न्यायिक सक्रियता के अग्रदूत जस्टिस पीएन भगवती की स्मृतियां
LiveLaw News Network
22 Dec 2020 7:09 PM IST
नुपुर थापलियाल
सम्मानित जज, मानवतावादी और दूरदर्शी जस्टिस पीएन भगवती की 99 वीं जयंती 21 दिसंबर को थी। 21 दिसंबर, 1921 को गुजरात में जन्मे जस्टिस भगवती ने एलफिंस्टन कॉलेज, मुंबई से गणित में स्नातक किया और इसके बाद गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, मुंबई से लॉ में स्नातक किया।
प्रफुल्लचंद्र नटवरलाल भगवती एक उत्साही कानूनी शख्सियत थे, जिन्होंने वर्ष 1948 से बॉम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की। उन्हें 1960 में गुजरात हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया, जिसके बाद अपने पिता जस्टिस नटवरलाल एच भगवती की विरासत को आगे बढ़ाते हुए, वह 1973 में सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में नियुक्त किए गए।
जस्टिस भगवती के पिता जस्टिस नटवर लाल एच भगवती ने 1952 से 1959 तक सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में कार्य किया था। जस्टिस पीएन भगवती 12 जुलाई 1985 से 20 दिसंबर 1986 तक भारत के 17 वें मुख्य न्यायाधीश रहे। 16 जून 2017 को 95 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।
जस्टिस भगवती का जीवन
मुल्क कानून पेशे में कई दिग्गजों की विरासत का गवाह रहा है, इन सभी में जे भगवती का आकर्षण अद्भुत रहा है। नटवरलाल भगवती पर सात बेटे, एक बेटी और दो चचेरे भाइयों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी थी।
गरीबी के बावजूद सीनियर भगवती ने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश सुनिश्चित की। जस्टिस भगवती के छोटे भाई जगदीश भगवती इसे अपने परिवार की सफलता कारण मानते थे।
उन्होंने एक बार कहा था कि गरीबी के कारण, उनके पिता उन्हें स्कूल कैंटीन में खाने के लिए पैसे नहीं देते थे लेकिन किताबों पर सैकड़ों रुपए खर्च करने से उन्हें कभी नहीं रोका। उनके पिता एक सैद्धांतिक व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने बच्चों को सही मूल्य दिए।
जस्टिस भगवती महात्मा गांधी के अनुयायी थे। महात्मा गांधी का उन पर ऐसा प्रभाव था कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए एमए की पढ़ाई छोड़ दी। गांधीवादी दृष्टिकोण ने उन्हें जन अधिकारों के महत्व को समझने के लिए प्रेरित किया और बहुत ही कम उम्र से उनमें जन अधिकार के लिए लड़ने का जुनून पैदा हो गया।
1942 में वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। उन दिनों भारत छोड़ो आंदोलन चरम पर था। उन्हें एक बार 'कांग्रेस पत्रिका' बांटने के आरोप में लिए जेल में डाल दिया गया था। उक्त पत्रिता उस समय प्रतिबंधित थी। एक बार वह लहूलुहान होकर घर आए, क्योंकि ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें पीटा था।
भगवती भविष्यवादी दृष्टिकोण के न्यायाधीश थे, जिन्होंने हमेशा समय से आगे सोचा।
उनकी न्यायिक कुशाग्रता और दार्शनिक वृत्ति का प्रभाव था कि भारतीय न्यायशास्त्र नई ऊंचाइयों पर पहुंचा। उन्होंने लोकस स्टेंडाई की अवधारणाओं, न्याय की उपलब्धता और न्यायिक सक्रियता की व्याख्या की। जिस समय भारत में संवैधानिकता का बाढ़ थी, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनकी न्यायिक दृष्टि संवैधानिक न्यायशास्त्र में मौजूद अंतर को भर दे।
भगवती जरूरतमंद और वंचित नागरिकों के लिए संवेदनशील रहे, जिसने उन्हें मुफ्त कानूनी सहायता की अवधारणा विकसित करने के लिए प्रेरित किया। इस दृष्टि ने हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1980) [i]और खत्री बनाम बिहार राज्य (1981) [ii] के निर्णयों के मार्ग को प्रशस्त किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि कानूनी सहायता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निहित और मूल्यवान अधिकार है। यह राज्य पर यह दायित्व डालता है कि वह जरूरतमंद और कमजोर लोगों को कानूनी सहायता प्रदान करे।
उनकी न्यायिक व्याख्याएं ऐसी रही है कि उन्होंने कभी भी मुद्दों को वर्तमान समस्याओं के रूप में नहीं देखा, बल्कि उन्हें भविष्य की प्रतिक्रियाओं के रोशनी में देखा, जिसे वह सामाजिक दर्शन मानते थे।
