'सभी के लिए मुफ्त टीका', सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा का शक्तिशाली प्रभाव

Manu Sebastian

8 Jun 2021 5:11 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सात जूत को दिए राष्ट्र के नाम संदेश में टीकाकरण नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव की घोषणा की और कहा कि कि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के लिए भी टीके खरीदने का फैसला किया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रधानमंत्री ने कहा कि केंद्र की मुफ्त टीकाकरण योजना का लाभ 18-44 वर्ष के आयु वर्ग तक को भी दिया जाएगा।

    टीकाकरण नीति में यह संशोधन COVID मुद्दों पर स्वत: संज्ञान मामले में सुप्रीम कोर्ट की कड़ी आलोचना के कुछ दिनों बाद आया है। उक्त मामले में जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्ट‌िस एस रवींद्र भट की पीठ ने 'उदारीकृत टीकाकरण नीति' समेत कई चिंताएं व्यक्त की थीं, जिनमें दो प्रमुख चिंताए निम्न हैं-

    (1) दोहरी मूल्य निर्धारण और खरीद नीति, जो राज्यों को निजी निर्माताओं से उन्हीं द्वारा निर्धारित मूल्य पर सीधे टीके खरीदने के लिए मजबूर करती है। कोर्ट ने समान मूल्य की आवश्यकता पर जोर देते हुए पूछा था कि राज्यों को अधिक भुगतान क्यों करना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि यह प्रथम दृष्टया भेदभावपूर्ण है, क्योंकि राज्यों के वहीं संवैधानिक दायित्व है कि, जो संघ के हैं, यानि लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करे।

    (2) केंद्र की मुफ्त टीकाकरण योजना से 18-44 वर्ष के आयु वर्ग को बाहर रखने पर- न्यायालय ने कहा कि यह प्रथम दृष्टया मनमाना और तर्कहीन है, विशेष रूप से इस तथ्य पर विचार करते हुए कि यह आयु वर्ग महामारी की दूसरी लहर में सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था।

    इस संबंध में यह ध्यान देना उल्लेखनीय है कि एक सप्ताह पहले तक टीकाकरण नीति में किसी भी संशोधन का कोई संकेत नहीं था, भले ही बहुत सारी राज्य सरकारें लगातार इसके लिए कह रही थीं। 31 मई के अंत तक केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि 'टीकाकरण नीति बिल्कुल ठीक है। सॉलिसिटर जनरल ने विदेशी वैक्सीन निर्माताओं के साथ बातचीत में सफलता की संभावना का उल्लेख करते हुए सकारात्मक प्रभाव पैदा करने का प्रयास किया था।

    यह भी ध्यान देना उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने 31 मई के आदेश में केंद्र से कई महत्वपूर्ण सवाल पूछे थे, कि -

    (1) वैक्सीन खरीद इतिहास पर पूरा डेटा प्रस्तुत करें।

    (2) अदालत के समक्ष सभी जरूरी दस्तावेज और फाइल नोटिंग पेश करें, जिसके कारण नीति बनी।

    (3) बताएं कि 35,000 करोड़ रुपये के बजटीय आवंटन का उपयोग टीके की खरीद के लिए कैसे किया गया और स्पष्ट करें कि इस राशि का उपयोग 18-44 वर्ष की श्रेणी के लिए मुफ्त टीके देने के लिए क्यों नहीं किया जा सकता है।

    यह स्पष्ट है कि अदालत ने अपनी जांच को इस हद तक बढ़ाने का फैसला इसलिए किया था क्योंकि वह केंद्र की ओर से 30 अप्रैल के आदेश में उठाए गए विशिष्ट प्रश्नों के जवाब में दायर हलफनामे से असंतुष्ट था। यह याद किया जा सकता है कि अपने 30 अप्रैल के आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने वैक्सीन नीति की कई संवैधानिक कमियों का विस्तृत वर्णन किया ‌था और प्रथम दृष्टया कहा था कि यह "जीवन और स्वास्थ्य के अधिकार के लिए हानिकारक" है। इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है और इसे संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के जनादेश के अनुरूप बनाना है।"

