जानिए 2020 के 30 फेमिनिस्ट जजमेंट

LiveLaw News Network

5 Jan 2021 8:12 AM GMT

  • जानिए 2020 के 30 फेमिनिस्ट जजमेंट

    साल 2020 में महिला अधिकारों की रक्षा करने वाले निर्णय पर एक नज़र।

    1.बेटियों को सहदायिक अधिकार प्राप्त होगा, भले ही उस समय उनके पिता जीवित नहीं थे जब हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 लागू हुआ थाःसुप्रीम कोर्ट

    एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक बेटी के पास हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के बाद एक हिस्सा होगा, भले ही संशोधन के समय उसके पिता जीवित हो या नहीं।

    तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि संशोधन के तहत अधिकार 9-9-2005 के अनुसार जीवित हिस्सेदारों की जीवित बेटियों पर लागू होते हैं, इस तथ्य के बिना बिना कि ऐसी बेटियों का जन्म कब हुआ। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने मंगलवार को अपील के एक समूह पर फैसला सुनाया जिसने एक महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दा उठाया कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, जिसने पैतृक संपत्ति में बेटियों को समान अधिकार दिया था, का पूर्वव्यापी प्रभाव होगा।

    न्यायमूर्ति मिश्रा ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि, ''बेटियों को बेटों के समान अधिकार दिया जाना चाहिए, बेटी जीवन भर एक प्यार करने वाली बेटी बनी रहती है। बेटी पूरे जीवन एक सहदायिक बनी रहेगी, भले ही उसके पिता जीवित हों या नहीं।''

    यह मामला विनिता शर्मा बनाम राकेश शर्मा था।

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    2.'सेना में कमांड अपाॅइंटमेंट से महिलाओं का पूर्ण बहिष्करण अवैध हैः दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ केंद्र की तरफ से दायर अपील को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया

    लैंगिक समानता पर एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि सेना में महिलाओं को उनकी सेवा की परवाह किए बिना सिवाय लड़ाकू भूमिकाओं के बाकी शाखाओं में स्थायी भूमिका दी जानी चाहिए ।

    न्यायालय ने यह भी कहा था कि कमांड नियुक्तियों से महिलाओं का पूर्ण बहिष्कार संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ है और अनुचित है। केंद्र का ये तर्क कि महिलाओं को केवल कर्मचारी नियुक्तियां दी जा सकती हैं, कानून में ठहरने वाला नहीं है।

    केंद्र सरकार द्वारा दायर की गई अपीलों को खारिज करते हुए पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि वायु सेना और सेना की शॉर्ट सर्विस कमीशन महिला अधिकारी, जिन्होंने स्थायी आयोग के लिए आवेदन किया था, लेकिन उन्हें केवल एससीसी का विस्तार दिया गया था, वो सभी परिणामी लाभों के साथ पुरुष लघु सेवा कमीशन अधिकारियों के बराबर स्थायी कमीशन की हकदार हैं।

    यह मामला सचिव, रक्षा मंत्रालय बनाम बबीता पुनिया और अन्य के मामले में है, जिसमें जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने 5 फरवरी को आदेश सुरक्षित रखा था।

    लैंगिक समानता पर एक और अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारतीय नौसेना में महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी भी अपने पुरुष समकक्षों के साथ स्थायी कमीशन की हकदार हैं। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने मामले में भारत संघ बनाम लेफ्टिनेंट कमांडर एनी नागराज और अन्य से जुड़े मामलों में फैसला सुनाया।

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    3.घरेलू हिंसा अधिनियम- पत्नी पति के रिश्तेदारों से संबंधित साझा घर में रहने के अधिकार का दावा करने की भी हकदार है, सुप्रीम कोर्ट ने 2006 के 'एस आर बत्रा' फैसले को पलटा

    एक पत्नी पति के रिश्तेदारों से संबंधित साझा घर में रहने के अधिकार का दावा करने की भी हकदार है, सुप्रीम कोर्ट ने 2006 के एस आर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा फैसले को पलटते हुए ये अहम फैसला सुनाया था। कोर्ट ने कहा था कि, ''घटना में, साझा घर पति के किसी रिश्तेदार का है, जिसके साथ घरेलू संबंध में महिला रह चुकी है, धारा 2 (एस) में उल्लिखित शर्तें संतुष्ट हैं और उक्त घर एक साझा घर बन जाएगा।''

    जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने अधिनियम की धारा 2 (एस) में दी गई 'साझा घर' की परिभाषा को देखा, इसका मतलब यह नहीं पढ़ा जा सकता है कि यह केवल वह घर हो सकता है जो संयुक्त परिवार का घर है जिस परिवार का पति सदस्य है या जिसमें पीड़ित व्यक्ति के पति का हिस्सा है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    ''एक घर में रहने वाली महिला के लिए एक ऐसे रहने का जिक्र करना है, जिसमें कुछ स्थायीपन हो। विभिन्न स्थानों पर रहने वाले या आकस्मिक रहने वाले लोग एक साझा घर नहीं बना पाएंगे। पक्षकारों का इरादा और घर की प्रकृति सहित जीवन की प्रकृति को यह देखने के लिए पता लगाया जाएगा कि क्या पक्षकार परिसर को साझा घराने के रूप में मानते हैं या नहीं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, अधिनियम 2005 को महिला के पक्ष में एक उच्च अधिकार देने के लिए अधिनियमित किया गया था। परिवार के भीतर होने वाली किसी भी तरह की हिंसा का शिकार होने वाली महिला के अधिकारों के अधिक प्रभावी संरक्षण के लिए अधिनियम, 2005 अधिनियमित किया गया है। अधिनियम की व्याख्या इसके बहुत ही उद्देश्य से की जानी चाहिए। अधिनियम, 2005 की धारा 17 और 19 को 2 (एस) के साथ पढ़ने पर ये साझा घर के तहत निवास के अधिकार की महिला के पक्ष में एक पात्रता प्रदान करती है, चाहे इसमें किसी भी तरह का कानूनी हित हो या न हो।''

