मृतक का पूर्व का बयान यदि मृत्यु के कारण से संबंधित हो तो यह साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 (1) के तहत स्वीकार्य होगा, मौत का अनुमान होना जरूरी नहींः इलाहाबाद हाईकोर्ट

Manisha Khatri

28 Sep 2022 3:15 PM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना है कि पीड़ित की मृत्यु होने की स्थिति में, उसके द्वारा किसी भी जीवित व्यक्ति को दिया गया बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 (1) के तहत साक्ष्य में प्रासंगिक और स्वीकार्य हो जाता है यदि वह उसकी मृत्यु के कारण से संबंधित है।

    जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और जस्टिस उमेश चंद्र शर्मा की पीठ ने आगे स्पष्ट किया कि भारतीय कानून के तहत, यह आवश्यक नहीं है कि जिस व्यक्ति ने कोई घोषणा की है या बयान दिया है,वह वास्तव में उस हमले की उम्मीद कर रहा था जो उसे मार डालेगा।

    पीठ ने 2 लड़कों का अपहरण करके उनकी हत्या करने वाले 3 आरोपियों को दी गई आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा है, जिन्हें उनके द्वारा नौकरी दिलाने के बहाने आगरा बुलाया गया था।

    मामले के तथ्यों और पेश किए गए सबूतों के अवलोकन के बाद न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष द्वारा यह स्थापित किया गया है कि अभियुक्त की फिरौती प्राप्त करने के लिए मृतक व्यक्तियों का अपहरण करने की आपराधिक मनःस्थिति थी और इस उद्देश्य के लिए पहले सभी ने एक योजना तैयार की और योजना को आगे बढ़ाने के लिए आरोपी पवन मिश्रा ने लड़कों को रोजगार के लिए बुलाया और जब वे आगरा आए तो उन्हें मार दिया गया और उसके बाद उन्हें दफना दिया गया।

    संक्षेप में मामला

    आरोपी पवन मिश्रा ने प्रथम शिकायतकर्ता (उसके चाचा) को अपने भतीजे/मृतक (अमर उर्फ जीवन शर्मा) को आगरा भेजने के लिए कहा, जहां उसे नौकरी दिलाने की बात कही गई थी। मृतक अपने दोस्त (विक्टर) के साथ 12 जून 2005 को आगरा गया था। 2-3 दिन बाद अमर ने शिकायतकर्ता को फोन पर बताया कि नौकरी/सेवा की कोई व्यवस्था नहीं है। यह जानने पर पहले शिकायतकर्ता ने उसे वापस घर आने के लिए कहा था।

    15 जून 2005 को पवन मिश्रा (आरोपी) ने शिकायतकर्ता को सूचित किया कि लड़कों को ट्रेन से वापस भेज दिया गया है, हालांकि, जब 16 जून 2005 को लड़के नहीं पहुंचे, तो शिकायतकर्ता ने मिश्रा (आरोपी) से उसके मोबाइल फोन पर संपर्क किया और तभी उसने बताया कि उसने लड़कों का अपहरण कर लिया है और फिरौती का भुगतान करने के बाद ही उन्हें वापस भेजा जाएगा।

    एफआईआर दर्ज होने के बाद आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया और उसने कबूल किया कि चूंकि उसे अपने पैतृक घर को फिर से खरीदने के लिए पैसे की जरूरत थी, जिसे उसके चाचा ने पहले बेच दिया था, इसलिए उसने अमर और उसके दोस्त विक्टर का अपहरण करके शिकायतकर्ता से फिरौती मांगने की योजना बनाई थी।

    उसके बयान पर दो अन्य आरोपी दिनेश साहू और कृपाल साहू को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उसके बाद तीनों आरोपी पुलिस को घटना स्थल पर ले गए, जहां फावड़ियों के साथ मृतक व्यक्तियों के शव बरामद किए गए, जो दो शवों को खोदने और दफनाने में उपयोग किए गए थे। यह शव जीवन और विक्टर के थे।

