हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

Shahadat

2 Oct 2022 4:30 AM GMT

  • हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

    देश के विभिन्न हाईकोर्ट में पिछले सप्ताह (26 सितंबर, 2022 से 30 सितंबर, 2022) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं हाईकोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र।

    राज्य अपने नागरिकों की भूमि पर प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत का सहारा लेकर मालिकाना हक का दावा नहीं कर सकता: कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि कल्याणकारी राज्य होने का दावा करने वाला राज्य, अपने ही नागरिकों की संपत्ति हड़पने के लिए प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत को लागू करके भूमि के एक टुकड़े पर अपना अधिकार सिद्ध करने का दावा नहीं कर सकता है। जस्टिस अरिजीत बनर्जी और जस्टिस राय चट्टोपाध्याय की पीठ ने आगे कहा कि यह बहुत ही अजीब होगा यदि राज्य जबरन किसी नागरिक की भूमि पर प्रतिकूल कब्जे के आधार पर कब्जा कर लेता है।

    केस टाइटल- पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य बनाम दिलीप घोष व अन्य। [MAT 464 Of 2018]

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    क्या रिट कोर्ट के दो अलग-अलग आदेशों के खिलाफ सिंगल रिट अपील सुनवाई योग्य है? मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने जवाब दिया

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच ने हाल ही में एक रिट कोर्ट द्वारा पारित दो अलग-अलग आदेशों के खिलाफ दायर एक रिट अपील के सुनवाई योग्य होने को बरकरार रखा।

    अपील के सुनवाई योग्य होने को चुनौती देने वाले प्रतिवादियों द्वारा उठाए गए तर्कों को खारिज करते हुए जस्टिस सुबोध अभ्यंकर और ज‌स्टिस एसके सिंह ने कहा, इस न्यायालय का यह सुविचारित मत है कि यह न्याय के हित में होगा यदि अपीलकर्ता मूल आदेश के विरुद्ध की गई अपील में पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति के आदेश को भी चुनौती दे सकता है, क्योंकि तीन ऐसे अवसर हैं जब अपीलीय न्यायालय की स्वयं राय है कि अपीलकर्ता पुनर्विचार याचिका में अपील में उठाए गए आधारों को उठा सकता था।

    केस टाइटल: मेसर्स फोर्ट क्रशिंग मेटल, सुनील जैन के माध्यम से बानम एमपी पश्चिम क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी लिमिटेट और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    आरोप तय करने के आदेश के खिलाफ NIA एक्ट की धारा 21 के तहत अपील सुनवाई योग्य नहीं : मेघालय हाईकोर्ट

    मेघालय हाईकोर्ट ने माना कि यूएपीए के कड़े प्रावधानों के तहत आरोप तय करने के आदेश को राष्ट्रीय जांच एजेंसी अधिनियम की धारा 21 के तहत अपील में चुनौती नहीं दी जा सकती।

    चीफ जस्टिस संजीब बनर्जी और जस्टिस डब्ल्यू डिएंगदोह की पीठ ने कहा कि एनआईए अधिनियम की योजना में मुकदमे की त्वरित प्रक्रिया और कार्रवाई को अंतिम रूप देने की परिकल्पना की गई। इस प्रकार, एनआईए अधिनियम की धारा 21 में अपील प्रावधान को ठीक उसी तरह पढ़ा जाना चाहिए, जैसा कि कहा गया और इसकी व्यापक व्याख्या, जो प्रक्रिया को बढ़ाएगी, अनुमेय नहीं होगी।

    केस टाइटल: डिमचुइंगम रुआंगमेई बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    क्या पुलिस आरटीआई अधिनियम के तहत जांच के दौरान एकत्र की गई व्हाट्सएप चैट और तस्वीरों का खुलासा कर सकती है? कलकत्ता हाईकोर्ट ने कहा 'नहीं'

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने मृत महिला और उसके दोस्त की निजी चैट और तस्वीरों के आरटीआई खुलासे के खिलाफ आदेश पारित करते हुए कहा कि जांच के दौरान पुलिस को व्हाट्सएप मैसेज और तस्वीरें प्रदान करना उन्हें "निजी से गैर-निजी" में परिवर्तित नहीं करता।