यह व्याख्या उन्होंने एसपी गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति और अन्य (1982) [iii] के मामले में बखूबी बुनी है, जिसके कारण हमारे न्यायशास्त्र में एक अवधारणा के रूप में न्यायिक सक्रियता का उदय हुआ।
ओलियम गैस लीक मामले (1987) [iv] में एक ऐसा ही अवलोकन था, जिसने लंबे समय तक न्यायिक दायरे का प्रतिध्वनित किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि "प्रक्रिया केवल न्याय की एक सहायिका है, इसे कमजोर वर्गों के लिए न्याय की उपलब्धता के रास्ते में नहीं खड़ा होना चाहिए।"
हालांकि, देश की सबसे बड़ी अदालत का जज होना एक बड़ी जिम्मेदारी है, साथ ही आलोचनाओं की संभावना भी अधिक होती है। उन्हें यह नहीं पता था कि 'सपनों का भारत' बनाने का उनका प्रयास एडीएम जबलपुर मामले की बेंच में शामिल सात जजों में से एक होने पर भारी उतार-चढ़ाव का गवाह बनेगा। बहुमत का पक्ष लेते हुए, उस बेंच ने न्यायशास्त्र पर ऐसी चोट की थी कि जिसने भारत के लोकतंत्र अपंग कर दिया, जिसे 2017 खत्म किया जा सका, जब उक्त फैसले को रद्द किया गया।
हालांकि उन आलोचनाओं ने भगवती नजरिए को बदलने में एक प्रमुख भूमिका निभाई, जिसके बाद उन्होंने मामलों को सावधानी और समझदारी के साथ देखा। बाद में उन्होंने अपनी नैतिक भावना के खिलाफ जाने पर पछतावा भी व्यक्त किया था।
भगवती की अदालत: जॉर्ज एच गैडबॉइस की कलम से
गैडबॉइस के साक्षात्कार 1950 से 1989 के बीच के वर्षों में भारत के सुप्रीम कोर्ट के जजों और कामकाज का एक व्यावहारिक विवरण देते हैं।
किताब "भारत की सुप्रीम कोर्ट के जज, 1950 से 1989 तक" सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायिक नियुक्तियों के पहलू पर साक्षात्कारों का लेखाजोखा प्रस्तुत करती है। जे भगवती के चार साक्षात्कारों में उन्होंने उनके करिश्मे को अधिकतम सीमा तक समझने का प्रयास किया है। उन्होंने लिखा, "भगवती उचित न्यायिक दर्शन के साथ कार्यकर्ता चाहते थे। वह देश के कमजोर वर्गों के जीवन में सुधार करने के एक उत्साही योद्धा थे। वह ऐसे जज चाहते थे, जो जनहित याचिकाओं के उनके जूनन को साझा करें।"[v]
गैडबॉइस के अनुसार, उस अवधि में सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों की औसत आयु 58.5 साल थी और जस्टिस भगवती 51 वर्ष की आयु में नियुक्त होने वाले सबसे कम उम्र के जज थें। भगवती ने गैडबॉइस को बताया था सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में उनके निरंतर संघर्षों में यह रहा है कि वह संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों की तुलना में अधिक अधिकार प्रदान करने की जिम्मेदारी का निर्वहन करें।
उन्होंने हमेशा समकालीन समय के अनुसार दिए गए अधिकारों में सुधार की आवश्यकता महसूस की। उन्हें हमेशा लगता था कि अनुच्छेद 21 के दायरे और इसके नियत प्रक्रिया के सिद्धांत के साथ संबंध कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार होने चाहिए। यहां तक कि जब सरकार व्यक्ति को अधिकारों से वंचित करने का कानून बनाती है, तो उसे उचित तरीके से किया जाना चाहिए।
वह अमेरिकी संविधान के नियत प्रक्रिया सिद्धांत से इस हद तक प्रभावित थे कि उन्होंने इसे तब भी भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र में शामिल किया, जब कोर्ट ने मेनका गांधी मामले में भी इसे खारिज कर दिया था।
भगवती की एक अन्य महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ती यह थी कि उनका इरादा था कि सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का एक विभाजन हो।
भगवती ने महसूस किया कि सर्वोच्च न्यायालय को दो-तरफ़ा तरीके से अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिए; एक, एसएलपी और साधारण अपीलों के निस्तारण के लिए अपील कोर्ट के रूप में और दो संवैधानिक चुनौतियों के विशेष मामलों से निपटने के लिए 5, 7 या 9 वरिष्ठतम न्यायाधीशों से युक्त एक स्थायी संविधान पीठ के रूप में। जब उन्होंने 1986 में न्यायाधीशों की संख्या 18 से बढ़ाकर 26 करने का सुझाव दिया, तो सरकार ने उनके सुझाव पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
