हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

Shahadat

9 Feb 2025 4:30 AM

  • High Courts
    High Courts

    देश के विभिन्न हाईकोर्ट में पिछले सप्ताह (03 फरवरी, 2025 से 07 फरवरी, 2024) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं हाईकोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र।

    आरोप मुक्त होने की संभावना के बावजूद निवारक हिरासत का आदेश दिया जा सकता है: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

    जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने कश्मीर के संभागीय आयुक्त द्वारा पारित हिरासत आदेश को रद्द करने से इनकार करते हुए कहा कि निवारक हिरासत (नियमित अदालतों में) अभियोजन के साथ ओवरलैप नहीं करती है, भले ही यह कुछ तथ्यों पर निर्भर हो, जिनके लिए अभियोजन शुरू किया गया हो।

    अदालत ने स्पष्ट किया कि "अभियोजन से पहले या उसके दौरान, अभियोजन के साथ या उसके बिना और प्रत्याशा में या डिस्चार्ज या बरी होने के बाद निवारक निरोध का आदेश दिया जा सकता है। अभियोजन का लंबित होना निवारक निरोध के आदेश पर कोई रोक नहीं है और निवारक निरोध का आदेश भी अभियोजन के लिए बाधा नहीं है।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    समाधान योजना की मंजूरी के बाद कॉरपोरेट देनदार पीएमएलए के तहत अभियोजन से मुक्त: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की पीठ ने कहा कि दिवाला एवं दिवालियापन संहिता, 2016 (आईबीसी) की धारा 32ए(1) के अनुसार, एक कॉर्पोरेट देनदार जिसने आईबीसी की धारा 31 के तहत सफलतापूर्वक समाधान प्रक्रिया पूरी कर ली है, उस पर सीआईआरपी शुरू होने से पहले किए गए अपराधों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जाएगा।

    केस टाइटलः भूषण पावर एंड स्टील लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड अन्य | डब्ल्यूपी(सीआरएल) 1261/2024

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    S.482 CrPC | गवाहों के बयानों के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को केवल अन्याय से बचने के लिए दुर्लभ परिस्थितियों में ही रद्द किया जा सकता: कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने शुक्रवार को पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा के खिलाफ POCSO Act के प्रावधानों के तहत शुरू की गई कार्यवाही रद्द करने से इनकार करते हुए कहा कि धारा 161 या CrPC की धारा 164 के तहत बयानों पर आधारित कार्यवाही रद्द करना केवल दुर्लभ और असाधारण परिस्थितियों में ही होता है।

    जस्टिस एम नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने मजिस्ट्रेट द्वारा लिए गए संज्ञान आदेश को निरस्त कर दिया और मामले को नए सिरे से विचार के लिए वापस भेजते हुए कहा, “CrPC की धारा 161 या CrPC की धारा 164 के तहत बयानों पर आधारित कार्यवाही रद्द करने पर विचार केवल दुर्लभ और असाधारण परिस्थितियों में ही होता है, जब ऐसे बयान स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि आगे की कार्यवाही कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग बन जाएगी या इसके परिणामस्वरूप स्पष्ट रूप से अन्याय होगा। यह कोई कानून नहीं है कि CrPC की धारा 482 के तहत कार्यवाही रद्द करते समय उन बयानों पर गौर नहीं किया जाना चाहिए। निहित शक्तियां ऐसा करने के लिए पर्याप्त व्यापक हैं, लेकिन न्याय की विफलता को रोकने के लिए उन्हें मामले दर मामले आधार पर प्रयोग किया जा सकता है।"

    केस टाइटल: बीएस येदियुरप्पा बनाम आपराधिक जांच विभाग सीआईडी

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    धारा 175(3) BNSS | मजिस्ट्रेट के लिए जांच का आदेश पारित करने से पहले FIR दर्ज करने से इनकार करने वाले पुलिस अधिकारी की बात सुनना अनिवार्य: उड़ीसा हाईकोर्ट

    उड़ीसा हाईकोर्ट ने माना कि जांच के लिए आदेश पारित करने से पहले मजिस्ट्रेट के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुलिस अधिकारी क ओर से एफआईआर दर्ज करने से इनकार करने पर उसकी दलीलों को सुने, साथ ही शिकायतकर्ता द्वारा पुलिस अधीक्षक को दिए गए हलफनामे के साथ दिए गए आवेदन पर विचार करे और उचित जांच करे।

