स्तंभ
महामारी रोग अधिनियम, 1897: COVID 19 का मुकाबला करने के लिए लाया गया 123 वर्ष पुराना कानून [व्याख्या]
COVID-19 के आसन्न खतरे का मुकाबला करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लागू एपेडेमिक डिसीसेज एक्ट यानी महामारी रोग अधिनियम, 1897 एक विशेष कानून है, जिससे सरकार को विशेष उपायों को अपनाने और कठोर नीतियों को लागू करने के लिए सशक्त बनाया जा सके, ताकि किसी भी खतरनाक महामारी के प्रकोप को रोका जा सके। यह कानून, जो सरकार को निर्धारित उपायों के उल्लंघन में पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति को कैद करने का अधिकार देता है, को पहली बार 1896 में तत्कालीन बॉम्बे में फैले बुबोनिक प्लेग को नियंत्रित...
क्या साध्य, साधन की पवित्रता तय करेंगे? पोलिश छात्र के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय की हानिप्रद व्याख्या
(स्वप्निल त्रिपाठी)कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें विदेशियों के क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय, कोलकाता की ओर से भारत में पढ़ रहे एक पोलिश नागरिक को दिए गए भारत छोड़ने के नोटिस ( Leave India Notice या LIN) को रद्द कर दिया। पोलिश नागरिक को हालिया नागरिक संशोधन कानून के विरोध में आयोजित राजनीतिक रैलियों में शामिल होने के कारण कथित रूप से वीजा शर्तों का उल्लंघन करने के आरोप में भारत छोड़ने का नोटिस दिया गया था, जिसे उसने उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। उसका...
पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई का राज्यसभा जाना : न्यायपालिका और विधायिका का बेमेल मिलन एवं अन्य असहमतियां
यह बात समझ से परे है कि जो व्यक्ति, उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में न्याय की मूर्ती के तौर पर पद ग्रहण करते हुए, संविधान एवं विभिन्न कानूनों की व्याख्या करते हुए न्याय कर रहे होते हैं, और सवा सौ करोंड़ लोगों का भाग्य तय कर रहे होते हैं, वो लोग अपनी सेवानिवृत्ति के बाद स्वयं के हित को क्यों अपनी प्रामाणिकता एवं सत्यनिष्ठा से ऊपर रख देते हैं?
जानिए मास्क और सैनिटाइज़र को 'आवश्यक वस्तु' घोषित करने के क्या हैं मायने? इससे क्या बदल जाएगा?
COVID-19 (नॉवेल कोरोनावायरस) के फैलने पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार ने बीते शुक्रवार को मास्क और हैंड सैनिटाइज़र को 30 जून, 2020 तक "आवश्यक वस्तुएं" घोषित किया था।केंद्र सरकार और राज्य सरकार (प्रतिनिधिमंडल द्वारा) को मास्क (2 प्लाई और 3 प्लाई सर्जिकल मास्क, एन 95 मास्क और सैनिटाइज़र) के उत्पादन, गुणवत्ता और वितरण को विनियमित करने के लिए इन्हें आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के तहत रखा गया था।बीते समय में हम सभी अपने निजी अनुभव से इस बात का एहसास कर पा रहे थे कि बाज़ार में मास्क और सैनिटाइज़र के...
उत्तर प्रदेश बैनर मामला : सुप्रीम कोर्ट के मामले को बड़ी बेंच को भेजने के आदेश के निहितार्थ
मनु सेबेस्टियन सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश बैनर के मामले को बड़ी पीठ से सुनवाई का जो आदेश दिया है उसमें वह गंभीरता नहीं दिखाई देती है जो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में दिखाई है। इलाहाबाद हाईकोर्ट का मानना है कि इससे नागरिकों का मौलिक अधिकार प्रभावित होता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन बैनरों को तत्काल प्रभाव से हटा लेने को कहा जिन्हें उत्तर प्रदेश प्रशासन ने लगाया है, जिनमें उन लोगों के नाम, पाते और फ़ोटो दिए गए हैं जिन पर सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के दौरान हिंसा में शामिल होने का आरोप...