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    4.वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत बेदखली का आदेश लेकर घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत महिला के अधिकार को पराजित नहीं किया जा सकता हैः सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के रखरखाव और कल्याण अधिनियम का घरेलू हिंसा अधिनियम से महिलाओं के संरक्षण के अर्थ में एक साझा घर में महिला के निवास के अधिकार पर कोई ओवरराइड प्रभाव नहीं है।

    जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने एस वनिता बनाम उपायुक्त, बेंगलुरु शहरी जिला मामले में अवलोकन किया, साझा गृहस्थी के संबंध में निवास के आदेश को सुरक्षित रखने के लिए एक महिला के अधिकार को वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत सारांश प्रक्रिया को अपनाते हुए बेदखली के आदेश को हासिल करने के सरल उपाय द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता है।

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    5. 'एक बलात्कार पीड़िता के जीवन के अधिकार का उल्लंघन,उसके गर्भ में पल रहे बच्चे के जीवन के अधिकार के उल्लंघन से ''अधिक महत्वपूर्ण'' हैः राजस्थान हाईकोर्ट ने बलात्कार पीड़िता की गर्भावस्था की समाप्ति के लिए निर्देश जारी किए

    न्यायमूर्ति संदीप मेहता और डॉ न्यायमूर्ति पुष्पेन्द्र सिंह भाटी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा था कि ''एक बलात्कार पीड़िता द्वारा अपने भ्रूण को गिराने के लिए प्रजनन पंसद बनाने का अधिकार,उसके गर्भ में पल रहे बच्चे के जन्म के अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण है,भले ही गर्भावस्था एडवांस स्टेज पर पहंुच चुकी हो।''

    खंडपीठ ने इस मामले में यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश जारी किए थे कि नाबालिग बलात्कार पीड़िता को अवांछित गर्भधारण को समाप्त करने के अधिकार से वंचित न किया जाए। हाईकोर्ट की एकल न्यायाधीश की खंडपीठ ने नाबालिग बलात्कार पीड़िता की 25 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की याचिका को अस्वीकार कर दिया था। जिसके

    बाद राज्य सरकार ने परेंस पेटरिया के रूप में दूसरी अपील दायर की थी,जिस पर यह निर्णय पारित किया गया।

    कोर्ट ने कहा था कि ,नाबालिग पीड़िता को अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने से इनकार करके एकल न्यायाधीश ने एक अजन्मे बच्चे को जेजे अधिनियम के तहत चाइल्ड इन नीड ऑफ केयर एंड प्रोटेक्शन की कैटेगरी में आने के लिए मजबूर किया था।

    6. महिला की निजता और सम्मान का हनन करने वाला 'टू फिंगर टेस्ट' असंवैधािनक हैःगुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट ने कहा था कि बलात्कार के मामले में पीड़िता के कौमार्य/सहमति के निर्धारण के लिए किया जाने वाला टू-फिंगर टेस्ट 'पुरातन और अप्रचलित' तरीका है और असंवैधानिक है। कोर्ट ने कहा था कि टू-फिंगर टेस्ट पीड़िता के निजता, शारीरिक और मानसिक निष्ठा और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है।

    जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस भार्गव डी करिया की पीठ के अनुसार, टू फिंगर टेस्ट भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 146 के प्रत्यक्ष विरोध में है, जिसका कहना है कि बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के मामले के पीड़िता के सामान्य चरित्र पर सवाल उठाने की अनुमति नहीं होगी।

    ''टू-फिंगर टेस्ट, पीड़ित के यौन इतिहास के कारण, सहमति के बारे में चिक‌त्‍सकीय राय कायम करने के बजाय पूर्वाग्रह ही कायम करता है।''

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    7.कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न महिला के मौलिक अधिकारों का हननः सुप्रीम कोर्ट

    कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न किसी महिला के मौलिक अधिकारों का हनन है, सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के एक फैसले को बरकरार रखते हुए यह टिप्पणी की थी और एक महिला बैंक कर्मचारी के स्थानांतरण को रद्द कर दिया था।

    पंजाब और सिंध बैंक की एक महिला कर्मचारी, जो इंदौर शाखा में स्केल IV में मुख्य प्रबंधक का पद संभाल रही थी, उन्हें जबलपुर जिले के सरसावा शाखा में स्थानांतरित कर दिया गया। उन्होंने उक्त ट्रांसफर को चुनौती दी और आरोप लगाया कि उनकी शाखा में अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के बारे में उनकी रिपोर्ट और एक अधिकारी के खिलाफ उनकी यौन उत्पीड़न की शिकायत के कारण उनका ट्रांसफर किया गया। हाईकोर्ट ने रिट याचिका की अनुमति दी और स्थानांतरण आदेश रद्द कर दिया था।

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    8. 'राज्य स्त्री-द्वेष तरीके से काम नहीं कर सकता हैः हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अनुकंपा नियुक्ति से विवाहित बेटियों को बाहर रखने वाली नीति को गलत करार दिया