    जस्टिस मौसमी भट्टाचार्य ने कहा कि निजता के अधिकार में अकेले या दूसरों के साथ रहने का अधिकार भी शामिल है और किसी की अंतरंगता, रिश्तों, विश्वासों और जुड़ाव को निजी डोमेन के भीतर रहने वाली जानकारी के रूप में मानने का अधिकार भी शामिल है।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मोटर दुर्घटना मृत्यु| पैरेंटल कंसोर्टियम सभी बच्चों को उपलब्ध, वह मृतक पर निर्भर हों या नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल के एक फैसले में कहा कि मोटर दुर्घटना से होने वाली मौतों के मामलों में, माता-पिता की संगति और सहयोग का अधिकार (Parental Consortium) सभी बच्चों के लिए उपलब्ध है, भले ही वे मृतक पर निर्भर हों या नहीं।

    कोर्ट ने समझाया कि माता-पिता की सहायता, सुरक्षा, स्नेह, समाज, अनुशासन, मार्गदर्शन और प्रशिक्षण के नुकसान के लिए माता-पिता की अकाल मृत्यु पर बच्चे को माता-पिता की संगति और सहयोग का अध‌िकार दिया जाता है।

    केस टाइटल: कांति देवी और अन्य बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड अन्‍य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एनडीपीएस एक्ट| साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत ‌दिए गए सह-अभियुक्त के बयान के आधार पर आरोप तय करना स्वीकार्य नहीं: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एनडीपीएस एक्ट के प्रावधानों के तहत आरोपी के खिलाफ धारा 27 साक्ष्य अधिनियम के तहत दर्ज सह-अभियुक्त की गवाही के आधार पर, आरोप तय किए गए थे। आक्षेपित आदेश को रद्द करते हुए जस्टिस नंदिता दुबे ने कहा कि आरोप तय करते समय, निचली अदालत को उन दस्तावेजों पर भरोसा करना चाहिए, जो साक्ष्य के कानून के तहत स्वीकार्य हैं।

    केस टाइटल: कामता प्रसाद बनाम मध्य प्रदेश राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एमएसीपी स्‍कीम| ट्रिब्यूनल ने क्लॉज को रद्द कर दिया हो और हाईकोर्ट फैसले की पुष्टि कर चुका हो तो उस क्लॉज के आधार पर दावेदार को लाभ से वंचित नहीं किया जा सकताः दिल्‍ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि किसी योजना के एक क्लॉज को जब एक बार ट्रिब्यूनल ने रद्द कर दिया हो और हाईकोर्ट ने उस निर्णय को बरकरार रखा हो तो वह क्लॉज योजना में मौजूद नहीं रहता, विशेषकर, जब सरकार ने निर्णय को स्वीकार कर चुकी हो और उसे लागू करने का फैसला कर चुकी हो।

    जस्टिस संजीव सचदेवा और जस्टिस तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) की ओर से पारित एक आदेश के खिलाफ केंद्र की याचिका को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। कैट ने संशोधित सुनिश्चित कैरियर प्रगति योजना (एमएसीपी), 2009 के संदर्भ में वित्तीय उन्नयन के लिए कुछ व्यक्तियों के दावे पर विचार करने का निर्देश दिया था।

    केस टाइटल: यूनियन ऑफ इं‌डिया और अन्य बनाम गिरबार सिंह और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एनडीपीएस एक्ट| साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत ‌दिए गए सह-अभियुक्त के बयान के आधार पर आरोप तय करना स्वीकार्य नहीं: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एनडीपीएस एक्ट के प्रावधानों के तहत आरोपी के खिलाफ धारा 27 साक्ष्य अधिनियम के तहत दर्ज सह-अभियुक्त की गवाही के आधार पर, आरोप तय किए गए थे। आक्षेपित आदेश को रद्द करते हुए जस्टिस नंदिता दुबे ने कहा कि आरोप तय करते समय, निचली अदालत को उन दस्तावेजों पर भरोसा करना चाहिए, जो साक्ष्य के कानून के तहत स्वीकार्य हैं।

    केस टाइटल: कामता प्रसाद बनाम मध्य प्रदेश राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    केवल नोटिस जारी करने से 'स्टेयर डिसिसिस' का सिद्धांत आकर्षित नहीं होता: एमपी हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने दोहराया कि केवल याचिका पर नोटिस जारी करने से अदालतों पर 'बाध्यकारी मिसाल' नहीं बनती है, क्योंकि यह भविष्य में पालन किए जाने वाले कानून के किसी भी प्रस्ताव को निर्धारित नहीं करता।

