण में केवल दवा का वास्तविक वजन मायने रखेगा, तटस्थ पदार्थों के वजन को बाहर रखा जा सकता है।
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21.'डीम्ड विश्वविद्यालय' भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के दायरे मेंः सुप्रीम कोर्ट
एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि एक 'डीम्ड विश्वविद्यालय' भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के दायरे में आएगा। इस प्रकार, तीन न्यायाधीशों वाली बेंच जिसमें जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस मोहन एम शांतनागौदर और जस्टिस अजय रस्तोगी शामिल थे, ने गुजरात उच्च न्यायालय के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसने भ्रष्टाचार के एक मामले के अभियोजन से एक डीम्ड विश्वविद्यालय के ट्रस्टियों को आरोपमुक्त होने की अनुमति दी ( गुजरात राज्य बनाम मनसुखभाई कांजीभाई शाह)।
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22.आर्टिकल 30 राज्य को अल्पसंख्यक संस्थानों के प्रशासन को पारदर्शी बनाने के लिए उचित विनियमों को लागू करने से नहीं रोकता हैःसुप्रीम कोर्ट
एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश में चिकित्सा और दंत चिकित्सा पाठ्यक्रमों में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रमों के लिए राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा (एनईईटी) को बरकरार रखा था।
'क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर बनाम भारत संघ' शीर्षक वाली रिट याचिकाओं के एक समूह पर फैसला सुनाते हुए पीठ ने कहा था कि मेडिकल और दंत चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए एनईईटी की एक समान परीक्षा निर्धारित करने से अनुच्छेद 19 (1) (जी) के साथ 30 संविधान के 25, 26 और 29 (1) के साथ पढ़ने के तहत गैर सहायता प्राप्त/सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं हुआ। पीठ ने यह भी कहा कि एनईईटी ने संविधान के अनुच्छेद 29 (1) और 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया है।
पीठ ने कहा था कि,''अनुच्छेद 30 के तहत धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकार संविधान के अन्य हिस्सों के साथ संघर्ष में नहीं हैं। अधिकारों को संतुलित करना राष्ट्रीय और अधिक व्यापक सार्वजनिक हित में संवैधानिक इरादा है। नियामक उपायों को सीमित शासन की अवधारणा से अधिक नहीं कहा जा सकता है। प्रश्न में विनियामक उपाय सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए हैं और अनुच्छेद 47 और 51 (ए) (जे) में उल्लिखित निर्देश सिद्धांतों के आगे एक कदम है और व्यक्ति को उनकी खोज में उत्कृष्टता प्राप्त करने का उद्देश्य के अनुसरण में पूरा अवसर प्रदान करके सक्षम बनाता है।
संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत एक संस्था को प्रशासित करने के अधिकार कानून और अन्य संवैधानिक प्रावधानों से ऊपर नहीं हैं। किसी संस्था को संचालित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत उपलब्ध ऐसे अधिकारों का उल्लंघन किए बिना उचित नियामक उपाय प्रदान किए जा सकते हैं।''
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23.सुप्रीम कोर्ट ने जजों के खिलाफ 'अपमानजनक और निंदनीय' आरोपों के लिए 3 लोगों को अवमानना का दोषी ठहराया
सुप्रीम कोर्ट ने तीन व्यक्तियों को जजों के खिलाफ 'अपमानजनक और निंदनीय' आरोपों के लिए अवमानना का दोषी ठहराया था।
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने विजय कुरले (राज्य अध्यक्ष, महाराष्ट्र और गोवा, इंडियन बार एसोसिएशन), राशिद खान पठान (राष्ट्रीय सचिव, मानवाधिकार सुरक्षा परिषद) और नीलेश ओझा (राष्ट्रीय अध्यक्ष, इंडियन बार एसोसिएशन) को अवमानना का दोषी ठहराया था।
पीठ ने कहा,
''इसमें कोई संदेह नहीं है, कोई भी नागरिक इस न्यायालय के फैसले की टिप्पणी या आलोचना कर सकता है। हालांकि, उस नागरिक के पास उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की क्षमता, ज्ञान, ईमानदारी, अखंडता और निष्पक्षता को चुनौती देने से पहले कुछ आधार होने चाहिए।''
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24.SARFAESIएक्ट सहकारी बैंकों पर भी लागूः सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि SARFAESI यानी सिक्योरिटाइजेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट (सरफेसी) एक्ट 2002 सहकारी बैंकों पर भी लागू है। ''राज्य विधान और मल्टी स्टेट कोऑपरेटिव बैंक के तहत सहकारी बैंक सिक्योरिटाइजेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट, 2002 की धारा 2 (1) (सी) के तहत 'बैंक' हैं।''
न्यायालय ने उस तर्क को खारिज कर दिया था जिसमें कहा गया था कि 2013 में धारा 2 (1) (सी) (iva) में 'मल्टी -स्टेट कोऑपरेटिव बैंकश् को जोड़ने वाले SARFAESIअधिनियम में संशोधन ''शक्ति का रंगबिरंगा अभ्यास'' था।
जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत सरन, जस्टिस एम आर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पांच जजों की बेंच ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए फैसला सुनाया था। ये पांडुरंग गणपति चैगुले और अन्य बनाम विश्वराव पाटिल मुर्गुद सहकारी बैंक लिमिटेड मामले में फैसला दिया गया है।
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25.सबरीमला संदर्भः सुप्रीम कोर्ट ने बताए कारण,क्यों पुनर्विचार में भी कानून का सवाल बड़ी बेंच के पास भेजा जा सकता है
आदेश दिनांक 11 मई, 2020
सबरीमला संदर्भ मामले में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि अदालत पुनर्विचार याचिकाओं में भी कानून के सवालों को बडी बेंच में भेज सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने एक समीक्षा याचिका को कानून के सवालों के संदर्भ में बड़ी पीठ के पास भेजने के कारणों का विवरण देते हुए आदेश पारित किया था।
सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि अदालत पुनर्विचार याचिकाओं में भी कानून के सवालों को बडी बेंच में भेज सकती है। इसी के साथ उस याचिका को खारिज कर दिया था,जिसने पुनर्विचार याचिका पर सवाल उठाते हुए कहा था कि यह याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।
उस अवसर पर, पीठ ने कहा था कि यह बाद में इस निष्कर्ष के लिए कारण बताएगी।
इसने अब निम्नलिखित कारण बताए हैंः
सुप्रीम कोर्ट के नियमों के आदेश XLVII की सीमाएं, रिट याचिकाओं के आदेश/ निर्णय पर लागू नहीं होती हैं;
एक लंबित समीक्षा याचिका में संदर्भ दिया जा सकता है;
कोई भी मामला सुपीरियर कोर्ट आॅफ रिकॉर्ड के अधिकार क्षेत्र से परे नहीं है;
अनुच्छेद 142 संदर्भ को सही ठहराता है;
कानून के सवालों का फैसला करने के लिए तथ्यों को संदर्भित करना आवश्यक नहीं है;
अनुच्छेद 145 (3) के परंतुक कि एक बड़ी बेंच को संदर्भ केवल अपील के मामले में ही किया जा सकता है और किसी अन्य कार्यवाही में नहीं, पांच या अधिक न्यायाधीशों की बेंच द्वारा किए गए संदर्भों पर लागू नहीं होता है।
[Case: Kantararu Rajeevaru v. Indian Young Lawyers Association]
26.सुप्रीम कोर्ट ने जे एंड के में 4 जी बहाली का आदेश देने से इनकार किया, विशेष समिति का गठन कर याचिकाकर्ताओं के उठाए मुद्दों की जांच करने को कहा
आदेश दिनांक 11 मई, 2020
जम्मू और कश्मीर में 4 जी स्पीड इंटरनेट सेवाओं की बहाली के लिए किसी भी सकारात्मक दिशा-निर्देश को पारित करने से परहेज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया था कि वह याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों की जांच के लिए एक ''विशेष समिति'' का गठन करे। ये समिति केंद्रीय गृह मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में होनी चाहिए
पीठ ने आदेश के भाग को निम्नानुसार पढ़ा,
''इस अदालत को राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवाधिकारों के बीच संतुलन को सुनिश्चित करना है। हम यह स्वीकार करते हैं कि यूटी संकट में डूबा हुआ है। इसी समय चल रही महामारी और कठिनाइयों से संबंधित चिंताओं के प्रति अदालत को संज्ञान है।''
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27. भारत की आजादी तब तक सुरक्षित रहेगी जब तक पत्रकार बिना किसी खतरे के अपनी बात कर सकते हैंः अर्नब गोस्वामी के मामले में सुप्रीम ने कहा
19 मई, 2020 का आदेश
रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी द्वारा एफआईआर को रद्द करने की मांग करते हुए दायर एक रिट याचिका में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक पत्रकार के खिलाफ कई शिकायत दायर होना और उसे कई राज्यों और न्यायालयों के पास राहत के लिए जाने को मजबूर करना,जबकि सभी एफआईआर व शिकायत एक ही जैसी हो, तो इससे उसकी स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ता है।
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और एमआर शाह की पीठ ने आगे दोहराया था कि कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत एक पत्रकार का अधिकार एक नागरिक के बोलने और व्यक्त करने के अधिकार से अधिक नहीं है, लेकिन समाज को कभी नहीं भूलना चाहिए,इनका एक दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। अगर मीडिया एक स्थिति का पालन करने के लिए जंजीर में बंधा हुआ है तो स्वतंत्र नागरिक मौजूद नहीं रह सकते हैं। हालांकि अदालत ने गोस्वामी की प्राथमिकी को रद्द करने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।
कोर्ट जांच को सीबीआई को हस्तांतरित करने से भी इनकार कर दिया था और कहा कि आरोपी व्यक्ति के पास उस मोड या तरीके के संबंध में कोई विकल्प नहीं है जिसमें जांच की जानी चाहिए या जांच एजेंसी के संबंध में होनी चाहिए। इस संबंध में 2018 भीमा कोरेगांव मामले (रोमिला थापर बनाम भारत संघ) के आदेश का हवाला दिया गया था।
[Case: Arnab Ranjan Goswami v. Union of India & Ors.]
28.''पेटेंट इलीगैलिटी'' 2015 के संशोधन के बाद दिए गए डोमेस्टिक आर्बिट्रल अवार्ड को रद्द करने के लिए एक ग्राउंड के तौर पर उपलब्ध हैःसुप्रीम कोर्ट
22 मई, 2020 को आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत एक आर्बिट्रल अवार्ड को रद्द किया सकता है यदि वह पेटेंटली अवैध या विकृत है।
जस्टिस आर बानुमथी, इंदु मल्होत्रा और अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने कहा था कि कानून के तहत पेटेंट इलीगैलिट का आधार मध्यस्थता और सुलह अधिनियम में 2015 में किए गए संशोधन के बाद दिए गए डोमेस्टिक आर्बिट्रल अवार्ड को रद्द करने के लिए एक आधार के तौर पर उपलब्ध है।
[Case: Patel Engineering Ltd. v. North Easter Electric Power Corporation Ltd.(NEEPCO)]
29.सीमा अवधि का स्वत से बढ़ाया जाना या लाॅकडाउन, सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आरोपी के डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को प्रभावित नहीं करताः सुप्रीम कोर्ट
19 जून, 2020 को आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि 15 मार्च से सभी अपील दाखिल करने के लिए सीमा अवधि बढ़ाने वाला शीर्ष अदालत का पूर्व का आदेश, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत पाने के लिए किसी अभियुक्त के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा। जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यन की बेंच ने इस प्रकार 'एस कासी बनाम पुलिस इंस्पेक्टर के माध्यम से राज्य' मामले में मद्रास उच्च न्यायालय की एकल पीठ के फैसले को पलट दिया था, जिसमें कहा गया था कि सीमा विस्तार और लॉकडाउन प्रतिबंध के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व आदेश के कारण सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आरोप पत्र दायर करने की समय अवधि का भी विस्तार हो जाएगा।
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30.सुप्रीम कोर्ट ने 31 मार्च के बाद BS-IV वाहनों की बिक्री का आदेश वापस लिया, ऐसे वाहनों के पंजीकरण पर भी रोक लगाई