    न्यायमूर्ति सुरेश्वर ठाकुर और न्यायमूर्ति चंदर भूषण बारोवालिया की खंडपीठ ने कहा था कि, ''राज्य एक स्त्री-द्वेष तरीके से काम नहीं कर सकता है।'' इसी के साथ पीठ ने उस विवाहित बेटी की याचिका को स्वीकार कर लिया था,जिसने अपने मृतक पिता के स्थान पर अनुकंपा नियुक्ति की मांग की थी।

    कोर्ट ने कहा था कि,''यदि बेटे की वैवाहिक स्थिति से कानून की नजर में कोई फर्क नहीं पड़ता है, तो यह सोचना मुश्किल है, कि एक बेटी की वैवाहिक स्थिति उसकी पात्रता में इतना बड़ा अंतर कैसे लाती है। वास्तव में, विवाह का पहचान के साथ कोई संबंध नहीं है और शादी के बाद भी एक बेटी अपने माता-पिता की बेटी ही बनी रहती है। इसलिए, यदि विवाहित पुत्र को अनुकंपा नियुक्ति का अधिकार है, तो विवाहित बेटी भी उसी पद पर आसीन हो सकती है और उसके बहिष्कार का कोई ठोस आधार या तर्क नहीं होता है, इसलिए उसके बहिष्कार का कोई न्यायसंगत मापदंड नहीं है।''

    केसः ममता देवी बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य व अन्य

    9.''वेश्यावृत्ति अपराध नहीं; वयस्क महिला को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार'', बॉम्बे हाईकोर्ट ने 3 यौनकर्मियों को सुधारक संस्था से रिहा करने का आदेश दिया

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि वेश्यावृत्ति को इम्मोरल ट्रैफिक (प्र‌िवेंशन) एक्ट, 1956 के तहत अपराध नहीं माना गया है और एक वयस्क महिला को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार है और उसे उसकी सहमति के बिना हिरासत में नहीं लिया जा सकता है, गुरुवार (24 सितंबर) को सुधारात्मक संस्था से 3 यौनकर्मियों को मुक्त कर दिया था।

    ''यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि याचिकाकर्ता पीड़ित वयस्‍क हैं और इसलिए, उन्हें अपनी पंसद के स्‍थान पर निवास करने का अधिकार है, पूरे भारत के स्वतंत्र रूप से घूमने और अपने स्वयं के व्यवसाय का चयन करने के का अधिकार है, जैसा कि संविधान के मौलिक अधिकारों के भाग III में निहित है।''

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    10.''गृहिणी के रूप में एक महिला की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण है''; बॉम्बे हाईकोर्ट ने सड़क दुर्घटना में मरने वाली महिला के परिजनों को 8 लाख रुपये मुआवजा दिया

    एक महत्वपूर्ण आदेश में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने सितम्बर माह में एक 45 वर्षीय महिला की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाने के मामले में उसके परिजनों को आठ लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया था। घटना के समय महिला एक जीप में सवार थी और यह जीप अनियंत्रित होकर एक पेड़ से टकरा गई थी। जिस कारण महिला को काफी चोट आई थी और बाद में उसकी मौत हो गई।

    एक परिवार में एक गृहिणी की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए, न्यायमूर्ति अनिल एस किलोर ने कहा था कि- ''जब हम एक 'परिवार' के बारे में बात करते हैं, तो परिवार में 'गृहिणी' के रूप में एक महिला की भूमिका सबसे चुनौतीपूर्ण और महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जो बहुत प्रशंसा की हकदार होती है, परंतु उसकी कम से कम सराहना की जाती है। वास्तव में भावनात्मक रूप से वह परिवार को एक साथ रखती है। वह घर में पति का सहयोग करने वाला एक स्तंभ, अपने बच्चों के लिए एक मार्गदर्शक और परिवार के बुजुर्गों के लिए आश्रय की तरह होती है। वह एक दिन की भी छुट्टी लिए बिना दिन-रात काम करती है, भले ही वह कामकाजी महिला हो या न हो। हालाँकि, वह जो काम करती है ,उसकी कोई सराहना नहीं होती है और उसे श्नौकरीश् नहीं माना जाता है। एक महिला द्वारा घर में दी जाने वाली सेवाओं को मौद्रिक दृष्टि से गिनना एक असंभव कार्य है जो वह हमेशा करती हैं और जो सैकड़ों घटकों से मिलकर बने होते है।''

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    11.''किसी महिला को शादी करने के लिए परिवार मजबूर नहीं कर सकता''ः दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा, परिवार उससे संपर्क न करे और 26 वर्षीय महिला को उसकी इच्छानुसार रहने दें

    न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति रजनीश भटनागर की खंडपीठ ने एक वयस्क महिला को राहत दी थी, जिसने अपनी पसंद के पुरुष से शादी करने के लिए अपना घर छोड़ दिया था। उसकी सहमति जानने और इच्छाओं को ध्यान में रखने के बाद, अदालत ने उल्लेख किया था कि बालिग होने के नाते, वह जहां चाहे और जिसके साथ चाहे रह सकती है।

    इस मामले में महिला के परिवार ने एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर उसे कोर्ट के समक्ष पेश करने की मांग की थी। याचिका के अनुसार वह 12 सितम्बर 2020 से गायब थी।

