'समर्पण को सहमतिपूर्ण यौन संबंध कभी नहीं माना जा सकता : केरल हाईकोर्ट ने बलात्कार के दोषी की सज़ा बरकरार रखी

LiveLaw News Network

6 July 2020 1:30 PM GMT

  • समर्पण को सहमतिपूर्ण यौन संबंध कभी नहीं माना जा सकता : केरल हाईकोर्ट ने बलात्कार के दोषी की सज़ा बरकरार रखी

    केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि ऐसे यौन संबंध जो मान्य हैं, सिर्फ उन्हीं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे पीड़िता के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते और उन्हें ही सहमतिपूर्ण माना गया है।

    आरोपी के ख़िलाफ़ मामला यह था कि उसने एक नाबालिग लड़की से फ़रवरी 2009 में बलात्कार किया और बाद में भी ऐसा करता रहा। यह लड़की अनुसूचित जाति की है। ट्रायल कोर्ट ने उसे आईपीसी की धारा 376 के तहत बलात्कार का दोषी माना। ट्रायल कोर्ट ने पाया कि अभियोजन लड़की की उम्र का निर्धारण नहीं कर पाया और यह साबित नहीं कर पाया कि यह मामला आईपीसी की धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा के तहत छठे वर्णन के अधीन आता है, जैसा कि वह उस समय था।

    आरोपी ने कहा कि यह यौन संबंध सहमति से हुआ था। यह कहा गया कि लड़की ने माना कि वह आरोपी के घर आती थी और जब भी आरोपी की इच्छा होती थी, वह उसके साथ यौन संबंध बनाता था।

    न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार ने कहा,

    "जब कोई महिला बलात्कार का आरोप लगाती है तो उसके बचाव में महिला की सहमति की बात के लिए इसमें स्वैच्छिक भागीदारी का होना ज़रूरी है …जो प्रतिरोध और सहमति के बीच मुक्त चुनाव है। दूसरे शब्दों में, एक आपराधिक व्यक्ति के बलात्कार जैसे कार्य से छुटकारा पाने के लिए सहमति निश्चित रूप से तर्कसंगत होगी क्योंकि मस्तिष्क ने तराज़ू के दोनों पलड़े की तरह अच्छे और बुरे को तौला होगा और इस क्रम में वह अपनी ताक़त का ख़याल रखते हुए अपनी इच्छा और आनंद के अनुरूप सहमति वापस लेने की ताक़त का ध्यान रखा होगा।"

    कोर्ट ने आगे कहा कि बलात्कार जैसी यौन हिंसा यौनिक असमानता के अपराध हैं। सामाजिक वास्तविकता में, महिला वास्तव में जिस यौन संबंध की इच्छा रखती है उसे कभी भी सहमतिपूर्ण नहीं कहा जाता क्योंकि जब कोई यौन संबंध बराबरी का होता है तब सहमति की ज़रूरत नहीं होती है और जब यह असमान होता है उस स्थिति में सहमति उसे बराबरी का नहीं बना सकती।

    पीठ ने इस संबंध में मेरिटोर सेविंज़ बैंक, एफएसबी बनाम मीशेल विन्सन एवं अन्य [477 US. 57 (1986)], मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का भी ज़िक्र किया।

    अदालत ने कहा,

    "दूसरे शब्दों में, हमारे जैसे देश, जो जेंडर समानता के लिए प्रतिबद्ध है, सिर्फ़ ऐसे यौन संबंध जो मान्य हैं, सिर्फ़ उन्हें ही पीड़ित के अधिकारों का हनन नहीं करने वाला कहा जा सकता है और सहमति के रूप में स्वीकार किया जाता है।"

    अदालत ने कहा कि जो साक्ष्य अदालत में पेश किए गए हैं उसके अनुसार, पीड़िता सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दर्जे की वजह से ख़तरे में थी। जब परिस्थिति इस प्रकृति की हो, तो पीड़ित लड़की का आरोपी व्यक्ति के समक्ष उसकी इच्छा के अनुरूप समर्पण को कभी भी सहमति से होने वाला यौन संबंध नहीं कहा जा सकता।

    इस अपील को खरिज करते हुए और आरोपी की सज़ा को बरकरार रखते हुए कोर्ट ने एक अमेरिकी मनोचिकित्सक और अभिघात लगने के कारण पैदा होने वाले तनाव के शोधकर्ता जूडिथ लेविस हर्मन को भी उद्धृत किया -

    "जब कोई महिला पूरी तरह शक्तिहीन होती है और किसी भी तरह के प्रतिरोध का कोई मतलब नहीं होता है, तो वह आत्मसमर्पण की स्थिति को स्वीकार कर सकती है। स्व-रक्षा की व्यवस्था पूरी तरह बंद हो चुकी होती है। यह निस्सहाय महिला इस दुनिया में वास्तविक रूप से अपने प्रतिरोध से नहीं बल्कि अपनी चेतना को बदलकर वह इससे बचती है....."।

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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