    "प्रथम दृष्टया, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार (जिसमें स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है) के अनुरूप आगे बढ़ने का तर्कसंगत तरीका यह है कि केंद्र सरकार को सभी टीकों की खरीद और टीका निर्माताओं के साथ कीमत पर बातचीत करनी होगी। एक बार केंद्र द्वारा प्रत्येक राज्य सरकार को मात्रा आवंटित कर दी जाती है, उसके बाद राज्य सरकारें आवंटित मात्रा को उठाती हैं और वितरण करती है। दूसरे शब्दों में, खरीद केंद्रीकृत होगी, जबकि राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के भीतर, टीकों का वितरण विकेंद्रीकृत होगा।

    जबकि हम वर्तमान नीति की संवैधानिकता पर एक निर्णायक आदेश पारित नहीं कर रहे हैं, जिस तरह से वर्तमान नीति तैयार की गई है, वह प्रथम दृष्टया सार्वजनिक स्वास्थ्य के अधिकार के लिए हानिकारक है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 का एक अभिन्न अंग है। इसलिए, हमारा मानना ​​है कि केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी वर्तमान टीका नीति पर फिर से विचार करना चाहिए कि वह अनुच्छेद 14 ए और अनुच्छेद 21 की कसौटी पर खरी उतर सके।" -30 अप्रैल का आदेश।

    31 मई के आदेश में कोर्ट ने केंद्र की ओर से पेश औचित्य पर असंतोष प्रकट किया था। उदाहरण के लिए, केंद्र ने कहा था कि टीका नीति वंचितों को प्रभावित नहीं करेगी क्योंकि सभी राज्यों ने मुफ्त टीकाकरण नीतियों की घोषणा की है।

    केंद्र ने यह भी कहा था कि मूल्य निर्धारण प्रतिस्पर्धात्मक रूप से तय किया गया था ताकि निजी कंप‌नियों को प्रोत्साहित किया जा सके। इस औचित्य पर नाराज होते हुए, अदालत ने पूछा था कि यह कैसे संभव है जबकि केवल दो निश्चित निर्माता ही हैं।

    "इस नीति का औचित्य प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना बताया गया है, जो अधिक निजी निर्माताओं को आकर्षित करेगा, जो अंततः कीमतों को कम कर सकते हैं। प्रथम दृष्टया, दो टीका निर्माताओं के साथ बातचीत के लिए एकमात्र आधार कीमत और मात्रा थी, जिन्हें केंद्र सरकार ने पूर्व-निर्धारित किया है। यह प्रतिस्पर्धी उपाय के रूप में ...केंद्र सरकार के औचित्य पर गंभीर संदेह पैदा करता है। इसके अलावा, केंद्र सरकार टीकों के लिए बड़े खरीद आदेश देने की अपनी क्षमता के कारण इसकी कम कीमतों को उचित ठहराती है, यह इस मुद्दे को उठाता है कि मासिक सीडीएल खुराक का 100% प्राप्त करने के लिए इस तर्क का उपयोग क्यों नहीं किया जा रहा है।"

    कोर्ट ने वैक्सीन की कीमतों को तय करने वाले कारकों पर भी अपने सवाल दोहराए ‌थे। कोर्ट ने पूछा था कि क्या निर्माताओं को सार्वजनिक सहायता मूल्य निर्धारण में शामिल थी। कोर्ट ने भारत और विदेशों में बेचे जाने वाले समान टीकों की कीमतों की तुलना करने की भी मांग की थी।

    मौखिक सुनवाई के दरमियान, पीठ ने कहा था कि टीके अमेरिका और यूरोप में काफी सस्ती दर पर बेचे गए थे।