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    12.कोई महिला अपने अपमान के खिलाफ किस तरह की प्रतिक्रिया देगी, इस बारे में कोई एक निर्धारित फॉर्मूला नहीं हो सकताः बॉम्बे हाईकोर्ट

    ''कोई महिला किसी पुरुष द्वारा अपमानित किए जाने पर किस तरह प्रतिक्रिया देगी इस बारे में कोई एक निर्धारित फॉर्मूला नहीं हो सकता'', बॉम्बे हाईकोर्ट ने बलात्कार के आरोपी 24 साल के एक व्यक्ति को जमानत पर छोड़ते हुए यह बात कही थी।

    जस्टिस भारती डांगरे ने कहा था कि,''किसी पुरुष की ओर से बेइज्जत किए जाने की स्थिति में कोई महिला किस तरह की प्रतिक्रिया करेगी इस बारे में कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं हो सकता क्योंकि सभी महिलाओं का जन्म जीवन में अलग अलग परिस्थितियों में हुआ है, वे जीवन में अलग-अलग बातों से गुजरती हैं और अलग-अलग बातों का सामना करती हैं और उनका अनुभव अलग होता है और वे अलग तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं और आवश्यक रूप से वे दूसरे से अलग होती हैं।''

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    13.पत्नी की तरह रहने वाली महिला को नहीं किया जा सकता भरण पोषण से वंचितः त्रिपुरा हाईकोर्ट

    त्रिपुरा हाईकोर्ट ने कहा था कि एक महिला ,जो एक पत्नी की तरह रहती थी और जिसे पत्नी की तरह ही माना जाता था, उसे भरण-पोषण पाने से वंचित नहीं किया जा सकता है।

    न्यायमूर्ति एस तालपात्रा ने कहा था कि ऐसी महिला को समाज में भी सम्मान के साथ जीने का अधिकार है और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को विधायी परिवर्तनों के मद्देनजर व्याख्यायित किया जाना चाहिए, जिसने स्त्री-पुरुष के रिश्तों की बदलती वास्तविकता को अपने दायरे में ले लिया है।

    इस मामले में पति की तरफ से यह दलील दी गई थी कि उसके खिलाफ भरण-पोषण की मांग करने वाली महिला ने उससे शादी की थी, परंतु उस समय उसकी पहली पत्नी जिंदा थी। इसलिए वह उसकी पत्नी नहीं है क्योंकि उनके बीच हुई शादी कानूनी रूप से मान्य नहीं थी। फैमिली कोर्ट ने कहा था कि उनके बीच हुआ विवाह साक्ष्यों से साबित हो गया है। कोर्ट ने कहा कि शादी के समय भले ही पति की पहली पत्नी जिंदा थी,परंतु उसने इस तथ्य को रखरखाव मांगने वाली महिला से शादी के समय छुपाया था। ऐसे में पति को उसकी अपनी गलती का फायदा उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

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    14. मातृत्व रोजगार के नुकसान से समान नहीं हो सकता; मातृत्व अवकाश अनुबंधित कर्मचारियों को कार्यकाल विस्तार से इनकार करने का कोई कारण नहींःदिल्ली हाईकोर्ट

    न्यायमूर्ति हेमा कोहली और न्यायमूर्ति आशा मेनन की खंडपीठ ने एक एडहोक प्रोफेसर के टर्मिनेशन लेटर को रद्द कर दिया था,जिसके अनुबंध को कॉलेज द्वारा नवीनीकृत नहीं किया गया था क्योंकि उसने मातृत्व अवकाश लिया था, जिसे उक्त कॉलेज द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया था। पीठ ने अपीलकर्ता के कार्यकाल को नवीनीकृत नहीं करने के लिए मनमाने और अनपेक्षित कारण देने के लिए प्रतिवादियों पर 50,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया था।

    अदालत ने कहा था कि इस तरह का इनकार एक महिला को माँ बनने का विकल्प चुनने लिए दंडित करने के समान होगाः''क्योंकि अपीलकर्ता/याचिकाकर्ता को एक्सटेंशन देने से मना करने के लिए प्रतिवादियों द्वारा दिया औचित्य मातृत्व को रोजगार के नुकसान के बराबर कर रहा है। चूंकि महिला ने अपनी गर्भावस्था के कारण छुट्टी की आवश्यकता पर प्रकाश डाला था। यह कानून की नजर में समानता के मूल सिद्धांत का उल्लंघन है। यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले रोजगार के अधिकार और एक महिला के रूप में अपने प्रजनन अधिकारों के संरक्षण से भी वंचित करेगा। ऐसा परिणाम बिल्कुल अस्वीकार्य है और अनुच्छेद 14 और 16 में निहित समानता के सिद्धांतों के खिलाफ है।''

    केसः मनीषा प्रियदर्शनी बनाम अरबिंदो कॉलेज- इवनिंग व अन्य

    15.अपर्याप्त मासिक धर्म स्वच्छता सुविधाएं शिक्षा के अधिकार में अड़चन बन रही हैंः जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने स्वत संज्ञान लिया

    मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति सिंधु शर्मा की पीठ ने कहा था कि मासिक धर्म के स्वास्थ्य को शिक्षा के अधिकार के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत निहित किया गया है। अदालत ने इस पर ध्यान केंद्रित किया कि कैसे किशोर लड़कियों को इस अधिकार का उपयोग करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि वे बुनियादी मासिक धर्म स्वच्छता उत्पादों या मासिक धर्म स्वास्थ्य के बारे में ज्ञान से वंचित रहती हैं। बेंच ने कहा था कि इस तरह के एक महत्वपूर्ण विषय के बारे में अशिक्षा से अस्वच्छ आचरण को बढ़ावा मिलेगा, जिसके गंभीर स्वास्थ्य परिणाम होंगे और रुकावट बढ़ेंगी,जिससे छात्राओं द्वारा स्कूल छोड़ने के मामले बढ़ेंगे।