    मुकदमे के बाद आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 364 ए और 201 के तहत अपराध करने का दोषी पाए जाने के बाद आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। फैसले को चुनौती देते हुए तीनों आरोपियों ने हाईकोर्ट का रुख किया था।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    शुरुआत में ही अदालत ने बचाव पक्ष के वकील के इस तर्क को खारिज कर दिया कि शवों की पहचान नहीं की गई थी। बचाव पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि चूंकि शव ऐसी स्थिति में थे कि कोई भी व्यक्ति उन्हें पहचान नहीं सकता था और यह उचित संदेह से परे साबित नहीं हुआ कि ये दो शव अमर उर्फ जीवन शर्मा और विक्टर उर्फ पोटन के थे।

    कोर्ट ने पाया कि शवों को आरोपी व्यक्तियों के इशारा पर बरामद किया गया था, खासकर आरोपी पवन मिश्रा के इशारे पर, जिसने मृतक को रोजगार देने के लिए आगरा बुलाया था।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि जिरह के दौरान शवों की पहचान के संबंध में कोई सवाल नहीं उठाया गया था, इसलिए अपील में इस तर्क को नहीं उठाया जा सकता है।

    इसके अलावा अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता और मृतक (जीवन उर्फ अमर शर्मा) के बीच हुई बातचीत भी उनके आगरा में रोजगार के लिए पहुंचने के संबंध में थी और इस तथ्य के संबंध में भी वह आरोपी पवन मिश्रा के साथ हैं। दोनों मृतक लड़के आरोपी द्वारा व्यवस्थित होटल में रुके थे और आरोपी ने फिरौती की मांग की, यह सब कुछ उसी कृत्य का हिस्सा है और इस प्रकार, यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 के तहत साक्ष्य में प्रासंगिक और स्वीकार्य होगा।

    कोर्ट ने आगे कहा कि मृतक जीवन उर्फ अमर की शिकायतकर्ता से देवघर से आते हुए की गई बातचीत और आगरा से वापस आते हुए शिकायतकर्ता से हुई बातचीत भी प्रासंगिक है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के तहत साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है।

    इस संबंध में न्यायालय का विचार था कि मृतक व्यक्तियों द्वारा उनकी मृत्यु से पहले शिकायतकर्ता को दी गई जानकारी आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 (1) के तहत साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है क्योंकि इसे उनका मृत्यु से पहले दिया गया बयान ही कहा जाएगा और यह महत्वहीन है कि जब वे शिकायतकर्ता को इस तरह की जानकारी/बयान दे रहे थे तो वे मृत्यु की उम्मीद नहीं कर रहे थे।

    कोर्ट ने आगे कहा कि चूंकि यह स्थापित हो गया है कि मृत व्यक्ति तीनों आरोपी व्यक्तियों की संगति में थे इसलिए उन सभी पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत सबूत के अपने बोझ का निर्वहन करने का भार था, हालांकि वे मृत व्यक्तियों की मृत्यु का कोई स्पष्टीकरण देने में विफल रहे हैं।

    मामले की सभी प्रासंगिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश में कोई अवैधता नहीं पाई और कहा कि,

    ''इस मामले का सिलसिला 11.6.2005 को शुरू हुआ जब मृतकों ने अपनी यात्रा शुरू की और 12.6.2005 को आगरा पहुंचे। इसके बाद वे आरोपी व्यक्तियों की संगत में थे। सभी तथ्यों और सबूतों की श्रृंखला पूरी तरह से जुड़ी हुई है और इसे अभियोजन द्वारा स्थापित किया गया है। परिस्थितिजन्य साक्ष्य की श्रृंखला बरकरार है और इसे बिना टूटे स्थापित किया गया है। इसलिए, इस न्यायालय की राय है कि मंशा, मेन्स-रिया, फिरौती की मांग और अंतिम रूप से फिरौती मांगने वाले व्यक्ति की निशानदेही पर शवों की बरामदगी को साबित करके, अभियोजन पक्ष ने आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ सभी उचित संदेह से परे मामले को सफलतापूर्वक साबित कर दिया है। यह स्थापित किया गया है कि अभियुक्त व्यक्तियों को छोड़कर किसी और ने यह हत्या नहीं की होगी और दोनों मृत व्यक्तियों को घटना के स्थान पर जमीन के नीचे दफना दिया गया। इसलिए, हमें निचली अदालत द्वारा निकाले गए निष्कर्ष के संबंध में साक्ष्य की सराहना में कोई कमी नहीं मिली है।''

    केस टाइटल- पवन मिश्रा बनाम यू.पी. राज्य

    साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (एबी) 450

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