    साथ ही, अदालत ने निजी अस्पतालों को आवंटित कोटा पर भी चिंता व्यक्त की थी, जो अत्यधिक कीमत पर टीके बेच रहे हैं। इस संबंध में, यह नोट करना प्रासंगिक है कि प्रधानमंत्री ने आज कहा कि टीकों के लिए निजी अस्पतालों के सेवा शुल्क को 150 रुपये तक सीमित कर दिया जाएगा।

    सुप्रीम कोर्ट ने 31 मई के आदेश में कहा था, "उदारीकृत टीकाकरण नीति के तहत निजी अस्पतालों द्वारा टीकाकरण का परिणाम, उनके अस्तित्व के मूल में एक साधारण मुद्दे से संबंधित हैं: जब वे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करते हैं, तब भी वे निजी, लाभकारी संस्थाएं रहते हैं। नतीजतन, वे खरीदे गए टीके की खुराक को अधिक कीमत पर बेच सकते हैं, जब तक कि कड़ाई से विनियमित नहीं किया जाता है।

    निजी अस्पताल भी CoWIN पर नियुक्तियों के माध्यम से अपनी सभी वैक्सीन खुराक सार्वजनिक रूप से नहीं बेच सकते हैं, बल्कि उन्हें आकर्षक सौदों पर सीधे निजी निगमों को बेच सकते हैं, जो अपने कर्मचारियों का टीकाकरण करना चाहते हैं। अंत में, निजी अस्पताल एक राज्य / केंद्रशासित प्रदेश में समान रूप से फैले हुए नहीं हैं और अक्सर बड़ी आबादी वाले बड़े शहरों तक सीमित होते हैं।"

    तो अदालत का इरादा स्पष्ट था - कि वह केंद्र के तर्कों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था और न्यायिक जांच के लिए आगे बढ़ाने से संकोच नहीं कर रहा था। वास्तव में, कोर्ट द्वारा वैक्सीन नीति की फाइलें तलब करना और केंद्र का बजटीय आवंटन के उपयोग के बारे में बताना, शर्मिंदगी का विषय बन जाता।

    न्यायिक समीक्षा का सतर्क प्रयोग

    केंद्र का एक प्रमुख बचाव यह था कि न्यायपालिका नीतिगत फैसलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है, विशेषकर अभूतपूर्व महामारी के दौर में। न्यायालय के हस्तक्षेप के विरोधियों ने टिप्पणी की कि न्यायपालिका कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है और बिना किसी विषय विशेषज्ञता के कार्यपालिका की नीति के पुनर्लेखन का प्रयास कर रही है।

    हालांकि, न्यायालय के हस्तक्षेप के सावधानीपूर्ण विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि वह नीति का पुनर्लेखन नहीं कर रहा था, बल्‍कि 'संवादात्मक न्यायिक समीक्षा' का शास्त्रीय न्यायिक कार्य कर रहा था, जिसमें न्यायालय कार्यपालिका पर सवाल उठाता है और संवैधानिक अधिकारों की बिनाह पर औचित्य की मांग करता है।

    वास्तव में, न्यायालय ने अपने आदेश में इसकी व्याख्या की है, शायद न्यायिक अतिरेक की आलोचना को पहले ही समाप्त करने के लिए- "हमारा संविधान अदालतों को मूक दर्शक बनने की परिकल्पना नहीं करता है, जब कार्यकारी नीतियों द्वारा नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है ... न्यायिक समीक्षा और कार्यपालिका द्वारा बनाई गई नीतियों के संवैधानिक औचित्य की याचना एक आवश्यक कार्य है, जिसे अदालत को सौंपा गया है।"

    "महामारी की दूसरी लहर से जूझते हुए, यह न्यायालय दो प्रतिस्पर्धी और प्रभावोत्पादक नीति उपायों के बीच चयन करते समय कार्यपालिका के ज्ञान का दूसरा अनुमान लगाने का इरादा नहीं रखता है। हालांकि, यह निर्धारित करने के लिए अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना जारी रखता है कि क्या चुना गया नीति उपाय तर्कसंगतता के मानकों के अनुरूप है, प्रकट मनमानी के खिलाफ संघर्ष करता है और सभी व्यक्तियों के जीवन के अधिकार की रक्षा करता है।"