    जस्टिस विवेक अग्रवाल ने समझाया कि 'उदाहरण' निर्णय को संदर्भित करता है, जिसे समान या समान तथ्यों या इसी तरह के मुद्दों से जुड़े बाद के मामलों को तय करने के लिए "अधिकार" के रूप में माना जाता है।

    केस टाइटल: मेसर्स केशव कंशकर ए क्लास इलेक्ट्रिकल कॉन्ट्रैक्टर बनाम प्रमुख सचिव ऊर्जा मंत्रालय वल्लभ भवन भोपाल और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    सीआरपीसी की धारा 378 (3) के तहत बरी करने के आदेश के खिलाफ अपील के लिए राज्य के आवेदन पर निर्णय लेने से पहले हाईकोर्ट के लिए सभी मामलों में निचली अदालत के रिकॉर्ड को समन करना अनिवार्य नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 378 (3) के तहत बरी करने के आदेश के खिलाफ अपील करने के लिए राज्य सरकार के आवेदन पर निर्णय लेने से पहले हाईकोर्ट के लिए सभी मामलों में निचली अदालत के रिकॉर्ड को समन करना अनिवार्य नहीं है।

    संदर्भ के लिए,सीआरपीसी की धारा 378 के तहत राज्य द्वारा बरी किए जाने की स्थिति में अपील दायर करने का प्रावधान है। सीआरपीसी की धारा 378 की उप-धारा 3 में ऐसी अपील पर विचार लीव दिया जाता है।

    केस टाइटल - स्टेट ऑफ यू.पी. बनाम वकील पुत्र बाबू खान [सरकार अपील संख्या – 591 ऑफ 2022]

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    हाईकोर्ट के पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार के प्रयोग में बरी करने के फैसले को दोषसिद्धि में नहीं बदला जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने कहा कि अधीनस्थ न्यायालय के बरी करने के फैसले को सीआरपीसी की धारा 401 (3) के तहत पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार के प्रयोग में हाईकोर्ट द्वारा दोषसिद्धि में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।

    जस्टिस सौरभ लावानिया की पीठ ने आगे जोर देकर कहा कि एक पुनरीक्षण अदालत के पास मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए तथ्यों के निष्कर्षों को अलग रखने और अपने स्वयं के निष्कर्षों को लागू करने और प्रतिस्थापित करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।

    केस टाइटल - अंबिका सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एंड अन्य [Criminal Revision Defective No.8 ऑफ 2010]

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत अभियोजन पक्ष को सबूतों का दायित्व आरोपी पर डालने के लिए 'विशेष जानकारी' के संकेत देने वाले तथ्यों को स्थापित करना चाहिए: कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 उन मामलों पर लागू होगी, जहां अभियोजन पक्ष उन तथ्यों को स्थापित करने में सफल रहा है जिनसे कुछ अन्य तथ्यों के अस्तित्व के संबंध में एक उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है, जो आरोपी की विशेष जानकारी में है।

    कलबुर्गी स्थित जस्टिस डॉ एचबी प्रभाकर शास्त्री और अनिल बी कट्टी की खंडपीठ ने कहा, "यदि अभियोजन पक्ष यह दिखाने में सक्षम हो सकता है कि मामले के तथ्य और परिस्थितियाँ स्पष्ट रूप से यह प्रदर्शित करती हैं कि एक विशेष तथ्य खासतौर पर अभियुक्त की जानकारी में है, तभी उस तथ्य को साबित करने का भार आरोपी पर होगा।"

    केस टाइटल: सिद्दप्पा बनाम कर्नाटक सरकार

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    कर्नाटक पंचायत राज अधिनियम | चुनाव याचिका पक्षकार की उपस्थिति में एडवोकेट द्वारा पेश की जा सकती है: हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि कर्नाटक पंचायत राज अधिनियम, 1993 की धारा 15 (1) के तहत पक्षकार की तत्काल उपस्थिति में उसके वकील द्वारा अदालत के समक्ष चुनाव याचिका प्रस्तुत की जा सकती है।

    जस्टिस एचटी नरेंद्र प्रसाद की सिंगल जज बेंच ने कहा, "यह स्पष्ट है कि अधिनियम, 1993 की धारा 15 (1) के तहत याचिकाकर्ता द्वारा नामित न्यायालय में चुनाव याचिका प्रस्तुत की जानी है। यहां तक कि याचिकाकर्ता के वकील ने भी याचिकाकर्ता की तत्काल उपस्थिति में नामित न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की। याचिकाकर्ता, जो कानून की आवश्यकता को पूरा करता है।"