8 जुलाई 2020 का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 27 मार्च के उस आदेश को वापस ले लिया था,जिसमें लॉकडाउन के बाद दस दिनों के लिए दिल्ली-एनसीआर को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में 10ः बिना बिके BS-IV वाहनों की बिक्री की अनुमति दी गई थी। पीठ ने ये फैसला यह देखते हुए वापस लिया कि ऑटोमोबाइल डीलरों ने आदेश का उल्लंघन कर ऐसे वाहनों को बेच दिया था।
आदेश को वापस लेने के बाद, न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान बेचे गए ऐसे वाहनों को बेचा हुआ नहीं माना जाएगाऔर जो राशि प्राप्त हुई है, उसे खरीदारों को वापस कर दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि 31 मार्च के बाद बेचे जाने वाले किसी भी वाहन को पंजीकृत नहीं किया जाना चाहिए।
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31. स्वत संज्ञान लिमिटेशन एक्सटेंशन, सुप्रीम कोर्ट ने व्हाट्सएप, ईमेल और फैक्स जैसी त्वरित टेली-मैसेंजर सेवाओं के माध्यम से सेवा की अनुमति दी
आदेश दिनांक 10 जुलाई, 2020
सेवा के तरीकों के संदर्भ में एक प्रमुख विकास में, मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे, एएस बोपन्ना और सुभाष रेड्डी की पीठ ने व्हाट्सएप जैसी त्वरित टेली-मैसेंजर सेवाओं के साथ-साथ ईमेल और फैक्स के माध्यम से सम्मन और नोटिस की सेवा की अनुमति दी। महामारी के बीच कोर्ट ने डाकघरों में जाने में कठिनाई महसूस होने के बाद यह आदेश पारित किया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी पार्टी पर एक वैध सेवा को साबित करने के लिए सभी तरीकों को प्रयुक्त किया जाना है।
32.केरल श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर मामलाः सुप्रीम कोर्ट ने त्रावणकोर के पूर्ववर्ती शाही परिवार के अधिकारों को बरकरार रखा
सुप्रीम कोर्ट ने तिरुवनंतपुरम में श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर के प्रशासन में त्रावणकोर के पूर्ववर्ती शाही परिवार के अधिकारों को बरकरार रखा था।
त्रावणकोर परिवार के सदस्यों द्वारा दायर अपील पर शीर्ष अदालत ने केरल उच्च न्यायालय के इस फैसले को पलट दिया था कि 1991 में त्रावणकोर के अंतिम शासक की मृत्यु के साथ परिवार के अधिकारों का अस्तित्व समाप्त हो गया था। अंतिम शासक की मृत्यु सरकार के पक्ष में राजकीय संपत्ति के अधिकार के तौर पर नहीं होगा।
मृत्यु से परिवार पर देवता के शबैत ( प्रबंधन) अधिकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और वे प्रथा के अनुसार जीवित रहेंगे, अदालत ने फैसला सुनाया।
पीठ ने एक नई समिति के गठन तक मंदिर के मामलों का प्रबंधन करने के लिए जिला न्यायाधीश, तिरुवनंतपुरम की अध्यक्षता वाली एक अंतरिम समिति के गठन को मंजूरी दी। न्यायमूर्ति यू यू ललित की अगुवाई वाली पीठ ने 2011 के केरल उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली अपीलों में फैसला सुनाया, जिसने सरकार को श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर का नियंत्रण संभालने का निर्देश दिया,जिसमें संपत्ति और प्रबंधन शामिल है। जस्टिस सी एन रामचंद्रन नायर और जस्टिस के सुरेन्द्र मोहन ने सरकार को निर्देश दिया था कि वे सभी काल्सरा ( तिजोरी) खोलें, पूरे सामान की सूची बनाएं और एक संग्रहालय बनाएंऔर जनता, भक्तों और पर्यटकों के लिए मंदिर के सभी खजानों का प्रदर्शन करें जिसकी मंदिर परिसर में ही भुगतान के आधार पर व्यवस्था की जा सकती थी।
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33.साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत सर्टिफिकेट इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता की पूर्व शर्त हैः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत आवश्यक प्रमाण पत्र इलेक्टॉनिक रिकॉर्ड के माध्यम से साक्ष्य की स्वीकार्यता की पूर्व शर्त है। न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने आगे कहा था कि तथ्यपरक परिस्थितियों के तहत यदि संबंधित व्यक्ति अथवा अधिकारी से अपेक्षित प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया गया है और संबंधित व्यक्ति या अधिकारी प्रमाण पत्र देने से इनकार करता है अथवा आवेदन का जवाब नहीं देता तो प्रमाण पत्र की मांग करने वाली पार्टी साक्ष्य अधिनियम के उपरोक्त प्रावधान के तहत या नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) अथवा अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों के तहत कोर्ट से इसे उपलब्ध कराने के लिए आवेदन कर सकती है।
पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि मूल दस्तावेज पहले से ही मौजूद हैं तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है। कोर्ट ने कहा कि उपरोक्त स्पष्टीकरण के मद्देनजर 'अनवर पी. वी. बनाम पी. के. बशीर एवं अन्य (2014) 10 एससीसी 473' के मामले में दिये गये आदेश पर फिर से विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
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34.FCRA : बिना राजनीतिक संबद्धता के सार्वजनिक मुद्दों का समर्थन करने वाले संगठन विदेशी योगदान लेने से प्रतिबंधित नहींः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बिना राजनीतिक संबद्धता के सार्वजनिक मुद्दों का समर्थन करने वाले संगठनों को विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) 2010 और बाद के नियमों के संदर्भ में विदेशी योगदान स्वीकार करने पर प्रतिबंध नहीं है। एफसीआरए की धारा 3 (1) (एफ) के अनुसार, केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट एक ''राजनीतिक प्रकृति का संगठन'' विदेशी योगदान प्राप्त करने से प्रतिबंधित है। एफसीआरए नियम 2011 के नियम 3 के अनुसार केंद्र द्वारा किसी संगठन को प्रतिबंधित घोषित करने के मानदंड निर्धारित किए गए थे।
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35. सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के कारण नौकरी गंवाने वाले प्रवासी कामगारों के कल्याण के लिए निर्देश दिए