    नए आपराधिक कानून व्यवस्था के तहत कानून की स्थिति को स्पष्ट करते हुए जस्टिस गौरीशंकर सतपथी की एकल पीठ ने कहा - “…मजिस्ट्रेट के लिए संबंधित पुलिस अधिकारी की दलीलों पर विचार करना अनिवार्य है, ताकि शिकायत और पुलिस अधिकारी की दलीलों पर विचार करते समय न्यायिक रूप से अपने विवेक का इस्तेमाल किया जा सके, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कारण आदेश पारित करने की आवश्यकता का अधिक प्रभावी और व्यापक तरीके से अनुपालन किया जा सके।”

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से जुड़े MUDA मामले की जांच CBI को सौंपने से इनकार किया

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने शुक्रवार (7 फरवरी) को कथित मैसूर शहरी विकास प्राधिकरण (MUDA) "घोटाले" की लोकायुक्त पुलिस द्वारा की जा रही जांच को केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंपने से इनकार कर दिया, जिसमें मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के शामिल होने की बात कही गई है।

    जस्टिस एम नागप्रसन्ना ने आदेश सुनाते हुए कहा, "रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से यह संकेत नहीं मिलता है कि लोकायुक्त द्वारा की गई जांच पक्षपातपूर्ण या घटिया है, जिसके कारण यह अदालत मामले को आगे की जांच या फिर से जांच के लिए सीबीआई को भेज सकती है। याचिका खारिज की जाती है।"

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा- हाईकोर्ट सीडब्ल्यूसी से 'श्रेष्ठ संरक्षक'; राज्य सरकार को उन बच्चों को पेश करने का निर्देश दिया, जिन्हें कथित तौर पर माता-पिता से रेस्क्यू किए गए बच्चे बताया गया

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने गुरुवार को 10 अभिभावकों की ओर से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई की, जिन्होंने बाल कल्याण समिति की अभिरक्षा में मौजूदा अपने नाबालिग बच्चों को पेश करने की मांग की थी। हाईकोर्ट ने सुनवाई के दरमियान कहा कि हाईकोर्ट बाल कल्याण समिति से ' बेहतर संरक्षक' है और वह यह तय करेगा कि बच्चों को बचाकर बाल देखभाल संस्थान में रखने की जरूरत है या नहीं।

    केस टाइटलः कालू भील बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य, WP नंबर 4304/2025

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29A के तहत चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के आंतरिक चुनावों की निगरानी नहीं कर सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29A के तहत राजनीतिक दलों के चुनाव के आंतरिक मामलों के संबंध में भारत निर्वाचन आयोग के पास पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र नहीं है। धारा 29A संघों और निकायों के चुनाव आयोग में राजनीतिक दलों के रूप में पंजीकरण से संबंधित है। प्रावधान में कहा गया है कि कोई भी संघ या व्यक्तियों का निकाय जो खुद को राजनीतिक दल कहता है, उसे राजनीतिक दल के रूप में पंजीकरण के लिए आयोग में आवेदन करना होगा।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    गुमशुदा व्यक्तियों के मामलों को बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिकार क्षेत्र के तहत आगे नहीं बढ़ाया जा सकता: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने दोहराया

    बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने दोहराया है कि गुमशुदा व्यक्तियों के मामलों को बंदी प्रत्यक्षीकरण के प्रावधान के तहत नहीं लाया जा सकता। ऐसे मामलों को दंड कानून के नियमित प्रावधानों के तहत दायर किया जाना चाहिए।

    जस्टिस संजीव सचदेवा और जस्टिस विनय सराफ की खंडपीठ ने कहा, "गुमशुदा व्यक्तियों के मामलों को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के प्रावधान के तहत नहीं लाया जा सकता। गुमशुदा व्यक्तियों के मामलों को भारतीय दंड संहिता के नियमित प्रावधानों के तहत दर्ज किया जाना चाहिए और संबंधित पुलिस अधिकारी दंड प्रक्रिया संहिता के तहत निर्धारित तरीके से इसकी जांच करने के लिए बाध्य हैं। ऐसे मामलों को सक्षम न्यायालय द्वारा नियमित मामलों के रूप में निपटाया जाना चाहिए और गुमशुदा व्यक्तियों के ऐसे मामलों से निपटने के उद्देश्य से संवैधानिक न्यायालयों के असाधारण अधिकार क्षेत्र का आह्वान नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, देश भर के संवैधानिक न्यायालयों ने अनेक निर्णयों में यह माना है कि "अवैध हिरासत" का आधार स्थापित करना तथा ऐसी किसी "अवैध हिरासत" के बारे में प्रबल संदेह होना बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने के लिए एक पूर्व शर्त है तथा संवैधानिक न्यायालय ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर विचार नहीं करेंगे, जिसमें "अवैध हिरासत" का कोई आरोप न हो अथवा ऐसी किसी "अवैध हिरासत" के बारे में कोई संदेह न हो।"