    न्यायालय ने कहा था कि, ''अपर्याप्त माहवारी स्वच्छता प्रबंधन (एमएचएम) केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में भी शिक्षा के लिए एक प्रमुख अवरोधक होगा, जिसमें कई किशोरियां स्वच्छता सुविधाओं , मासिक धर्म उत्पादों की कमी और मासिक धर्म से जुड़े कलंग के कारण स्कूल की पढ़ाई छोड़ रही हैं।

    इन युवा लड़कियों को होने वाली कठिनाइयां इस तथ्य से और जटिल हो जाती हैं कि कई शैक्षणिक सुविधाओं और संस्थानों में बुनियादी शौचालय सुविधाएं भी नहीं हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन बच्चों को संवैधानिक गारंटी सुनिश्चित करने के लिए अलग और बुनियादी शौचालय आवश्यक हैं। बेंच ने यह भी कहा था कि ''राज्यों की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को मासिक धर्म के स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में शिक्षित करें और स्वच्छता उत्पादों को सभी किशोरों के लिए सुलभ बनाएं,विशेष रूप से उनके लिए जो वित्तीय बाधाओं के कारण उन्हें खरीद नहीं सकती हैं।''

    केसः कोर्ट स्वत संज्ञान बनाम भारत सरकार व अन्य

    16.अनुच्छेद 15 (3) का दायरा 16 (4) की तुलना में बहुत व्यापकः कैट ने एम्स में महिला नर्सों के लिए 80 फीसदी आरक्षण बरकरार रखा

    दिल्ली में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की प्रमुख पीठ ने नर्सिंग अधिकारी पदों पर महिलाओं के लिए 80 प्रतिशत आरक्षण को बरकरार रखा था। प्रदीप कुमार, सदस्य (ए) और आरएन सिंह, सदस्य (जे) की पीठ ने 'लिंग आधारित आरक्षण' के खिलाफ दो याचिकाओं को खारिज कर दिया था और कहा था कि, ''महिला के लिए नर्सिंग ऑफिसर के 80 प्रतिशत पदों का आरक्षण, जैसा कि अधिसूचित है, संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के तहत एक अलग वर्गीकरण के रूप में महिला उम्मीदवार के लिए एक विशेष प्रावधान माना जाता है और इसे मान्य ठहराया जाता है।''

    नर्सिंग ऑफिसर के पद के लिए इच्छुक उम्मीदवारों के लिए प्राथमिक विवाद यह था कि महिलाओं के लिए 80 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ, 1992 3 एससीसी 217 के जनादेश के खिलाफ है, जिसमें आरक्षण पर 50 प्रतिशत ऊपरी सीमा निर्धारित की गई थी। यह भी तर्क दिया गया था कि केंद्रीय संस्थान निकाय (सीआईबी), जिसने इस तरह का आरक्षण निर्धारित किया था, एक सक्षम निकाय नहीं है।

    आवेदकों द्वारा उठाए गए पहले मुद्दे को संबोधित करते हुए ट्रिब्यूनल ने कहा था कि,''इस ट्रिब्यूनल का यह विचार है कि अनुच्छेद 15 (3) महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पीबी विजय कुमार समेत कई फैसलों में इसे शामिल किया है कि अनुच्छेद 15 (3) का दायरा अनुच्छेद 16 (4) की तुलना में,बहुत व्यापक है जिसके तहत इंद्रा साहनी में 50 प्रतिशत सीमा तय की गई थी।''

    ऐसा फैसला करते समय ट्रिब्यूनल ने कैट, पटना और पटना उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों के साथ सहमति जताई थी , जिसमें एम्स पटना के लिए नर्सिंग अधिकारियों की भर्ती में लिंग आधारित आरक्षण को बरकरार रखा गया था।

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    17.मुस्लिम कानून के तहत दूसरी शादी मान्य है, परंतु इसे पहली पत्नी के खिलाफ क्रूरता माना जा सकता हैःकर्नाटक हाईकोर्ट

    एक महत्वपूर्ण निर्णय में, कर्नाटक हाईकोर्ट की कालाबुरागी पीठ ने कहा था कि भले ही मुस्लिम पति द्वारा दूसरी शादी करना कानूनन वैध है, लेकिन यह अक्सर पहली पत्नी के लिए ''बड़ी क्रूरता'' का कारण बनती है और तलाक के लिए उसके दावे को सही ठहराती है। न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित और न्यायमूर्ति पी कृष्णा भट की खंडपीठ ने स्पष्ट किया था कि क्रूरता एक बहुत ही व्यक्तिपरक अवधारणा है और इसका गठन करने वाला आचरण ''अनिश्चित रूप से परिवर्तनशील'' है।

