समलैंगिक दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध अवैध नहीं, उन्हें बिना शादी के भी एक साथ रहने का अधिकार : उत्तराखंड हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

20 Jun 2020 7:30 AM GMT

  • समलैंगिक दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध अवैध नहीं, उन्हें बिना शादी के भी एक साथ रहने का अधिकार : उत्तराखंड हाईकोर्ट

    Uttarakhand High Court

    उत्तराखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में वयस्क समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, जिसमें वह अपनी पसंद का जीवनसाथी चुन सकते हैं और अपने माता-पिता या समाज के किसी भी दबाव के बिना एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं।

    न्यायमूर्ति शरद कुमार शर्मा ने कहा कि-

    ''एक ही लिंग के या समलैंगिक दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए यौन संबंध, हमारी समझ में अब अवैध नहीं है या फिर यह कोई अपराध भी नहीं हो सकता है क्योंकि यह एक मौलिक अधिकार है, जिसकी गारंटी भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर व्यक्ति को दी गई है,जो इसके दायरे केे तहत विरासत में मिला है।

    वहीं यह अपने आयाम में इतना विस्तृत भी है कि किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पहचान और अपनी पसंद के साथी के साथ यौन संबंध स्थापित करने के बारे में स्वंय निर्णय लेने के मूलभूत या अंतर्निहित अधिकार की रक्षा कर सकें।''

    कोर्ट ने यह टिप्पणी एक मधुबाला की तरफ से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका पर सुनवाई के दौरान की हैं। उसने आरोप लगाया था कि उसकी कथित पाटर्नर मीनाक्षी को उसकी मां व भाई ने बंधक बना रखा है।

    हालांकि इस याचिका को खारिज कर दिया गया है क्योंकि मीनाक्षी ने याचिकाकर्ता के साथ अपने कथित संबंधों को जारी रखने के मामले में अनिच्छा दिखाई थी। हालांकि अदालत ने समलैंगिक जोड़ों के एक साथ रहने के अधिकारों के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणी की।

    पीठ ने कहा कि-

    '' इस केस की पक्षकार ,जो एक ही लिंग से संबंधित हैं और साथ में रह रही थी। भले ही इस कारण से वह शादी करने में सक्षम नहीं हैं ,लेेकिन फिर भी उन्हें यह अधिकार मिला हुआ है कि वह शादी किए बिना भी साथ रह सकती हैं। यहां पर यह उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि लिव-इन रिलेशनशिप को अब विधायिका द्वारा भी मान्यता दे दी गई है। जिस कारण उसने प्रोटेक्शन आॅफ वूमन फ्राम डोमेस्टिक वाइअलेंस एक्ट के प्रावधानों के तहत अपना स्थान बना लिया है या उनके तहत आ गया है।''

    पीठ ने आगे टिप्पणी करते हुए कहा कि इस तरह के मामलों में फैसला करते समय अदालत को स्वयं को सामाजिक रीति-रिवाजों में शामिल नहीं करना चाहिए। यह माना गया है कि स्वतंत्रता का अधिकार और पसंद की स्वतंत्रता ''संवैधानिक मूल्य'' हैं जिन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता है।

    ''... सामाजिक मूल्य और नैतिकता के पास अपना स्थान है, लेकिन वे किसी देश के नागरिक को सौंपी गई स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी से ऊपर नहीं हैं। यह स्वतंत्रता एक संवैधानिक अधिकार होने के साथ-साथ एक मानव अधिकार भी है। इसलिए एक रिट कोर्ट द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग इस तरह नहीं करना चाहिए कि वह वैवाहिक जीवन के लिए अपनी पंसद का साथी चुनने के निर्णय करने के अधिकार का उल्लंघन कर दें। यह निर्णय विशेष रूप से हर व्यक्ति से जुड़ा होता है,जिसमें राज्य, समाज या न्यायालय भी दखल नहीं दे सकता है।''