सुप्रीम कोर्ट लाॅकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा पर अपनी निष्क्रियता के लिए काफी आलोचना की शिकार हुई थी। अदालत ने केंद्र सरकार के बयानों को स्वीकार करते हुए प्रवासियों के मुद्दे पर मार्च-अप्रैल के दौरान दायर कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई बंद कर दी थी।
मई के अंतिम सप्ताह में, न्यायालय ने प्रवासी कामगारों के मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लिया।
बाद में, न्यायालय ने प्रवासियों को उनके मूल स्थानों पर वापिस भेजने के लिए सुगम परिवहन की व्यवस्था करने व उनकी वापसी के बाद उनके लिए रोजगार आदि के अवसर सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्यों को निर्देश जारी किए थे।
36.कामगारों को पूरा वेतन न देने वाले नियोक्ताओं पर कोई कठोर कार्रवाई नहींः सुप्रीम कोर्ट
सर्वोच्च न्यायालय ने 29 मार्च को गृह मंत्रालय द्वारा पारित आदेश के साथ हस्तक्षेप किया, जिसमें लाॅकडाउन के दौरान नियोक्ताओं को अपने कर्मचारियों के वेतन में कटौती नहीं करने का निर्देश दिया था।
कोर्ट ने निर्देश दिया था कि एमएचए आदेश के उल्लंघन के लिए नियोक्ताओं के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने 29 मार्च को गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देश की परवाह किए बिना, मजदूरी के पूर्ण भुगतान पर प्रतिष्ठानों और श्रमिकों के बीच बातचीत की कोशिश की।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि,''कोई भी उद्योग श्रमिकों के बिना जीवित नहीं रह सकता है। इस प्रकार नियोक्ता और कर्मचारी को आपस में बातचीत और समझौता करने की आवश्यकता है। यदि वे इसे आपस में नहीं सुलझा पा रहे हैं, तो उन्हें संबंधित श्रम अधिकारियों से मुद्दों को सुलझाने के लिए संपर्क करने की आवश्यकता है।''
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37.सुप्रीम कोर्ट ने सुशांत सिंह राजपूत केस सीबीआई को सौंपा
बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत से जुड़े मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया।
न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की एकल पीठ ने केस के स्थानांतरण का आदेश देते हुए कहा था कि मुंबई पुलिस ने कुछ गलत नहीं किया है।
कोर्ट ने मामले की फाइलें सीबीआई को सौंपने और आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिए महराष्ट्र पुलिस को निर्देश दिया था।
पीठ ने आदेश दिया कि ''इस अदालत द्वारा सीबीआई जांच का आदेश दिया गया है। महाराष्ट्र पुलिस को अनुपालन और सहायता करनी चाहिए।''
न्यायालय ने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के संबंध में सीबीआई को भविष्य में दर्ज किए गए अन्य मामलों की भी जांच करने का निर्देश दिया था।
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38.न्यायपालिका पर ट्वीट करने पर प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की अवमानना का दोषी करार दिया
2020 में सुप्रीम कोर्ट के सबसे ज्यादा आलोचना वाले फैसलों में एक एडवोकेट प्रशांत भूषण को न्यायपालिका की आलोचना करने वाले उनके ट्वीट के लिए अदालत की अवमानना का दोषी ठहराना था।
सुप्रीम कोर्ट ने वकील प्रशांत भूषण को भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के बारे में अपने दो ट्वीट्स में उनके खिलाफ स्वतः संज्ञान अवमानना मामले में अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया था। न्यायमूर्ति बी आर गवई ने फैसले को पढ़ते हुए कहा था कि भूषण ने ''न्यायालय की गंभीर अवमानना''की।
इस मामले की सुनवाई में नाटकीय दृश्य देखे गए ,जब प्रशांत भूषण ने माफी मांगने से इनकार कर दिया और अपने ट्वीट में व्यक्त विचारों की पुष्टि की। उन्होंने अपने विचारों के कारणों को बताते हुए अदालत में एक विस्तृत हलफनामा दायर किया। हालांकि, फैसले ने भूषण के हलफनामे में उठाए गए बिंदुओं या अदालत में उनके वकील वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे द्वारा दिए गए तर्कों को संबोधित नहीं किया। हालांकि पीठ ने भूषण से बार-बार माफी मांगने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए अपना पक्ष रखा कि वह अपने विचारों के लिए किसी भी सजा से गुजरने को तैयार हैं।
भारत के अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने पीठ से अनुरोध किया था कि वह भूषण को दंडित न करें और चेतावनी के बाद उन्हें छोड़ दें। अंत में कोर्ट ने भूषण को एक रूपया जुर्माना भरने की सजा सुनाई।
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39.सुप्रीम कोर्ट ने पीएम केयर्स फंड को एनडीआरएफ में ट्रांसफर करने की याचिका खारिज की; कहा COVID-19 के लिए नई राष्ट्रीय आपदा योजना की आवश्यकता नहीं
पीएम केयर्स फंड पर मंजूरी की मोहर लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया था,जिसमें पीएम केयर्स फंड से राशि को राष्ट्रीय आपदा राहत कोष (एनडीआरएफ) में ट्रांसफर करने की मांग की गई थी।
कोर्ट ने यह भी कहा था कि COVID-19 के लिए नए राष्ट्रीय आपदा राहत योजना की कोई आवश्यकता नहीं है और COVID-19 से पहले ही आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत जारी राहत के न्यूनतम मानक पर्याप्त हैं। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि केंद्र एनडीआरएफ को फंड ट्रांसफर करने के लिए स्वतंत्र होगा क्योंकि यह उपयुक्त है और व्यक्ति एनडीआरएफ को दान करने के लिए स्वतंत्र हैं।
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40.एक बेटी के पास हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के बाद सहदायिक अधिकार होगा, भले ही संशोधन के समय उसके पिता जीवित हो या नहीं
एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक बेटी के पास हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के बाद एक हिस्सा होगा, भले ही संशोधन के समय उसके पिता जीवित हो या नहीं।
तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि संशोधन के तहत अधिकार 9-9-2005 के अनुसार जीवित हिस्सेदारों की जीवित बेटियों पर लागू होते हैं, इस तथ्य के बिना बिना कि ऐसी बेटियों का जन्म कब हुआ। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने मंगलवार को अपील के एक समूह पर फैसला सुनाया जिसने एक महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दा उठाया कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, जिसने पैतृक संपत्ति में बेटियों को समान अधिकार दिया था, का पूर्वव्यापी प्रभाव होगा।
न्यायमूर्ति मिश्रा ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि, ''बेटियों को बेटों के समान अधिकार दिया जाना चाहिए, बेटी जीवन भर एक प्यार करने वाली बेटी बनी रहती है। बेटी पूरे जीवन एक सहदायिक बनी रहेगी, भले ही उसके पिता जीवित हों या नहीं।''
यह मामला विनिता शर्मा बनाम राकेश शर्मा था।
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41. सुप्रीम कोर्ट ने यूजीसी और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बीच संघर्षों का निपटारा किया
सुप्रीम कोर्ट ने यूजीसी द्वारा अंतिम सेमेस्टर परीक्षा आयोजित करने और विभिन्न राज्यों में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों द्वारा जारी महामारी की स्थिति के मद्देनजर परीक्षाओं को रद्द करने के निर्देशों के बीच टकरावों में सामंजस्य स्थापित किया।
न्यायालय ने कहा कि राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण महामारी की स्थिति को ध्यान में रखते हुए परीक्षा रद्द करने का निर्देश दे सकता है। हालांकि, एसडीएमए यह निर्देश नहीं दे सकता है कि छात्रों को परीक्षा के बिना पदोन्नत किया जाए क्योंकि यह यूजीसी से संबंधित मामला है। न्यायालय ने कहा कि राज्य एसडीएमए निर्देशों के आधार पर परीक्षा के लिए 30 सितंबर की समय सीमा बढ़ा सकते हैं।
[Case : Praneeth K and others v University Grants Commission]
42.''COVID-19 सार्वजनिक आपातकाल नहीं''ःएससी ने बिना ओवरटाइम फैक्टरी एक्ट के तहत श्रमिकों के काम के घंटे बढ़ाने की अधिसूचना रद्द की
सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात श्रम और रोजगार विभाग द्वारा गुजरात में सभी कारखानों को फैक्ट्रियों अधिनियम, 1948 की धारा 59 के प्रावधानों से छूट प्रदान करने से संबंधित उस अधिसूचना को रद्द कर दिया था, जिसमें दैनिक कामकाज के घंटे, साप्ताहिक काम के घंटे, आराम के लिए अंतराल और वयस्क श्रमिकों के विस्तार के अलावा दोगुनी दरों पर ओवरटाइम मजदूरी के भुगतान से छूट दी गई थी।
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस इंदु मल्होत्राकी पीठ ने कहा था कि महामारी की स्थिति वैधानिक प्रावधानों को दूर करने का कारण नहीं हो सकती है जो श्रमिकों के लिए सम्मान और गौरव का अधिकार प्रदान करती है। इस संदर्भ में, पीठ ने कहा है कि ये महामारी देश की सुरक्षा को खतरा पैदा करने वाले कारखाना अधिनियम की धारा 5 के अर्थ के भीतर ''सार्वजनिक आपातकाल'' नहीं है।
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43. विरोध केवल निर्दिष्ट स्थानों पर ही हो सकता हैः शाहीन बाग विरोध पर एससी निर्णय
अभी तक एक और बहस योग्य निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि विरोध केवल निर्दिष्ट स्थानों पर ही किया जाना चाहिए। कोर्ट ने सीएए-एनआरसी के खिलाफ शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन को हटाने की मांग वाली याचिकाओं में यह घोषणा की थी।
मामले की पेंडेंसी के दौरान, कोर्ट ने प्रदर्शनकारियों के साथ मध्यस्थता करने के लिए वार्ताकारों को नियुक्त किया था। मार्च में, कोरोना महामारी की शुरुआत के साथ, प्रदर्शनकारियों, ज्यादातर मुस्लिम महिलाओं ने साइट को खाली कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि सार्वजनिक स्थानों पर अनिश्चित काल तक कब्जा नहीं किया जा सकता है।
''असहमति और लोकतंत्र हाथोंहाथ चलता है, लेकिन निर्धारित क्षेत्र में विरोध प्रदर्शन किया जाना चाहिए,'' न्यायमूर्ति एसके कौल, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने विरोध करने के अधिकार के दायरे में ये निर्णय सुनाया कि क्या इस तरह के अधिकार पर कोई सीमाएं हो सकती हैं।
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44. उच्च न्यायालय उपयुक्त मामलों में अनुच्छेद 226 के तहत जमानत दे सकता है - अर्नब गोस्वामी केस
रिपब्लिक टीवी के एंकर अर्नब गोस्वामी को जेल से रिहा करने का आदेश देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उच्च न्यायालय उपयुक्त मामले में संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक रिट याचिका में भी जमानत दे सकता है।
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी की एक पीठ ने कहा था कि ''हाईकोर्ट को उस शक्ति के प्रयोग से स्वयं को रोकना नहीं चाहिए जब कोई नागरिक राज्य की अधिक शक्ति के कारण अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से मनमाने ढंग से वंचित रहा हो।''
45. एनडीपीएस अधिकारियों के सामने दिया इकबालिया बयान मान्य नहींः तोफान सिंह मामले में बहुमत 2ः1 से सुप्रीम कोर्ट का फैसला
एनडीपीएस मामलों की जांच करने वाले अधिकारी 'पुलिस अधिकारी' हैं और उनके सामने इकबालिया बयान मान्य नहीं,यह निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट (2ः1), ने कहा था कि नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंस (एनडीपीएस) एक्ट के तहत नियुक्त केंद्र और राज्य एजेंसियों के अधिकारी पुलिस अधिकारी हैं और इसलिए धारा 67 के तहत उनके द्वारा दर्ज किए गए 'स्वीकारोक्ति' बयान स्वीकार्य नहीं हैं।
जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन और जस्टिस नवीन सिन्हा ने इस तरह का फैसला दिया जबकि जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने असहमति व्यक्त की।
46. चूंकि जांच अधिकारी और शिकायतकर्ता एक ही है, इस आधार पर एनडीपीएस मामलों की सुनवाई विकृत नहीं होगी और न ही इस आधार पर अभियुक्त बरी हो सकता हैः सुप्रीम कोर्ट संविधान पीठ
सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने माना था कि इसे सामान्य प्रस्ताव के रूप में नहीं रखा जा सकता है कि एनडीपीएस अधिनियम के तहत एक अभियुक्त केवल इसलिए बरी होने का हकदार होगा क्योंकि शिकायतकर्ता जांच अधिकारी है।
''केवल इसलिए कि शिकायतकर्ता और जांच अधिकारी एक ही है, यह नहीं कहा जा सकता है कि जांच पक्षपाती है और मुकदमा विकृत है'', पीठ ने विशेष रूप से मोहन लाल बनाम पंजाब राज्य (2018) 17 एससीए 627 को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की है।
47.क्या एससी-एसटी आरक्षण के भीतर उप-वर्गीकरण स्वीकार्य है? सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने मामला बड़ी बेंच को भेजा, कहा- 'ईवी चिन्नैया' पर पुनर्विचार की आवश्यकता
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने कहा था कि ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य में एक समन्वित पीठ के फैसले पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है और मामले को बड़ी पीठ के समक्ष रखने के लिए मुख्य न्यायाधीश के पास भेजा जाए। पीठ ने कहा था कि अगर राज्य सरकार के पास आरक्षण देने की शक्ति होती है, वह उप-वर्गीकरण बनाने की भी शक्ति रखती है और इस प्रकार के उप-वर्गीकरण आरक्षण सूची के साथ छेड़छाड़ करने के बराबर नहीं होते हैं।
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48.एमसीआई के पास पीजी मेडिकल कोर्स में इन-सर्विस उम्मीदवारों के लिए आरक्षण देने की शक्ति नहीं, यह शक्ति राज्यों के पासःएससी संविधान पीठ
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने माना था कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पास किसी विशेष राज्य में पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल कोर्स में इन-सर्विस उम्मीदवारों के लिए कोई आरक्षण देने की शक्ति नहीं है।
जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, विनीत सरन, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा था कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया एक्ट की शक्ति प्रविष्टि 66, सूची 1 के संदर्भ में है, जो मानकों को पूरा करने के लिए सीमित शक्ति है। यह माना गया है कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पीजी मेडिकल पाठ्यक्रमों में इन-सर्विस उम्मीदवारों के लिए आरक्षण प्रदान करने वाले नियम मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया एक्ट के विपरीत हैं।
न्यायालय ने हालांकि स्पष्ट किया था कि निर्णय केवल संभावित रूप से लागू होगा और पहले से किए गए किसी भी प्रवेश को प्रभावित नहीं करेगा।
न्यायालय ने आगे कहा कि राज्य पीजी चिकित्सा पाठ्यक्रम में इन-सेवा डॉक्टरों के लिए आरक्षण प्रदान करने के लिए नियम बना सकते हैं और सुझाव दिया कि राज्य ऐसे लाभार्थियों को पांच साल के लिए ग्रामीण, पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में सेवा देने के लिए कह सकते हैं।
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49. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को ट्रिब्यूनल रूल्स 2020 में संशोधन करने के लिए कहा
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने ट्रिब्यूनल रूल्स 2020 को समस्याग्रस्त पाया। हालांकि, अटॉर्नी जनरल ने एमिकस क्यूरीए वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद पी दातार के सुझावों पर सहमति व्यक्त की और नियमों में संशोधन करने की बात कही तो पीठ ने नियमों को रद्द करने से अपने आप को रोक लिया था।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली पीठ ने माना था कि न्यायाधिकरणों की स्वतंत्रता और दक्षता सुनिश्चित करने के लिए संशोधन आवश्यक हैं। मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ मामले में पारित निर्णय में महत्वपूर्ण रूप से निर्देश दिया गया है कि एक राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आयोग का गठन किया जाए और कम से कम 10 साल की प्रैक्टिस वाले वकीलों को न्यायाधिकरणों में न्यायिक सदस्य बनने की अनुमति दी जाए।
50. बहुलतावाद के लिए प्रतिबद्ध राजनीति में हेट स्पीच समानता के अधिकार को निरस्त करती हैः सुप्रीम कोर्ट
अमीश देवगन बनाम भारत के संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले में 'हेट स्पीच' की अवधारणा पर विस्तृत चर्चा की गई थी।
कोर्ट ने माना था कि 'हेट स्पीच' का किसी विशेष समूह के प्रति घृणा के अलावा कोई उद्देश्य नहीं होता है। कोर्ट ने कहा कि एक प्रकाशन, जिसमें अनावश्यक बयान शामिल हों, जिसका नीचा दिखाने के अलावा कोई वास्तविक उद्देश्य न हो, इस बात का सबूत होगा कि प्रकाशन गलत इरादे से किया गया है।
जस्टिस खन्ना द्वारा ने फैसले में लिखा, ''बहुलतावाद के लिए प्रतिबद्ध राजनीति में, घृणास्पद भाषण लोकतंत्र के लिए किसी भी वैध तरीके से योगदान नहीं कर सकता है और वास्तव में, समानता के अधिकार को निरस्त करता है।''
कोर्ट ने कहा कि 'हेट स्पीच' की सार्वभौमिक परिभाषा मुश्किल रही है, सिवाय एक समानता के कि श्हिंसा के लिए उकसानाश्दंडनीय है। कोर्ट ने कहा, ''इसलिए, 'हेट स्पीच' का संवैधानिक और वैधानिक उपचार उन मूल्यों पर निर्भर करता है, जिन्हें बढ़ावा देने की मांग की जाती है, इसमें कथित नुकसान और इन नुकसानों का महत्व शामिल है।''
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51. डिफॉल्ट जमानत का अधिकार लागू करने योग्य है ,भले ही चार्ज शीट/रिपोर्ट दायर करने के लिए समय बढ़ाने की मांग के बाद उसे दायर कर दिया गया होःसुप्रीम कोर्ट
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जहां अभियुक्त पहले ही डिफॉल्ट जमानत के लिए आवेदन कर चुका है, उस केस में अभियोजक अंतिम रिपोर्ट, अतिरिक्त शिकायत या समय की अवधि बढ़ाने की मांग करते हुए रिपोर्ट दायर करके उसके अपरिहार्य अधिकार को विफल नहीं कर सकता है।
[Case :M. Ravindran vs. The Intelligence Officer]