    केस टाइटल: सिम्मी बाई बनाम पुलिस महानिरीक्षक महोदया और अन्य, रिट याचिका संख्या 16475/2023

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    FIR का आदेश देने से पहले मजिस्ट्रेट जांच BNSS की धारा 175(3) के तहत अतिरिक्त सुरक्षा उपाय, जो अनावश्यक पुलिस प्रयोग को रोकता: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा ने पाया कि BNSS की धारा 175(3) में अतिरिक्त सुरक्षा उपाय पेश किए गए, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि FIR दर्ज करने का निर्देश देने से पहले मजिस्ट्रेट को ऐसी जांच करनी होगी, जो आवश्यक समझी जाए और पुलिस अधिकारी द्वारा प्रस्तुत किए गए कथनों पर विचार करना होगा।

    जस्टिस हरप्रीत सिंह बराड़ ने कहा, "BNSS की धारा 175 (3) ने अतिरिक्त सुरक्षा उपाय पेश किए, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि FIR दर्ज करने का निर्देश देने से पहले मजिस्ट्रेट को आवश्यक समझी जाने वाली जांच करनी होगी और पुलिस अधिकारी द्वारा की गई प्रस्तुतियों पर विचार करना होगा। इस प्रावधान (BNSS की धारा 175 (3)) के तहत जांच करने की शक्ति का उदारतापूर्वक प्रयोग किया जाना चाहिए और मजिस्ट्रेट को अनिवार्य रूप से जांच एजेंसी की प्रस्तुतियां लेनी चाहिए। यह प्रक्रियात्मक सुरक्षा सुनिश्चित करती है कि मजिस्ट्रेट एक तर्कसंगत और सुविचारित निर्णय पर पहुंचे, जिससे जांच मशीनरी के अनावश्यक आह्वान के साथ-साथ सार्वजनिक संसाधनों के व्यय को रोका जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि दी गई परिस्थितियों में पुलिस हस्तक्षेप का सहारा लिया जाए।"

    केस टाइटल: पवन खरबंदा बनाम पंजाब राज्य और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मोटर वाहन अधिनियम | धारा 163ए के तहत मुआवज़ा पाने के लिए पीड़ित को दोषी चालक की लापरवाही साबित करने की ज़रूरत नहीं: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि क्षतिपूर्ति का दावा करने के लिए मोटर वाहन अधिनियम की धारा 163-ए के तहत दोषी वाहन के चालक की लापरवाही साबित करना आवश्यक नहीं है।

    धारा 163-ए के अनुसार, इस अधिनियम या किसी अन्य कानून या विधि के बल वाले साधन में निहित किसी भी बात के बावजूद, मोटर वाहन का मालिक या अधिकृत बीमाकर्ता मोटर वाहन के उपयोग से उत्पन्न दुर्घटना के कारण मृत्यु या स्थायी विकलांगता के मामले में, द्वितीय अनुसूची में निर्दिष्ट अनुसार, कानूनी उत्तराधिकारियों या पीड़ित को, जैसा भी मामला हो, क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा।

    केस टाइटलः यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम गुरजिंदर कौर और अन्य [अन्य याचिकाओं के साथ]

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मृतक ड्राइवर के कानूनी उत्तराधिकारी व्यक्तिगत दुर्घटना कवर के तहत मुआवजे के हकदार, भले ही ड्राइवर की गलती हो: झारखंड हाईकोर्ट

    झारखंड हाईकोर्ट ने माना कि मृतक ड्राइवर के कानूनी उत्तराधिकारी बीमा पॉलिसी के व्यक्तिगत दुर्घटना (PA) कवर के तहत मुआवजे के हकदार हैं भले ही दुर्घटना के लिए ड्राइवर खुद दोषी हो। अदालत ने फैसला सुनाया कि ऐसी परिस्थितियों में चालक मालिक की जगह आ जाता है और बीमा पॉलिसी के पीए कवरेज के अनुसार मुआवजे का हकदार होता है।