    कोर्ट ने यह भी कहा कि-'

    'यह हमारे संविधान द्वारा प्रदान की गई ताकत है, जो संस्कृति की बहुलता और विविधता की स्वीकृति में निहित है। शादी की अंतरंगता या इसका निर्णय( जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा अपने जीवन साथी का चुनाव करना,उसे किससे शादी करनी है या किससे नहीं या फिर उसे शादी करनी भी है या नहीं आदि शामिल हैं ) एक ऐसा पहलू है जो विशेष रूप से राज्य या समाज के नियंत्रण से बाहर हैं।''

    सेनी गेरी बनाम गेरी डगलस एआईआर 2018 एससी 346 मामले में सर्वोच्च द्वारा की गई निम्नलिखित टिप्पणियों का हवाला भी दिया है, जो इस प्रकार हैं-

    ''यह बताने के लिए किसी विशेष जोर की आवश्यकता नहीं है कि किसी व्यक्ति के जीवन में व्यस्क होने का अपना महत्व है। इसके बाद वह अपनी पसंद बनाने हकदार हो जाता है। बेटी भी अपनी स्वतंत्रता का आनंद लेने की हकदार है क्योंकि कानून इसकी अनुमति देता है। इसलिए अदालतें माता या पिता की किसी भी प्रकार की भावनाओं या ईगो से प्रेरित होकर एक सुपर अभिभावक की भूमिका में नहीं आ सकती हैं। हम बिना किसी हिचक के ऐसा कह रहे हैं।''

    इसके बाद अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि वर्तमान जैसे मामले में कोर्ट को सिर्फ बंधक या हिरासत में रखे गए व्यक्ति के बयान के आधार पर आगे बढ़ना चाहिए।

    कोर्ट ने कहा कि-

    ''संवैधानिक स्वतंत्रता के एक धारक के रूप में अदालत को उस संबंध को सुरक्षित करना होगा जिसमें पंसद का अधिकार विशेष रूप से एक वयस्क व्यक्ति के साथ निहित है। साथ ही अदालत को उसके समक्ष व्यक्तिगत तौर पर दर्ज कराए गए बयानों पर आधार पर इस संबंध का सम्मान करना होगा।

    इस प्रकार की परिस्थितियों में, विशेष रूप से बंधक द्वारा दिया गया बयान ही सबसे महत्वपूर्ण होता है,जिस पर ऐसे मामलों में फैसला देते समय विचार करना चाहिए। चूंकि ऐसे मामलों में बंधक ही यह बताएगा कि उसे जबरन बंधक बनाया गया था या नहीं और यह भी बताएगा कि उसका याचिकाकर्ता के साथ सहमति से या समलैंगिक संबंध था या नहीं।''

    वर्तमान मामले में, बंधक या हिरासत में रखी गई लड़की ने याचिकाकर्ता के साथ रहने से इंकार कर दिया है। साथ ही उसने बताया कि उसका मां व भाई ने उस पर कोई दबाव नहीं ड़ाला है।

    इसलिए कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि-

    ''पूर्वोक्त कथनों और रिकॉर्ड पर दिए गए शपथपत्र के मद्देनजर, इस बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया गया है। चूंकि आज इस अदालत के समक्ष स्वयं हिरासत में रखी गई लड़की ने अपने बयान दर्ज कराएं है। जिसमें उसने बताया है कि उस पर कोई दबाव नहीं है। न ही प्रतिवादी नंबर 4 व 5 ने उसे जबरन हिरासत में या बंधक बनाकर रखा है। इसलिए इस बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका को खारिज किया जा रहा है।''

    याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व एडवोकेट अभिजय नेगी ने किया था। राज्य का प्रतिनिधित्व डिप्टी एडवोकेट जनरल संदीप टंडन व साथ में ममता जोशी ने किया। बाकी प्रतिवादियों की तरफ से एडवोकेट जयवर्धन कांडपाल पेश हुए।


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