उन्होंने गैडबॉइस को यह भी बताया था कि वकीलों को अच्छी ब्रीफ बनाने की आदत नहीं है क्योंकि वे मौखिक तर्क देने आदत पर बहुत अधिक निर्भर हैं, इसलिए खराब याचिका और एसएलपी तैयार की जाती हैं। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में कानून क्लर्क रखे जाने की इच्छा भी व्यक्त की, जो उस समय नहीं होते थे। [vi] उनकी सिफारिशों में से केवल 5 जजों को ही स्वीकार किया गया, इसका कारण यह था कि जस्टिस सेन और सरकार के साथ उनके अच्छे समीकरण नहीं थे।
भगवती का मानवाधिकारों और लोकतंत्र से प्रेम
जस्टिस भगवती का मानवाधिकारों के प्रति प्रेम दुनिया से छिपा नहीं है। यह संभवतः उनके व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण गुण था, जो उन्हें अधिकारों का योद्धा बना देता है। उनका मानना था कि लोकतंत्र मानव की प्रेरक शक्ति है और प्रतिबद्धता खुले समाज को प्राप्त करने का अंतिम मार्ग है। जबकि लोकतंत्र के लिए उनकी प्रशंसा समय के साथ बढ़ती रही, मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति का अधिकार नागरिकों को लोकतांत्रिक रूप से दिया जाने वाला महत्वूपर्ण अधिकार बना रहा।
हालांकि, एक विशिष्ट घटना है, जिसने उन्हें अधिकार के औचित्य का एहसास कराया। लगभग 250 साल पहले इंग्लैंड में जुनियस पत्रों के रूप में 1769 से 1772 के बीच तत्कालीन सरकार की आलोचना करते हुए खुले पत्र लिखने की एक पहल की गई।
जुनियस एक गुमनाम पहचान थी, जिससे पत्र के लेखकों पहचाना गया। लगभग 69 पत्र उस दौरान लिखे गए, जिसके चलते अखबार पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया था। 5 घंटे के लिए विचार-विमर्श के बाद जूरी ने 'दोषी नहीं' होने का फैसला सुनाया और अदालत जश्न के नारों से गूंज उठी। तब था कि सरकार की आलोचना को स्वतंत्र भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार के हिस्से के रूप में देखा गया था।
जस्टिस भगवती ने भारत की एक घटना को याद किया, जब गुजरात सरकार ने एक किताब "एक्सट्रैक्ट्स फ्रॉम माओ त्से तुंग" पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उस फैसले को जे भगवती की अध्यक्षता में उच्च न्यायालय की पीठ के समक्ष चुनौती दी गई। स्वतंत्र भाषण के प्रशंसक होने के नाते, उन्होंने प्रतिबंध को अवैध माना। [vii]
उन्होंने विचारों के प्रवाह को भारत के लोकतांत्रिक चक्र के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण माना। उन्होंने भारत में लोकपाल और सूचना का अधिकार अधिनियम की स्थापना पर जोर दिया। जिस निर्भीकता से जस्टिस भगवती ने संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या की, उसने भारतीय कानूनी व्यवस्था को एक ऐसा उपहार दिया, जिससे आने वाली पीढ़ियां हमेशा पोषित होंगी।
इंडिया टुडे को दिए एब साक्षात्कार में उनसे पूछा गया कि उन्हें विवादों के केंद में होने पर कैसा लगता है? उन्होंने कहा, "विवाद ने हमेशा मेरा पीछा किया है और मैंने हमेशा इसका सामना किया है...मेरा हमेशा से मानना रहा है कि अगर मेरा विवेक मुझे बता रहा है कि यह सही है तो मुझे उसके लिए सभी विरोधों को सहन करना चाहिए।" [viii]
जस्टिस भगवती ने यही किया; उन्होंने दुनिया की आंखों में आंखे डालकर तब भी देखा, जब हालत परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। उनकी अंतरात्मा और नैतिक भावना ने उन्हें एक सैद्धंतिक व्यक्ति और एक बड़ा जज बना दिया, जिन्होंने अपनी विवेकपूर्ण दृष्टि से भारतीय कानूनी न्यायशास्त्र को कई मौलिक प्रस्ताव दिए। उन्होंने हमें मानवधिकारों का योद्धा और न्यायिक सक्रियता का अग्रदूत दिया।
लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
[i] (1980) 1SCC 108
[ii] (1981) 1 SCC 627
[iii] AIR 1982 SC 149
[iv] 1987 AIR 1086
[v] George H Gadbois, Judges of the Supreme Court of India 1950-1989, p. 296
[vi] Abhinav Chandrachud, Supreme Whispers, p. 83
[vii] Manubhai Tribhovandas Patel v. State of Gujarat & Anr. 1972 CrLJ 388
[viii] https://www.indiatoday.in/magazine/profile/story/19850815-a-judge-has-to-mould-the-law-he-has-to-create-law-p-n-bhagwati-770284-2013-12-30