    जस्टिस संजय कुमार द्विवेदी ने मामले की अध्यक्षता करते हुए कहा, "बीमा पॉलिसी रिकॉर्ड में उपलब्ध है, जिसमें मालिक-चालक (CSI) के लिए धारा-III के तहत पीए कवर 2 लाख रुपये बताया गया। इसका अर्थ है कि बीमा है। इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि यदि वाहन केवल मालिक ही चला रहा है, तो केवल वही क्लॉज लागू होगा। यह मालिक-चालक के रूप में है, जिसका अर्थ है कि जो भी वाहन चला रहा है, वह 2 लाख रुपये के पीए कवर का हकदार है। 2 लाख और अगर ऐसी स्थिति है, तो निश्चित रूप से मृतक ने मालिक की जगह ली है।''

    केस टाइटल: कुरेशा बीबी और अन्य बनाम पुष्पा देवी और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    वास्तविक उपयोग के लिए किराए की संपत्ति की आवश्यकता मकान मालिक के दृष्टिकोण से तय की जानी चाहिए, न कि किरायेदार के दृष्टिकोण से: राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर पीठ ने कहा है कि यह किरायेदार के लिए सुझाव या दिखाने के लिए नहीं था कि मकान मालिक को किराए के परिसर की कोई वास्तविक आवश्यकता नहीं थी। ऐसा करते हुए अदालत ने रेखांकित किया कि वास्तविक उपयोग के लिए किराए की संपत्ति की आवश्यकता को मकान मालिक के दृष्टिकोण से आंका जाना चाहिए, न कि किरायेदार के दृष्टिकोण से।

    यह टिप्पणी जस्टिस विनीत कुमार माथुर ने की, जो किराया अपीलकर्ता न्यायाधिकरण के फैसले के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसने किराया न्यायाधिकरण के फैसले के खिलाफ अपील की अनुमति दी थी, जिसमें मकान मालिक-प्रतिवादी द्वारा किरायेदार-याचिकाकर्ता को बेदखल करने के लिए आवेदन की अनुमति दी गई थी।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    [Senior Citizens Act] धारा 23 के तहत सीनियर सिटीजन के लिए शांतिपूर्ण आय की आवश्यकता होने पर दामाद को ससुर का घर खाली करना होगा: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में अपने फैसले में अपने रिटायर ससुर के परिसर में रहने वाले दामाद को बेदखल करने का आदेश दिया, जिसे अपनी पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण के लिए अतिरिक्त आय के स्रोत के रूप में उक्त संपत्ति की आवश्यकता थी।

    अपील खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने रिट कोर्ट के उस निर्णय को बरकरार रखा, जिसमें यह राय दी गई कि निहितार्थ रूप से यदि घर बेटी को दिया गया था तो बेटी की मृत्यु के बाद दामाद को माता-पिता और सीनियर सिटीजन भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 की धारा 2(ए) में परिभाषित बच्चों की परिभाषा में शामिल किया जाएगा। इसलिए अधिनियम की धारा 2(एच) में परिभाषित सीनियर सिटीजन का भरण-पोषण करना दामाद का कर्तव्य है।

    केस टाइटल: दिलीप मरमत बनाम कलेक्टर और अन्य, रिट अपील नंबर 1705/2023

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    बीमाकर्ता बिना सहभागी लापरवाही साबित किए दायित्व से इनकार नहीं कर सकता, FIR दर्ज करने में देरी का दावा खारिज करने का कोई आधार नहीं: झारखंड हाईकोर्ट

    झारखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में एक बीमा कंपनी द्वारा दायर अपील खारिज की, जबकि इस बात की पुष्टि की कि मोटर दुर्घटना मुआवजा दावे के मामले में सहभागी लापरवाही साबित करने की जिम्मेदारी बीमा कंपनी की है। मामले की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस संजय कुमार द्विवेदी ने इस बात पर जोर दिया, "जहां तक सहभागी लापरवाही का सवाल है, कोई सबूत पेश नहीं किया गया। इसे साबित करने की जिम्मेदारी बीमा कंपनी की है।"