    केस टाइटल: देवेंद्रप्पा बनाम हुलिजेम्मा

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    डिफॉल्टर द्वारा बताए गए कारणों से संतुष्ट हो तो रिट कोर्ट 'वन टाइम सेटलमेंट' योजना की समयसीमा बढ़ा सकता है: तेलंगाना हाईकोर्ट

    तेलंगाना हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक रिट कोर्ट बैंक द्वारा व्यवस्थित 'वन टाइम सेटलमेंट' योजना के तहत भुगतान के लिए उल्लिखित अवधि को बढ़ा सकती है, यदि वह डिफॉल्टर द्वारा उल्लिखित परिस्थितियों से संतुष्ट है।

    जस्टिस के लक्ष्मण ने कहा, "मौजूदा मामले में, याचिकाकर्ता द्वारा विशेष रूप से यह तर्क दिया गया है कि वह रियल एस्टेट बिजनेस कर रहा है, COVID-19 महामारी के कारण उसे नुकसान हुआ है। हालांकि ऋण चुकाने के लिए उसने संपत्ति बेच दी और परचेज़र से धन प्राप्त किया और उसे खाते में जमा किया और ब्याज सहित पूरी ऋण राशि का भुगतान अपने 28.07.2021 के पत्र के माध्यम से किया। केवल एक दिन की देरी हुई है। इसलिए, इस न्यायालय के अनुसार याचिकाकर्ता को ऋण राशि चुकाने के लिए यह समय बढ़ाने के लिए एक उपयुक्त मामला है।"

    केस टाइटल: मोहम्मद अफरोज बेग बनाम भारतीय स्टेट बैंक, मुंबई, और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    धारा 12 डीवी एक्ट| पति/ रिश्तेदारों की ओर से दायर प्रतिक्रियाओं के आधार पर मजिस्ट्रेट समन रद्द कर सकते हैं: जेएंडके एंड एल हाईकोर्ट

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत पारित अपने ही अंतरिम आदेश को रद्द करने के मामले में एक मजिस्ट्रेट अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर होगा, अगर पति और उसके रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया को देखने पर, वह पाता है कि उन्हें अनावश्यक रूप से फंसाया गया है या अंतरिम आदेश देने का कोई मामला नहीं बनता है।

    जस्टिस संजय धर की पीठ एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसके तहत याचिकाकर्ता ने घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 12 के तहत प्रतिवादी द्वारा दायर आवेदन को चुनौती दी थी, जिसे मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी, राजौरी के समक्ष लंबित बताया गया था।

    केस टाइटल: मोहम्मद हुसैन बनाम शबनम आरा

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मृतक का पूर्व का बयान यदि मृत्यु के कारण से संबंधित हो तो यह साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 (1) के तहत स्वीकार्य होगा, मौत का अनुमान होना जरूरी नहींः इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना है कि पीड़ित की मृत्यु होने की स्थिति में, उसके द्वारा किसी भी जीवित व्यक्ति को दिया गया बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 (1) के तहत साक्ष्य में प्रासंगिक और स्वीकार्य हो जाता है यदि वह उसकी मृत्यु के कारण से संबंधित है।

    जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और जस्टिस उमेश चंद्र शर्मा की पीठ ने आगे स्पष्ट किया कि भारतीय कानून के तहत, यह आवश्यक नहीं है कि जिस व्यक्ति ने कोई घोषणा की है या बयान दिया है,वह वास्तव में उस हमले की उम्मीद कर रहा था जो उसे मार डालेगा।

    केस टाइटल- पवन मिश्रा बनाम यू.पी. राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    कोर्ट एएंडसी एक्ट की धारा 34 के तहत ब्याज देकर मध्यस्थ अवॉर्ड को संशोधित नहीं कर सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि यद्यपि दावेदार अपने पक्ष में जारी काउंट-गारंटी की राशि पर पूर्व-मध्यस्थता ब्याज (pre-arbitration interest) का हकदार है। एएंडसी एक्ट, 1996 की धारा 34 के तहत न्यायिक पुनर्विचार के सीमित दायरे को देखते हुए कोर्ट ने कहा कि वह दावेदार को ब्याज नहीं दे सकता क्योंकि यह अवॉर्ड में संशोधन के समान होगा।

    चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की खंडपीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में मध्यस्थ अवार्डों को संशोधित करके संबंधित पक्षों को ब्याज दिया है, हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विवेकाधीन शक्तियां का प्रयोग करते हुए किया है।

    केस टाइटल: केनरा बैंक बनाम स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    [जेजे एक्ट] भारत के बाहर उच्च शिक्षा प्राप्त करने का कोई मौलिक या वैधानिक अधिकार नहीं, विदेश यात्रा के किशोरों के अधिकार में कटौती की जा सकती है: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने माना कि विचाराधीन या किशोर जो कानून का उल्लंघन करता है, उसे विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का कोई मौलिक या वैधानिक अधिकार नहीं है।

    जस्टिस जसगुरप्रीत सिंह पुरी ने अपने फैसले में यह भी कहा कि हालांकि विदेश यात्रा का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का अभिन्न अंग होने के अलावा "मूल्यवान और बुनियादी अधिकार" है, लेकिन इसे किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, विशेष रूप से अधिनियम की धारा 90 और 91 के तहत "उचित, न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से" कम किया जा सकता।

    केस टाइटल: Rxxxxx Dxxxxx बनाम हरियाणा राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    अगर ट्रायल कोर्ट का फैसला सूट संपत्ति के स्वामित्व पर स्पष्ट नहीं है तो अस्थायी निषेधाज्ञा अपीलीय न्यायालय द्वारा जारी रखी जा सकती है: कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि यदि निचली अदालत ने मुकदमे की संपत्ति के कब्जे के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष नहीं दिया है तो अपीलीय अदालत के लिए यह बेहतर है कि वह अस्थायी निषेधाज्ञा का आदेश दे, यदि वह ट्रायल कोर्ट के सामने मुकदमे के निपटान तक लागू है।

    जस्टिस श्रीनिवास हरीश कुमार की सिंगल जज बेंच ने कहा, "कोई कठोर और तेज़ नियम नहीं है कि अपीलीय अदालत को अस्थायी निषेधाज्ञा के लिए आवेदन पर फैसला करते समय गवाहों के साक्ष्य और निचली अदालत द्वारा दिए गए निष्कर्षों का उल्लेख नहीं करना चाहिए। अगर अपीलीय अदालत को लगता है कि सबूतों को देखा जाना चाहिए , यह संपत्ति की प्रकृति या स्थिति के बारे में एक राय बनाने के सीमित उद्देश्य के लिए होना चाहिए।"

    केस टाइटल: शदाक्षरी सी.एल. और अन्य बनाम संतोषा सीए और अन्य।

    आगे पढ़ने के यहां क्लिक करें

    धारा 39 बीमा अधिनियम | बीमा पॉलिसी में नॉमिनेशन नॉमिनेटेड व्यक्ति को कोई लाभकारी हित प्रदान नहीं करता है; उत्तराधिकार कानून के अनुसार कानूनी उत्तराधिकारी दावा करने के हकदार: एमपी हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि केवल नामांकन बीमा पॉलिसी के तहत नॉमिनेटड व्यक्ति को कोई लाभकारी हित प्रदान नहीं करता। एक नॉमिनेटेड व्यक्ति केवल बीमा राशि पाने के लिए अधिकृत है, जो कि उत्तराधिकार कानूनों के अनुसार संवितरण के अधीन है।

    यह देखते हुए कि भारत के लगभग सभी हाईकोर्ट समान विचार रखते हैं, जस्टिस अंजुली पालो ने कहा कि जब तक यह मानने के लिए मजबूत और बाध्यकारी कारण न हो कि ये सभी निर्णय पूरी तरह से गलत हैं, न्यायालय को एक अलग दृष्टिकोण लेने में तेजी नहीं दिखानी चाहिए।

    केस टाइटल: अरुण कुमार सिंह बनाम श्रीमती जया सिंह व अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    आरोपी और पीड़ित के बीच समझौता/विवाह के आधार पर पोक्सो अधिनियम के अपराध को रद्द नहीं कर सकते: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि पोक्सो अधिनियम के तहत एक अपराध को अभियुक्त और अभियोक्ता के बीच किसी भी समझौते या विवाह के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है। जस्टिस सुवीर सहगल की पीठ ने इस बात पर भी जोर दिया कि आरोपी की बाद में पीड़िता के साथ शादी करने से पोक्सो अधिनियम या धारा 376, आईपीसी के तहत अपराध कम नहीं होगा।