    यह जोर देते हुए कि यह केवल "संवादातात्मक क्षेत्राधिकार मान रहा है", पीठ ने कहा , "यह न्यायालय वर्तमान में एक संवादात्क क्षेत्राधिकार ग्रहण कर रहा है, जहां विभिन्न हितधारकों को महामारी के प्रबंधन के संबंध में संवैधानिक कष्टों की चर्चा करने के लिए मंच प्रदान किया गया है। इसलिए, यह न्यायालय, मुक्त न्यायालय न्यायिक प्रक्रिया के तत्वावधान में कार्यकारी के साथ विचार-विमर्श करेगा, जहां मौजूदा नीतियों के औचित्य का पता लगाया जाएगा और मूल्यांकन किया जाएगा कि क्या वे संवैधानिक कसौटी पर खरी हैं।"

    इसलिए, न्यायालय बहुत सावधानी से कदम बढ़ा रहा था। अपनी सीमाओं और भारी उलटफेर के नतीजों के प्रति सचेत होकर उसने कार्यकारी नीति की संवैधानिक समस्याओं को उजागर करते हुए और पुनर्विचार का आग्रह करते हुए वह अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर रहा था।

    केंद्र को विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श करने के लिए पर्याप्त समय देने के बाद, न्यायालय का हस्तक्षेप वृद्धिशील और क्रमिक था। लंबे समय बाद हमने न्यायिक समीक्षा का ऐसा सुविचारित और शक्तिशाली कार्य देखा है। पिछले कुछ वर्षों में, सुप्रीम कोर्ट की, महत्वपूर्ण सार्वजनिक मामलों से भागने के कारण, गंभीर सार्वजनिक आलोचना हो रही थी।

    यहां तक ​​कि मौजूदा स्वत: संज्ञान COVID मामले की शुरुआत विवादों में घिर गई थी। तब यह माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट का प्रयास हाईकोर्ट को रोकना है, जो महामारी से संबंधित मुद्दों पर कई शक्तिशाली आदेश पारित कर रहे थे।

    जस्टिस एनवी रमना ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद ग्रहण करने के बाद, स्वत: संज्ञान मामले को जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ को सौंपा था। नई पीठ ने शुरुआत में ही उच्च न्यायालयों को रोकने की आशंकाओं को दूर करते हुए स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट केवल राष्ट्रीय मुद्दों से निपटेगी।

    यह भी उल्लेखनीय है कि जस्टिस डी वाई चंद्रहकुड, जस्टिस नागेश्वर राव और जस्टिस रवींद्र भट की पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई को देखना आनंददायी था। कार्यवाही जीवंत, गतिशील और शिक्षाप्रद थी। कार्यपालिका से जवाब पाने के लिए पीठ के सभी सदस्यों को न्यायिक संवाद में सक्रिय रूप से भाग लेते देखा जा सकता है। पीठ की टिप्पणियां प्रभावशाली थीं, उन्हें अत्यंत सौहार्दपूर्ण माहौल में कहा गया था।

    एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता मामले में पारित विस्तृत अंतरिम आदेश है, जो कार्यवाही के दौरान दिए गए सभी तर्कों और प्रस्तुतियों को दर्शाता है। न्यायाधीशों की मौखिक टिप्पणियां न केवल समाचारों की सुर्खियां बटोरने के लिए थीं, बल्कि न्यायिक आदेशों तक पहुंच गईं।

    यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में नागरिकों की ओर से बात की और टीकाकरण नीति के बारे में सवाल पूछे। और अब, हम एक सकारात्मक बदलाव देख रहे हैं।

    (मनु सेबेस्टियन लाइवलॉ के मैनेजिंग एडिटर हैं, जिनका मेल का पता manu@livelaw.in और ट्व‌िटर हैंडल @manuvichar है।)

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