    पीठ ने कहा था कि ''केवल इसलिए कि एक कार्य वैध है, यह विवाहित जीवन में न्यायसंगत नहीं बन जाता है, उदाहरण के लिए, निश्चित रूप से अपवादों को छोड़कर सभी के लिए धूम्रपान और शराब गैरकानूनी नहीं है, खर्राटे भरना भी नहीं,लेकिन फिर भी कुछ परिस्थितियों में यह एक संवेदनशील पति या पत्नी के प्रति क्रूरता बन जाते हैं। उसी सादृश्य के आधार ,भले ही एक मुस्लिम द्वारा दूसरी शादी करना कानूनन वैध हो सकता है, लेकिन यह अक्सर पहली पत्नी के प्रति बड़ी क्रूरता का कारण बन जाती है और उसके तलाक मांगने के दावे को सही ठहराती है।''

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    18.(जन्मपूर्व लिंग निर्धारण)कन्या भ्रूण हत्या भविष्य की महिला का विनाश हैः पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    जन्मपूर्व लिंग निर्धारण की प्रथा पर चिंता व्यक्त करते हुए, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने (30 अक्टूबर) को कहा था,''एक बालिका के प्रति समाज के तिरस्कारपूर्ण रवैये और नैदानिक उपकरणों के उपयोग को ध्यान में रखते हुए जन्म पूर्व लिंग निर्धारण को रोकने के लिए कन्या भ्रूण हत्या अधिनियम को लागू किया गया था। विशिष्ट कानून के बावजूद लिंग के आधार पर भ्रूण के विनाश की आशंका समाज में कायम है।''

    ज‌स्टिस अवनीश झिंगन की खंडपीठ ने कहा था कि,''संविधान लिंगों के लिए समानता की गारंटी देता है, लेकिन जन्मपूर्व लिंग निर्धारण एक बालिका के भ्रूण को दुनिया में आने से वंचित करता है। एक सभ्य समाज में, भ्रूण का लिंग उसे जीवन देने के फैसले का निर्धारण नहीं कर सकता है....परिणाम विनाशकारी होंगे, सभ्यता खुद लुप्तप्राय हो जाएगी।''

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    19.महिलाओं और बच्चों के खिलाफ जघन्य अपराध का मामला-जांच में किसी भी तरह की ढिलाई नहीं बरती जानी चाहिएःझारखंड हाईकोर्ट ने घटिया जांच के लिए पुलिस को फटकार लगाई

    झारखंड हाईकोर्ट ने सोमवार (12 अक्टूबर) को राज्य पुलिस को एक मामले की घटिया जांच करने के मामले में कड़ी फटकार लगाई थी। इस मामले में एक महिला अपने तीन नाबालिग बच्चों के साथ जल गई थी और बाद में उनकी मौत हो गई थी। वहीं महिला व उसके बच्चों को जलाकर मारने का आरोप उसके ससुरालियों के खिलाफ लगाया गया है।

    खंडपीठ ने आगे कहा था कि,''पुलिस इस मामले में एक जघन्य अपराध की जांच कर रही है,इसलिए उसे अपराध की जांच करते समय पूरी जिम्मेदारी के साथ कार्रवाई करनी चाहिए। महिलाओं व बच्चों के खिलाफ किए गए जघन्य अपराध की जांच करते समय किसी भी तरह की ढिलाई या शिथिलता के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे मामलों में त्रुटि का मार्जिन शून्य होना चाहिए।''

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    20.अनुच्छेद 21 के तहत बलात्कार, पीड़िता के मौलिक अधिकार का उल्लंघनः गुवाहाटी हाईकोर्ट

    संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत बलात्कार, पीड़िता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। यह कहते हुए गुवाहाटी हाईकोर्ट ने एक बीस वर्षीय लड़की से बलात्कार करने के मामले में दोषी करार दिए एक व्यक्ति की तरफ से दायर अपील को खारिज कर दिया था। न्यायमूर्ति रूमी कुमारी फुकन ने कहा था कि बलात्कार महिला के श्रेष्ठ सम्मान के लिए एक गंभीर आघात है और इसी तरह पूरे समाज के खिलाफ भी एक अपराध है।

    न्यायमूर्ति रूमी कुमारी फुकन ने सजा के खिलाफ दायर अपील को खारिज करते हुए कहा था कि,''इस तरह का अपराध होते ही एक महिला की पवित्रता भंग हो जाती है। जबकि सभ्य समाज में, सम्मान या प्रतिष्ठा एक बुनियादी अधिकार है। समाज का कोई भी सदस्य इस विचार की कल्पना नहीं कर सकता है कि वह एक महिला के सम्मान में एक खोखलापन पैदा कर सकता है। ऐसी सोच न केवल निराशाजनक है, बल्कि निंदनीय भी है। युवा उत्तेजना और क्षणिक आनंद पाने के लिए एक व्यक्ति की ओर से किया गया यह प्रयास, पीड़ित के पूरे शरीर और दिमाग पर विनाशकारी प्रभाव ड़ालता है।

    यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस तरह के अपराध एक महिला की गरिमा को कम करते हैं और उसकी प्रतिष्ठा को खतरे में डालते हैं। न्यायालय इस बात से अवगत हैं कि बलात्कार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले पीड़िता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। वहीं सबसे घृणित अपराध होने के नाते, बलात्कार एक महिला के श्रेष्ठ सम्मान के लिए एक गंभीर आघात हैै और इसी तरह पूरे समाज के खिलाफ भी एक अपराध है।''

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    21. एनसीसी एक्ट-''एक व्यक्ति को केवल इस आधार पर वैध अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह एक ट्रांसजेंडर है'', केरल हाईकोर्ट का अवलोकन