    हाईकोर्ट ने कहा, "अभियोक्ता के साथ बाद में शादी करने से पोक्सो अधिनियम या धारा 376, आईपीसी के तहत अपराध कम नहीं होगा। बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन शोषण, पोर्नोग्राफी के अपराधों से बचाने के उद्देश्य से पोक्सो अधिनियम को शामिल किया गया है। यदि एक आरोपी को नाबालिग के साथ यौन शोषण करने के आरोप से मुक्त कर दिया जाता है, तो यह एक अस्वस्थ प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करेगा और पॉक्सो अधिनियम के कानून के पीछे उद्देश्य और भावना को पराजित करेगा। नतीजतन, POCSO अधिनियम के तहत एक अपराध, जो एक विशेष प्रतिमा है, को अभियुक्त और अभियोक्ता के बीच किसी भी समझौते या विवाह के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है।

    केस टाइटल- नरदीप सिंह चीमा @ नवदीप सिंह चीमा बनाम पंजाब राज्य और अन्य [CRM-M-2270-2020]

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    धारा 163ए एमवी एक्ट | व्यक्तिगत दुर्घटना कवरेज न होने पर वाहन उधार लेने वाला बीमाकर्ता से मुआवजे का दावा नहीं कर सकता: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि ऐसे मृतक के उत्तराधिकारियों को मुआवजा नहीं दिया जा सकता, जिसने उधार लेकर 'मालिक' के रूप में वाहन चलाया, जिसकी जल्दबाजी और लापरवाही के कारण खुद उसकी मौत हो गई। जस्टिस सोफी थॉमस ने मृतक के उत्तराधिकारियों को मुआवजा देने के मोटर दुर्घटना न्यायाधिकरण के आदेश को खारिज करते हुए कहा, "चूंकि उसने स्वयं अपकृत्य किया था, उसके कानूनी उत्तराधिकारी दावा नहीं कर सकते हैं"।

    केस टाइटल: द न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम राजेश्वरी और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    पीड़ित की जाति का ज्ञान एससी/एसटी अधिनियम को आकर्षित नहीं करता, जब तक कि जाति की पहचान के आधार पर अपराध नहीं किया जाता: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने दोहराया

    छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने दोहराया कि केवल इसलिए कि आरोपी को पीड़ित की जाति पहचान पता है, उसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दोषी ठहराने का आधार नहीं बनाया जा सकता। इसमें कहा गया कि पीड़ित पक्ष को यह दिखाने के लिए अलग-अलग सबूत देने होंगे कि हिंसा का कार्य पीड़ित के खिलाफ जाति आधारित पूर्वाग्रह के कारण हुआ।

    केस टाइटल: जगसेन बनाम राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    कसेंट डिक्री का उपयोग सेल डीड के पंजीकरण और स्टाम्प शुल्क के भुगतान से बचने के लिए नहीं किया जाना चाहिए: जेएंडके एंड एल हाईकोर्ट

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में दीवानी अदालतों को आगाह किया कि उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय यह सुनिश्चित करने के लिए अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए कि बिक्री विलेखों के पंजीकरण या स्टांप शुल्क का भुगतान करने से बचने के लिए कंसेंट डिक्री की मांग न की जाए।

    ज‌स्टिस संजीव कुमार ने कहा, "मिलीभगत से ली गई डिक्री को बिक्री विलेख के लिए एक लबादे के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। ऐसे कई मौके हो सकते हैं जहां पक्ष एक-दूसरे की मिलीभगत से कानून के उल्लंघन में और गैरकानूनी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए दीवानी न्यायालयों का दरवाजा खटखटा सकते हैं।"

    केस टाइटल: मुश्ताक अहमद पंडित बनाम अपर उपायुक्त और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एससी/एसटी एक्ट| धारा 3(1)(यू) के तहत अपराध तभी आकर्षित होगा जब यह सदस्यों के खिलाफ 'समूह के रूप में' किया जाए: मद्रास हाईकोर्ट