कोर्ट रूल्स एवं आरटीआई : सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सूचना का अधिकार कमजोर हुआ
शैलेष गांधीआरटीआई कानून पर कोर्ट रूल्स को अधिक महत्व दिये जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सूचना के अधिकार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने 'मुख्य सूचना आयुक्त बनाम गुजरात हाईकोर्ट' के मामले में चार मार्च 2020 को एक फैसला सुनाया है। इसका नागरिकों के सूचना के अधिकार (आरटीआई) के मौलिक अधिकार पर बहुत बुरा असर होगा। कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई नागरिक न्यायिक कार्यवाही से संबंधित कोई दस्तावेज हासिल करना चाहता है तो वह आरटीआई के जरिये इसे हासिल नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट और सभी...
आखिर क्यों उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा प्रदर्शनकारियों से सम्बंधित पोस्टर/बैनर लगाना है 'अत्यधिक अन्यायपूर्ण'? कुछ विचार
बीते सोमवार को उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार को गंभीर झटका देते हुए, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लखनऊ में उत्तर-प्रदेश पुलिस द्वारा लगाए गए सभी पोस्टरों और बैनरों को हटाने का आदेश दिया था। दरअसल, इन बैनरों में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध प्रदर्शन के दौरान कथित तौर पर हिंसा फैलाने के आरोपी व्यक्तियों के नाम, उनका पता, उनके पिता का नाम और फोटो लगाये गए थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा की खंडपीठ ने इस सम्बन्ध...
क्या एक जज का प्रधानमंत्री की सराहना करना नैतिक है?
अनुराग भास्करसुप्रीम कोर्ट की मेजबानी में 22-23 फरवरी को एक अंतरराष्ट्रीय न्यायिक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया, जिसका विषय था- 'न्यायपालिका व बदलती दुनिया'। भारतीय और विदेशी जजों के बीच विचारों का संवाद सहज बनाना कान्फ्रेंस का उद्देश्य था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में की गई जस्टिस अरुण मिश्रा की एक टिप्पणी ने बीस से अधिक देशों (यूनाइटेड किंगडम और ऑस्ट्रेलिया सहित) के जजों को न्यायिक नैतिकता और औचित्य के विषयों पर विचार करने को मजबूर किया होगा, जबकि यह सम्मेलन का एजेंडा नहीं...
सलाम बॉम्बे : सामूहिक हिंसा के दौर में चाइल्ड इन नीड ऑफ़ केयर एंड प्रोटेक्शन की कहानी
"क्यों एक व्यक्ति जिसने एक अमानवीय जघन्य अपराध किया है, उसे एक वयस्क व्यक्ति से कम सजा दी जाये, मात्र इसलिए कि वह अभी तक 18 साल का नहीं हुआ है?" यह सवाल मैंने पहली बार लॉ स्कूल के दौरान जेजे एक्ट (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट) पर एक ट्रेनिंग प्रोग्राम में एक पब्लिक प्रासिक्यूटर द्वारा सुना। तब से यह सवाल मैंने बार-बार सुना है। क्यों 18 साल से कम उम्र के बाल अपराधियों को वयस्कों की तरह न माना जाए और उसी मुताबिक़ सजा न दी जाए? ये आवाज बार-बार उठी है और इसीलिए सरकार ने भी जेजे एक्ट की मूल भावना को...
चिन्मयानन्द जमानत : रेप मिथकों और पूर्वग्रहों पर आधारित बेल ऑर्डर
इलाहबाद हाईकोर्ट ने पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानन्द को 3 फरवरी को जमानत दे दी। चिन्मयानन्द पर 23 वर्षीय LLM छात्रा के बलात्कार का आरोप है। पीड़िता उस विश्विद्यालय से LLM कर रही थी जहां चिन्मयानन्द डायरेक्टर है। गौरतलब है कि डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज, शाहजांहपुर ने इस मामले में चिन्मयानन्द की जमानत अर्जी खारिज कर दी थी।मेरा यह मत है कि हाईकोर्ट का ऑर्डर कानूनी रूप से अरक्षणीय है यह जमानत ऑर्डर, एक जमानत ऑर्डर के स्कोप और जमानत देते वक़्त कौन-कौन से कारक आवश्यक है- इस बात की अनदेखी करता है।...