    '' किसी व्यक्ति को केवल इस आधार पर एक वैध अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह एक ट्रांसजेंडर है'', न्यायमूर्ति देवन रामचंद्रन की पीठ ने एक ट्रांसवुमन द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही थी। इस याचिका में राष्ट्रीय कैडेट कोर अधिनियम, 1948 की धारा 6 को अवैध और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 व 21 के अल्ट्रा वाइरस घोषित करने की मांग की गई थी। इस अधिनियम को इस हद तक चुनौती दी गई थी कि यह ट्रांसजेंडर समुदाय को राष्ट्रीय कैडेट कोर के साथ नामांकन से बाहर कर देता है।

    न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश पारित करते हुए कहा था कि वह राज्य की उन दलीलों को स्वीकार नहीं कर सकता है कि केरल में ट्रांसजेंडर नीति सभी विधियों पर लागू होती है। इसलिए, एक व्यक्ति को केवल इस आधार पर एक वैध अधिकार से इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह एक ट्रांसजेंडर है।

    केसः हिना हनीफा बनाम केरल राज्य व अन्य

    22.कांस्टेबल पद के लिए आवेदन करने के लिए ट्रांसजेंडर समुदाय को सक्षम करेंः पटना हाईकोर्ट ने राज्य से एक संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने को कहा

    राज्य को संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की याद दिलाते हुए पटना हाईकोर्ट ने सोमवार (14 दिसंबर) को बिहार राज्य से कहा था कि वह ट्रांसजेंडर समुदाय को कांस्टेबल के पद के लिए आवेदन करने में सक्षम बनाए।

    मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायमूर्ति एस कुमार की खंडपीठ ने केंद्रीय चयन बोर्ड के कांस्टेबल द्वारा जारी किए गए विज्ञापन का उल्लेख करते हुए कहा था कि, ''विज्ञापन से यह स्पष्ट नहीं है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 (इसके बाद अधिनियम के रूप में संदर्भित) के प्रावधानों के तहत आने वाले व्यक्ति भी पद के लिए आवेदन कर सकते हैं या नहीं। विज्ञापन केवल पुरुष या महिला होने के लिए आवेदकों का लिंग निर्दिष्ट करता है।''

    न्यायालय ने राज्य को निर्देश दिया था कि वह ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों के लिए आवेदन आमंत्रित करने के लिए अंतिम उपाय करे और अंतिम तिथि को ऐसे समय और अवधि के लिए बढ़ाए जाने का निर्देश दिया जाए, क्योंकि राज्य यह निर्धारित करने के लिए संभव और उपयुक्त है।

    महत्वपूर्ण रूप से न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि, ''प्रथम दृष्टया हमने पाया है कि ट्रांसजेंडर समुदाय से संबंधित व्यक्ति कांस्टेबल के पद के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया से पूरी तरह से बाहर हो जाते हैं, बहुत कम आरक्षण के अपने अधिकार का प्रयोग कर पाते हैं।''

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    23.ट्रांसजेंडर पीड़ित खुद को महिला के रूप में मानती है- अभियोजन पक्ष ने अभियुक्त के खिलाफ प्रोअबिशन आॅफ हरैस्मेंट आॅफ वूमन एक्ट लगाकर सही कियाःमद्रास हाईकोर्ट

    न्यायमूर्ति जीआर स्वामीनाथन की खंडपीठ ने एक मामले में कहा था कि अभियोजन पक्ष ने आरोपी के खिलाफ तमिलनाडु प्रोअबिशन आॅफ हरैस्मेंट आॅफ वूमन एक्ट, 2002 के तहत शिकायत दर्ज करके सही किया था क्योंकि शिकायतकर्ता/ विक्टिम (ट्रांसजेंडर) नेका खुद को महिला के रूप में देखती है।

    न्यायालय ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014) 5 एससीसी 483 के मामले में कहा था कि यह पूरी तरह से ट्रांसजेंडर व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने लिंग की पहचान कैसे करती है और यह आत्मनिर्णय है,जिस पर दूसरों द्वारा सवाल नहीं उठाया जा सकता है।

    डिफैक्टो शिकायतकर्ता (नेका) का मामला यह है कि घटना की तारीख पर, याचिकाकर्ता-अभियुक्त उसके कमरे में घुस गया था और जब उसने इस पर आपत्ति की तो उसने गंदी भाषा में उसके साथ दुर्व्यवहार किया। याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत के सामने कहा था कि शिकायतकर्ता एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति है और इसलिए यह अभियोजन पक्ष के लिए ओपन नहीं था कि वह तमिलनाडु प्रोअबिशन ऑफ हरैस्मेंट ऑफ वूमन एक्ट, 2002 के प्रावधानों को लागू करे।

    केसःएम श्रीनिवासन बनाम राज्य व नेका

    24.समलैंगिक दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध अवैध नहीं, उन्हें बिना शादी के भी एक साथ रहने का अधिकारः उत्तराखंड हाईकोर्ट

    पीठ ने कहा था कि- ''इस केस की पक्षकार ,जो एक ही लिंग से संबंधित हैं और साथ में रह रही थी। भले ही इस कारण से वह शादी करने में सक्षम नहीं हैं ,लेेकिन फिर भी उन्हें यह अधिकार मिला हुआ है कि वह शादी किए बिना भी साथ रह सकती हैं। यहां पर यह उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि लिव-इन रिलेशनशिप को अब विधायिका द्वारा भी मान्यता दे दी गई है। जिस कारण उसने प्रोटेक्शन आॅफ वूमन फ्राम डोमेस्टिक वाइअलेंस एक्ट के प्रावधानों के तहत अपना स्थान बना लिया है या उनके तहत आ गया है।''