    मद्रास हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा एक प्रोफेसर की शिकायत पर जांच का आदेश न देने के फैसले के खिलाफ दर्ज याचिका को खारिज करते हुए हाल ही में कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 (1) (यू) तभी लागू होती है, जब कोई व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय के सदस्यों के खिलाफ एक समूह के रूप में दुष्प्रचार करने का प्रयास कर रहा हो।

    अधिनियम धारा 3 (1) (यू) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के खिलाफ शत्रुता, घृणा या द्वेष की भावनाओं को बढ़ावा देने के प्रयास करने वाले किसी भी संदेश का अपराधीकरण करती है।

    केस टाइटल: डॉ. आर राधाकृष्णन बनाम सहायक पुलिस आयुक्त और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    राज्य वैधानिक कर्तव्यों को लागू नहीं कर सकता, जिनके पास लागू करने योग्य कानूनी अधिकार नहीं है: गुवाहाटी हाईकोर्ट

    गुवाहाटी हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह राज्य के कानूनी वैधानिक कर्तव्यों को लागू करने के लिए रिट अधिकार क्षेत्र के तहत शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता है, जिनके पास नागरिकों के लिए कोई समान लागू करने योग्य कानूनी अधिकार नहीं है।

    जस्टिस माइकल ज़ोथनखुमा ने टिप्पणी की कि यदि अनुच्छेद 226 के तहत रिट क्षेत्राधिकार का दायरा इस हद तक विस्तारित किया जाता है तो न्यायालयों में मामलों की बाढ़ आ जाएगी।

    केस टाइटल: गौरव उपाध्याय बनाम असम राज्य और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी एक्ट कर्मचारियों के लिए लाभकारी कानून, यह अन्य कानूनों को ओवरराइड करता है: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

    आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में दोहराया कि पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी एक्ट, 1972 की व्याख्या कर्मचारियों के पक्ष में की जानी चाहिए और यह अन्य सभी वैधानिक कानूनों को ओवरराइड करता है।

    कोर्ट ने बीड डिस्ट्रिक्ट सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र राज्य (2006) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था "ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम एक लाभकारी कानून है। जब कानून के उद्देश्य के संबंध में दो विचार संभव हो तो कानून एक सामाजिक कल्याण कानून होने का प्रयास करता है, इसकी व्याख्या कर्मचारी के पक्ष में की जा सकता है।"

    केस टाइटल: द डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव सेंट्रल बैंक लिमिटेड बनाम पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी एक्ट 1972 के तहत नियंत्रण प्राधिकरण

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    पॉक्सो अपराधों के लिए आधा आजीवन कारावास 10 साल: बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने पॉक्सो एक्ट (POCSO Act) के तहत दोषी को उम्र कैद की आधी सजा सुनाई, जिसे 10 साल की सजा भुगतनी होगी। अदालत से कोल्हापुर जेल अधीक्षक ने यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) मामले में दोषी को "आधा आजीवन कारावास" की सजा सुनाने वाले हाईकोर्ट के 2018 के आदेश की व्याख्या की मांग की थी।

    जस्टिस सारंग कोतवाल ने कहा कि चूंकि पॉक्सो एक्ट के तहत आजीवन कारावास को परिभाषित नहीं किया गया, इसलिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 57 के तहत आजीवन कारावास की परिभाषा लागू होगी।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    सरकारी कर्मचारी के सेवानिवृत्ति के बाद गंभीर कदाचार का दोषी पाए जाने पर सीएसआर के अनुच्छेद 351 के तहत केवल राज्यपाल ही कार्रवाई कर सकते हैं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि सेवानिवृत्ति के बाद, यदि किसी सरकारी कर्मचारी को गंभीर कदाचार का दोषी पाया जाता है या यह पाया जाता है कि उसने सरकार को आर्थिक नुकसान पहुंचाया है तो राज्यपाल सिविल सेवा विनियमों के अनुच्छेद 351-ए में दिए प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई कर सकते हैं।

    जस्टिस देवेंद्र कुमार उपाध्याय और जस्टिस श्री प्रकाश सिंह की खंडपीठ ने कहा कि सेवानिवृत्ति के बाद बर्खास्तगी की सजा नहीं दी जा सकती है, हालांकि पेंशन रोकना या वापस लेना और पेंशन की र‌िकवरी का आदेश देना अनुमेय है, वह भी सीएसआर के अनुच्छेद 351-ए के अनुसार राज्यपाल के आदेश से।

    केस टाइटल- गया प्रसाद यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story