52.राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए भूमि अधिग्रहण करने के मामले में पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी - सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की
सुप्रीम कोर्ट ने चेन्नई-सलेम आठ लेन के ग्रीनफील्ड एक्सप्रेस वे परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए जारी अधिसूचनाओं को बरकरार रखा था। कोर्ट ने माना था कि राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम की धारा 3 ए के तहत अधिसूचना के चरण में पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।
जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने भारत संघ और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण द्वारा मद्रास हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील पर फैसला सुनाया जिसने अधिग्रहण को रद्द कर दिया था।
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53.घरेलू हिंसा अधिनियम- पत्नी पति के रिश्तेदारों से संबंधित साझा घर में रहने के अधिकार का दावा करने की भी हकदार है, सुप्रीम कोर्ट ने 2006 के 'एस आर बत्रा' फैसले को पलटा
एक पत्नी पति के रिश्तेदारों से संबंधित साझा घर में रहने के अधिकार का दावा करने की भी हकदार है, सुप्रीम कोर्ट ने 2006 के एस आर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा फैसले को पलटते हुए ये अहम फैसला सुनाया था। कोर्ट ने कहा था कि, ''घटना में, साझा घर पति के किसी रिश्तेदार का है, जिसके साथ घरेलू संबंध में महिला रह चुकी है, धारा 2 (एस) में उल्लिखित शर्तें संतुष्ट हैं और उक्त घर एक साझा घर बन जाएगा।''
जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने अधिनियम की धारा 2 (एस) में दी गई 'साझा घर' की परिभाषा को देखा, इसका मतलब यह नहीं पढ़ा जा सकता है कि यह केवल वह घर हो सकता है जो संयुक्त परिवार का घर है जिस परिवार का पति सदस्य है या जिसमें पीड़ित व्यक्ति के पति का हिस्सा है।
कोर्ट ने कहा कि,
''एक घर में रहने वाली महिला के लिए एक ऐसे रहने का जिक्र करना है, जिसमें कुछ स्थायीपन हो। विभिन्न स्थानों पर रहने वाले या आकस्मिक रहने वाले लोग एक साझा घर नहीं बना पाएंगे। पक्षकारों का इरादा और घर की प्रकृति सहित जीवन की प्रकृति को यह देखने के लिए पता लगाया जाएगा कि क्या पक्षकार परिसर को साझा घराने के रूप में मानते हैं या नहीं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, अधिनियम 2005 को महिला के पक्ष में एक उच्च अधिकार देने के लिए अधिनियमित किया गया था। परिवार के भीतर होने वाली किसी भी तरह की हिंसा का शिकार होने वाली महिला के अधिकारों के अधिक प्रभावी संरक्षण के लिए अधिनियम, 2005 अधिनियमित किया गया है। अधिनियम की व्याख्या इसके बहुत ही उद्देश्य से की जानी चाहिए। अधिनियम, 2005 की धारा 17 और 19 को 2 (एस) के साथ पढ़ने पर ये साझा घर के तहत निवास के अधिकार की महिला के पक्ष में एक पात्रता प्रदान करती है, चाहे इसमें किसी भी तरह का कानूनी हित हो या न हो।''
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54. मकान मालिक-किरायेदार विवाद मध्यस्थता योग्य हैं बशर्ते वह किराया नियंत्रण कानूनों द्वारा कवर न होते हों
उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक संदर्भ का जवाब देते हुए कहा था कि मकान मालिक-किरायेदार विवादों में मध्यस्थता होती है जब तक कि उनको विशिष्ट किराए के कानूनों द्वारा कवर नहीं किया जाता है।
विद्या ड्रोलिया व अन्य बनाम दुर्गा ट्रेडिंग एंटरप्राइजेज मामले में तीन जजों की बेंच द्वारा दिए गए इस फैसले में कई मुद्दों को तय किया गया है, जैसे कि आर्बिट्रेबिलिटी के लिए टेस्ट, आर्बिट्रेबिलिटी का निर्धारण कौन करेगा, धारा 8/11 के तहत जांच का दायरा, 'मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व' का मतलब आदि।
जस्टिस एन वी रमना, संजीव खन्ना और कृष्ण मुरारी की बेंच ने हिमांशी एंटरप्राइजेज बनाम कमलजीत सिंह अहलूवालिया मामले में दिए गए विचार को खारिज कर दिया।
55.प्रत्येक पुलिस स्टेशन में सीसीटीवी कैमरा लगाना सुनिश्चित करें; पुलिस/ एनआईए /सीबीआई/ ईडी द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के शिकार हुए आरोपियों को पूछताछ की सीसीटीवी फुटेज लेने का अधिकार हैःसुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य और केंद्र शासित प्रदेश सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके अधीन कार्य करने वाले प्रत्येक पुलिस स्टेशन में सीसीटीवी कैमरे स्थापित हों।
न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन की अगुवाई वाली पीठ ने कहा था कि इन निर्देशों को अक्षरशः जल्द से जल्द लागू किया जाए। कोर्ट ने केंद्र सरकार को सीबीआई, एनआईए आदि केंद्रीय एजेंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरण लगाने का भी निर्देश दिया है।
न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह अपने कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरण लगाएः (1) केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) (2) राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) (3) प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) (4) नारकोटिक्स नियंत्रण ब्यूरो (एनसीबी) (5) राजस्व खुफिया विभाग (डीआरआई) (6) गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ)(7) कोई अन्य एजेंसी जो पूछताछ करती है और गिरफ्तारी की शक्ति रखती है।
''इन एजेंसियों में से अधिकांश अपने कार्यालय (कार्यालयों) में पूछताछ करते हैं, सीसीटीवी अनिवार्य रूप से सभी कार्यालयों में स्थापित किए जाएंगे, जहां इस तरह के पूछताछ और आरोपियों की पकड़ उसी तरह से होती है जैसे कि एक पुलिस स्टेशन में होती है।''
अदालत ने ये निर्देश परमवीर सिंह सैनी द्वारा दायर एसएलपी का निपटारा करते हुए जारी किए, जिसमें बयानों की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग और पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के बारे में मुद्दे उठाए गए थे।