    न्यायमूर्ति शरद कुमार शर्मा की पीठ ने यह टिप्पणी एक मधुबाला की तरफ से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका पर सुनवाई के दौरान की थी। उसने आरोप लगाया था कि उसकी कथित पाटर्नर मीनाक्षी को उसकी मां व भाई ने बंधक बना रखा है।

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    25. केवल वह यौन संभोग जिसका महिला स्वागत करती है, सहमति के रूप में माना जा सकता है

    केरल हाईकोर्ट ने कहा था कि ऐसे यौन संबंध जो मान्य हैं, सिर्फ उन्हीं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे पीड़िता के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते और उन्हें ही सहमतिपूर्ण माना गया है।

    अदालत ने कहा था कि आरोपी की इच्छा के अनुसार पीड़ित लड़की की ओर से आरोपी के सामने आत्मसमर्पण करने को संभोग की सहमति के रूप में नहीं माना जा सकता है।

    न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार ने कहा था कि,''जब कोई महिला बलात्कार का आरोप लगाती है तो उसके बचाव में महिला की सहमति की बात के लिए इसमें स्वैच्छिक भागीदारी का होना जरूरी है,जो प्रतिरोध और सहमति के बीच मुक्त चुनाव है। दूसरे शब्दों में, एक आपराधिक व्यक्ति के बलात्कार जैसे कार्य से छुटकारा पाने के लिए सहमति निश्चित रूप से तर्कसंगत होगी क्योंकि मस्तिष्क ने तराजू के दोनों पलड़े की तरह अच्छे और बुरे को तौला होगा और इस क्रम में वह अपनी ताकत का खयाल रखते हुए अपनी इच्छा और आनंद के अनुरूप सहमति वापस लेने की ताकत का ध्यान रखा होगा।''

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    26. माता-पिता अपनी शर्तों पर जीवन जीने के लिए एक बच्चे को मजबूर नहीं कर सकते हैं और हर वयस्क को अपनी शर्तों पर जीवन जीने का अधिकार हैः पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    यह देखते हुए कि ''माता-पिता एक बच्चे को अपनी शर्तों पर जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं और यह कि प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को अपना वैसा जीवन जीने का अधिकार है जैसा कि उसे उचित लगता है'', हाईकोर्ट ने एक कपल के लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के अधिकार को बरकरार रखा था।

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    27. साथी चुनने के लिए महिला के अधिकार को बरकरार रखने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माता-पिता की आपत्तियों की परवाह किए बिना एक महिला के साथी चुनने के अधिकार की रक्षा करने वाले आदेशों की एक श्रृंखला पारित की है। इन मामलों से संबंधित विस्तृत रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है।

    28. दिल्ली हाईकोर्ट ने अलग-अलग धर्म से संबंध रखने वाले कपल को संरक्षण दिया

    दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक इंटरफेथ कपल के बचाव में आया था, जिसने कोर्ट से सुरक्षा दिलाए जाने की मांग की थी क्योंकि उनको निहित स्वार्थों के चलते विजलैंटी ग्रुप द्वारा परेशान किया जा रहा था और धमकी दी जा रही थी और और यहां तक कि अधिकारियों की तरफ से भी उनको डराने व प्रताड़ित करने की आशंका जाहिर की गई थी।

    29.महिला कर्मचारियों के लिए पीरियड लीव की मांगः दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से कहा कि याचिका पर प्रतिनिधित्व के रूप में विचार करें

    मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जालान की एक खंडपीठ ने भारत संघ को उस याचिका पर प्रतिनिधित्व के रूप में विचार करने के लिए कहा था,जिसमें पीरियड लीव और समय-समय पर आराम करने कह सुविधा,अलग-अलग व स्वच्छ शौचालय और मासिक धर्म के दौरान महिला कर्मचारियों को सेनेटरी नैपकिन उपलब्ध कराने का प्रावधान करने के लिए निर्देश जारी करने की मांग की गई थी।

    यह जनहित याचिका दिल्ली लेबर यूनियन द्वारा दायर की गई थी। जिसमें मांग की गई थी कि दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार द्वारा विशेष आकस्मिक अवकाश/पेड लीव के साथ-साथ महिला कर्मचारियों के लिए अलग और स्वच्छ शौचालय सुविधा, आवधिक आराम और महिला कर्मचारियों को मासिक धर्म की अवधि के दौरान मुफ्त सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराने के लिए एक नीति तैयार की जाए।

    30.काले रंग के कारण पत्नी पर किया गया अत्याचार धारा 498 ए के तहत अपराध हैः कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने माना था कि पति और ससुराल वालों द्वारा डार्क कॉम्प्लेक्सन के कारण पत्नी के खिलाफ क्रूरता करना भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498 ए के तहत अपराध माना जाएगा।

    अदालत ने पत्नी की हत्या के मामले में एक व्यक्ति की सजा को बरकारार रखते हुए कहा था कि, ''ससुराल वालों द्वारा शादी के बाद भी मृतक पीड़िता के साथ उसके काले रंग के कारण क्रूरता करना, निश्चित रूप से आरोपी पति सहित ससुराल वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए/34 को आकर्षित करेगा।''

    जस्टिस साहिदुल्लाह मुंशी और सुभासिस दासगुप्ता की खंडपीठ शादी के लगभग 7 महीने बाद पीड़िता की मौत के मामले में पति और उसके परिवार के सदस्यों की दी गई सजा के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी।

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