मोहन जोशी हाज़िर हो : उम्मीदों और कोर्ट तारीखों के बीच एक आम आदमी की कहानी
न्याय में देरी, न्याय से वंचित किये जाने के समान है (Justice delayed is justice denied)- यह बात हम सब शायद इतनी बार सुन चुके हैं कि अब इसे दोहराना निरर्थक, प्रभावहीन और बिलकुल रेगुलर सा लगता है. लेकिन इस उद्धरण से यह बात साफ़ होती है कि 'समय' और 'न्याय' का निश्चित तौर पर गहरा ताल्लुक है। अगर न्याय समय पर निश्चित नहीं किया जाये तो वह कहां तक न्याय है- यह सोचने का विषय है। यह बात हममें से किसी के लिए नई नहीं है कि हमारा सिस्टम लंबित फाइलों और विलम्बित न्याय से संघर्ष कर रहा है। हालांकि नेशनल...
वकील इस तरह बनाएं मुवक्किल के साथ अपने संबंध बेहतर, कुछ सुझाव
वकालत करने वाला हर शख्स इस बात को समझता है कि एक वकील को अपने मुवक्किल के प्रति विश्वास एवं वफादारी का प्रदर्शन करना चाहिए। इस तरह का संबंध यह सुनिश्चित करता है कि वकील हर समय अपने मुवक्किल के हितों को निरंतर आगे बढाता रहे। वकीलों को हितों के टकराव से बचने की कोशिश करनी चाहिए अन्यथा मुवक्किल को न्याय दिलाने में खलल पड़ सकता है। किसी भी परिस्थिति में मुवक्किल के हित को वकील द्वारा कमजोर नहीं किया जाना चाहिए। एक मुवक्किल के लिए न्याय तक पहुंच का मतलब अनिवार्य रूप से एक वकील तक पहुंच से भी है।...
26 जनवरी - गण के अधिकारों से कर्तव्यों तक
किसी देश का संविधान उसके नागरिकों का गौरव होता है। आप कल्पना करें यदि किसी राष्ट्र का संविधान न हो तो वहां का शासन कितना उच्छृंखल हो सकता है। जब हम भारतीय संविधान की बात करते हैं तो हम केवल वर्तमान संविधान का जिक्र नहीं कर रहे होते बल्कि भारतीय परम्पराओं, उसकी आस्था और व्यवस्थाओं तक की चर्चा करते हैं। संविधान किसी देश का सर्वोच्च विधान या संहिता है। इन दोनों शब्दों को यदि समझ लें तो संविधान को समझना कठिन न होगा। संस्कृत शब्द विधि से विधान बना है, विधि यानी कानून। कुछ नियम जिनके दायरों में रहकर...
म्यांमार के भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून और नरसंहार से सबक
मनु सेबेस्टियनइंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने रोहिंग्या नरसंहार के मामले में अफ्रीकी देश द गाम्बिया द्वारा दायर एक अपील पर म्यांमार के खिलाफ एक महत्वपूर्ण फैसला दिया है। यह फैसला म्यांमार के आधिकारिक रुख के लिए तगड़ा झटका है, जिसने रोहिंग्या मुसलमानों की पहचान और अस्तित्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत ने माना है कि रोहिंग्या जेनोसाइट कन्वेंशन की परिभाषा के तहत "संरक्षित समूह" हैं। कोर्ट ने म्यांमार को रोहिंग्याओं के संरक्षण का उपाय करने के लिए अस्थायी आदेश...
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के ख़िलाफ़ चुनौतियां : बुनियादी बहसों से आगे की बात
अभी तक नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के ख़िलाफ़ बहस इन दलीलों के इर्द गिर्द रही है : (a) क्या सिर्फ़ कुछ चुनिंदा आप्रवासियों को नागरिकता देना और जिन व्यक्तियों और समूहों को बाहर रखा गया है उसकी वजह से यह अनुच्छेद 14 के तहत "वाजिब वर्गीकरण" के सिद्धांत का उल्लंघन करता है या नहीं?; (b) क्या किसी समूह को चुनना "निर्धारण के सिद्धांत"को नज़रंदाज़ करता है, और इस वजह से क्या यह असंवैधानिक रूप से मनमाना है?; और (c) नागरिकता के दावे के लिए धार्मिक उत्पीड़न को अन्य किसी भी तरह के उत्पीड़न पर वरीयता...