अदालत ने कहा था कि मानव अधिकार आयोग/ अदालतें पुलिस के खिलाफ शिकायतों से निपटने के दौरान ऐसे सीसीटीवी फुटेज तलब कर सकती हैं। वहीं पुलिस,सीबीआई,एनआईए व ईडी आदि द्वारा अगर किसी आरोपी के मानव अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है तो ऐसा आरोपी के पास पूछताछ की सीसीटीवी फुटेज की काॅपी मांगने का अधिकार होगा।
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56. सीआरपीसी की धारा 167 (2), के तहत डिफॉल्ट जमानत /वैधानिक जमानत के लिए अदालत पैसा जमा कराने की शर्त नहीं लगा सकतीःसुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत / वैधानिक जमानत देते समय, राशि जमा करने की शर्त नहीं लगाई जा सकती। सीआरपीसी की धारा 167 (2), के तहत डिफॉल्ट जमानत/ वैधानिक जमानत पाने के लिए एकमात्र आवश्यकता ये है कि क्या आरोपी 60 या 90 दिनों से अधिक समय तक जेल में है, जैसा भी मामला हो, और 60 या 90 दिनों के भीतर, जैसा भी मामला हो, जांच पूरी नहीं हुई है और 60 वें या 90 वें दिन तक कोई चार्जशीट दाखिल नहीं की गई है और अभियुक्त डिफॉल्ट जमानत के लिए आवेदन करता है और जमानत दाखिल के लिए तैयार है, ये कहते हुए पीठ, जिसमें जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस एमआर शाह शामिल हैं, ने मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै बेंच द्वारा लगाई गई शर्त को रद्द कर दिया था, जिसमें एक अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत / वैधानिक जमानत पर रिहा करते समय 8 00,000 रुपये जमा करने की शर्त लगाई गई थी।
अदालत ने यह भी कहा था कि सीआरपीसी की धारा 437 के तहत नियमित जमानत आवेदन पर विचार करते समय परिस्थितियां डिफॉल्ट जमानत/ वैधानिक जमानत के लिए आवेदन पर विचार करते समय अलग-अलग होती हैं।
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57.वैध अपेक्षा से इनकार करना एक परिस्थिति हो सकती है जो अनुच्छेद 14 के मनमानी और उल्लंघन का कारण बन सकती है
सुप्रीम कोर्ट द्वारा झारखंड राज्य व अन्य बनाम ब्रह्मपुत्र मेटालिक्स लिमिटेड रांची व अन्य के मामले में दिया गया फैसला वैध अपेक्षा और वचनबद्ध एस्टॉपेल की अवधारणाओं को समझने के लिए एक अच्छा संदर्भ है।
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा की एक पीठ द्वारा सुनाए गए फैसले से यह भी पता चलता है कि मनमानी राज्य कार्रवाई के खिलाफ राहत का दावा करने के लिए कैसे वैध अपेक्षा के सिद्धांत का उपयोग कैसे किया जा सकता है।
फैसले में माना गया है कि,वैध अपेक्षा से इंकार करना एक परिस्थिति हो सकती है जो संविधान के अनुच्छेद 14 के मनमानी और उल्लंघन का कारण बनती है।
58.वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत बेदखली का आदेश लेकर घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत महिला के अधिकार को पराजित नहीं किया जा सकता हैः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के रखरखाव और कल्याण अधिनियम का घरेलू हिंसा अधिनियम से महिलाओं के संरक्षण के अर्थ में एक साझा घर में महिला के निवास के अधिकार पर कोई ओवरराइड प्रभाव नहीं है।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने एस वनिता बनाम उपायुक्त, बेंगलुरु शहरी जिला मामले में अवलोकन किया, साझा गृहस्थी के संबंध में निवास के आदेश को सुरक्षित रखने के लिए एक महिला के अधिकार को वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत सारांश प्रक्रिया को अपनाते हुए बेदखली के आदेश को हासिल करने के सरल उपाय द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता है।
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59.एक उचित केस में चार्जशीट दाखिल करने के बाद भी सीबीआई को जांच सौंपी जा सकती हैः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि चार्जशीट पेश करने के बाद सीबीआई को जांच स्थानांतरित करने के लिए उस पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने यह टिप्पणी दहेज हत्या के मामले में मृत महिला के ससुराल वालों को अग्रिम जमानत रद्द करते हुए और मामले की आगे जांच करने के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो को निर्देश देते समय की।
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60. सभी सिविल/ आपराधिक कार्यवाही पर अदालतों द्वारा पारित आदेश, जिसमें हाईकोर्ट भी शामिल हैं, 6 महीने के भीतर स्वचालित रूप से समाप्त हो जाएंगेे सिवाय इनको अच्छे कारण से विस्तारित न किया गया होःसुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि सिविल या आपराधिक कार्यवाही पर हाईकोर्ट सहित किसी भी अदालत द्वारा लगाई गई रोक स्वचालित रूप से छह महीने की अवधि के भीतर समाप्त हो जाएगी,जब तक कि अगले छह महीनों के भीतर अच्छे कारण के लिए इसे विस्तारित न किया गया हो या कोई एक्सटेंशन नहीं दिया जाता है।
न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट न्यायिक रूप से सर्वोच्च न्यायालय के अधीनस्थ है और एशियन रिसर्फेसिंग आॅफ रोड एजेंसी प्राइवेट लिमिटेड बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो मामले में जारी किए गए निर्देशों का पालन किया जाना चाहिए।
61.आरक्षित श्रेणियों के अभ्यर्थी मेरिट के आधार पर सामान्य श्रेणी की रिक्तियों के लिए पात्रः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार सामान्य/खुली श्रेणी के रिक्त पदों को भी भरने के लिए पात्र हैं।
जस्टिस उदय उमेश ललित, एस रवींद्र भट और हृषिकेश रॉय की पीठ ने कहा कि खुली श्रेणी में क्षैतिज आरक्षण की रिक्तियों को भरने में भी इस सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने कुछ उच्च न्यायालयों के दृष्टिकोण को अस्वीकार कर दिया कि, क्षैतिज आरक्षण को प्रभावित करने के लिए उम्मीदवारों को समायोजित करने के चरण में, आरक्षित श्रेणियों के उम्मीदवारों को संबंधित ऊर्ध्वाधर आरक्षण के तहत केवल अपनी श्रेणियों में ही समायोजित किया जा सकता है, न कि ''खुली या समान्य'' श्रेणियों में।