    उपरोक्त फैसला मोटर दुर्घटना दावा मामले में सुनाया गया, जो बीमा कंपनी द्वारा मोटर वाहन दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (MACT), रांची द्वारा पारित अवार्ड को चुनौती देने वाली अपील से उत्पन्न हुआ था।

    केस टाइटल: चोलामंडलम एमएस जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम पंची ओरांव बनाम अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    शिकायतकर्ता को डराने के इरादे के बिना केवल धमकी देना आपराधिक धमकी नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता को डराने के इरादे के बिना आरोपी द्वारा केवल धमकी देना आपराधिक धमकी का अपराध नहीं है। जस्टिस अमित महाजन ने कहा, “IPC की धारा 506 का केवल अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आपराधिक धमकी का अपराध बनने से पहले यह स्थापित किया जाना चाहिए कि आरोपी का इरादा शिकायतकर्ता को डराने का था। शिकायतकर्ता को डराने के इरादे के बिना आरोपी द्वारा दी गई केवल धमकी आपराधिक धमकी का अपराध नहीं होगी।”

    केस टाइटल: एक्स बनाम राज्य और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    केवल "संदेह के लाभ" के आधार पर बरी किए जाने का इस्तेमाल कर्मचारी को वैध वित्तीय अधिकारों से वंचित करने के लिए नहीं किया जा सकता: राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाईकोर्ट ने 2002 से 2009 के बीच एक आपराधिक मामले के कारण निलंबित रहे और बाद में बरी कर दिया गया था और सेवा में बहाल कर ‌दिया गया था, एक जूनियर इंजीनियर, जिसकी इस आधार पर बकाया राशि रोक ली गई उसे केवल संदेह के लाभ के आधार पर बरी किया गया था, को राहत प्रदान की है।

    जस्टिस अरुण मोंगा की पीठ ने राज्य द्वारा अपनाए गए इस रुख को खराब कहा और कहा कि आरोपी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलने पर ही अदालत ने उसे बरी किया। और एक बार बरी होने के बाद, उसे बकाया राशि देने से इनकार करने के लिए "संदेह के लाभ" का सहारा लेना न केवल अनुचित, अन्यायपूर्ण और मनमाना था, बल्कि निलंबन से पहले की स्थिति में उसे बहाल करने के सिद्धांत के भी खिलाफ था।

    केस टाइटलः नाथू लाल बनाम राजस्थान राज्य और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    भारतीय और विदेशी के बीच भारत के बाहर हुए विवाह को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत रजिस्टर नहीं किया जा सकता: केरल हाईकोर्ट

    न्यायालय ने वर्चुअल मोड के माध्यम से विदेशी विवाह अधिनियम के तहत विवाह के रजिस्ट्रेशन की अनुमति दी। केरल हाईकोर्ट ने कहा कि भारत के बाहर आयोजित विवाह जहां केवल पक्ष भारतीय नागरिक है, विदेशी विवाह अधिनियम के तहत रजिस्टर किया जा सकता है। इसने आगे स्पष्ट किया कि दो व्यक्तियों के बीच विवाह विशेष विवाह अधिनियम (SMA) के प्रावधानों के तहत भारत में आयोजित और/या पंजीकृत किया जा सकता है।

    जस्टिस सी एस डायस ने कहा कि याचिकाकर्ता भारतीय नागरिक और इंडोनेशियाई नागरिक, जिन्होंने इंडोनेशिया के नागरिक कानूनों के तहत अपनी शादी की है, वे अपनी शादी को औपचारिक रूप से विदेशी विवाह अधिनियम के तहत पंजीकृत कर सकते हैं, न कि SMA के प्रावधानों के तहत।

    केस टाइटल: विपिन पी जी बनाम केरल राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    पदोन्नति के लिए सीनियोरिटी फीडर श्रेणी में पदोन्नति की तिथि से निर्धारित होती है, प्रारंभिक नियुक्ति की तिथि से नहीं: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

    आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस सुब्बा रेड्डी सत्ती की एकल पीठ ने माना कि उप निरीक्षक के पद पर पदोन्नति के लिए सीनियर फीडर श्रेणी (हेड कांस्टेबल/ASI) में पदोन्नति की तिथि से निर्धारित होती है, पुलिस कांस्टेबल के रूप में प्रारंभिक नियुक्ति की तिथि से नहीं।

    केस टाइटल: टी. वेंकटेश्वरलू और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story