अनुच्छेद 19 और इंटरनेट : आजादी की हद तय हो
यह सबसे शानदार समय था और सबसे खराब वक्त भीकई बार, यह ज्ञान का युग था, यह मूर्खता का भी युगयह विश्वास का युग था, यह अविश्वास का भी युगयह उजाले का भी मौसम था, और अंधेरे का भीयह उम्मीदों का वसंत था और निराशा की सर्दियांहमारे सामने सब कुछ था और कुछ भी नहीं था,हम सीधे स्वर्ग जा रहे थे, हम दूसरे रास्ते से भी जा रहे थेयह वक्त अपने वर्तमान से काफी दूर थाअब कोलाहलपूर्ण वक्त में जीने के लिए मजबूरअच्छा हो या बुरा, जो भी है अति है।19वीं सदी के ब्रिटिश लेखक चार्ल्स डिकंस के उपन्यास 'ए टेल ऑफ टू सिटीज' की इन...
किसी प्रकरण में पुलिस कब पेश करती है खात्मा रिपोर्ट?
हम देखते हैं कि कई मामलों में पुलिस खात्मा रिपोर्ट पेश करती है। आखिर क्या है यह खात्मा रिपोर्ट और वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जब पुलिस खात्मा रिपोर्ट पेश करती है। दंड प्रकिया सहिंता की धारा 154 के अंतर्गत पुलिस को किसी संज्ञेय अपराध के मामले प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ करने के अधिकार दिए गए हैं। जब किसी मामले में एफआईआर थाने में दर्ज हो जाती है और मामले के अन्वेषण के दौरान अन्वेषणकर्ता अधिकारी को विवेचन मामले में इतना पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिलता है, जितने में मामले में न्यायालय के...
जानिए मृत्यु वारंट क्या होता है एवं इसके निष्पादन पर क्या है कानून?
दिल्ली की एक अदालत ने मंगलवार (7 जनवरी, 2020) को निर्भया बलात्कार-हत्या मामले में चार दोषियों को फांसी की सजा के लिए 22 जनवरी को सुबह 7 बजे डेथ वारंट जारी किया है। चार दोषियों - मुकेश सिंह, पवन गुप्ता, विनय शर्मा और अक्षय सिंह को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आदेश की सूचना दी गई। पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश सतीश अरोड़ा उनके खिलाफ डेथ वारंट के निष्पादन की याचिका पर विचार कर रहे थे। इससे पहले दिसंबर 2018 में, निर्भया के माता-पिता ने दोषियों को मिले मृत्युदंड को निष्पादित...
सिविल वाद कैसे दर्ज करें, नए अधिवक्ताओं के लिए विशेष
नवीन पंजीकृत हुए अधिवक्ताओं के लिए सिविल प्रकृति के वादों को न्यायालय में संस्थित करना कठिनाई भरा काम हो सकता है। नवीन अधिवक्ता वाद की प्रकृति के अनुरूप यह तय नहीं कर पाते हैं कि वाद किस प्रकृति का है तथा इस वाद को कौन से न्यायालय में दर्ज करना है। जब वाद की प्रकृति मालूम हो जाती है तो वाद को दर्ज करने के संबंध में कठिनाई होती है। इस आलेख के माध्यम से नवीन अधिवक्ता अपने मुकदमे दर्ज करने में सहायता प्राप्त कर सकते हैं। किसी सिविल वाद को दर्ज करवाने में निम्न चरण हो सकते हैं। इन चरणों का अनुसरण...

![महामारी रोग अधिनियम, 1897: COVID 19 का मुकाबला करने के लिए लाया गया 123 वर्ष पुराना कानून [व्याख्या] महामारी रोग अधिनियम, 1897: COVID 19 का मुकाबला करने के लिए लाया गया 123 वर्ष पुराना कानून [व्याख्या]](https://hindi.livelaw.in/h-upload/2020/03/23/500x300_371620-371609-ncov1420200303630630.jpg)

















