हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

Update: 2022-05-15 04:30 GMT

देश के विभिन्न हाईकोर्ट में पिछले सप्ताह (9 मई, 2022 से 13 मई, 2022 तक) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं हाईकोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र।

[नोटरी अधिनियम की धारा 13] वकील, नोटरी द्वारा किए गए अपराधों का संज्ञान नहीं ले सकते; चार्जशीट दाखिल करने और संज्ञान लेने के लिए केंद्र/राज्य की अनुमति आवश्यक: कर्नाटक हाईकोर्ट

कर्नाटक हाईकोर्ट (Karnataka High Court) ने फैसला सुनाया कि नोटरी अधिनियम की धारा 13 के अनुसार, एक वकील और नोटरी द्वारा किए गए अपराधों के लिए न्यायालय द्वारा संज्ञान लेने के लिए एक बार है, जबकि अधिनियम के तहत चार्जशीट दाखिल करने और संज्ञान लेने के लिए केंद्र सरकार या राज्य सरकार से पुलिस को अनुमति प्राप्त करनी होगी।

जस्टिस के नटराजन की एकल पीठ ने केंद्र सरकार के नोटरी प्रवीण कुमार आद्यापडी और ईश्वर पुजारी द्वारा दायर याचिका को स्वीकार कर लिया और उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 366, 420, 465, 468, 472, 376, 120 ए, 114, 120 बी, 34 और पोक्सो अधिनियम की धारा 4, 6, 17, 12 और बाल विवाह निरोधक अधिनियम की धारा 9, 10 और 11 के तहत लंबित कार्यवाही को रद्द कर दिया।

केस का शीर्षक: प्रवीण कुमार आद्यपडी एंड अन्य बनाम कर्नाटक राज्य

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एनडीपीएस अपराध संगठित अपराध का हिस्सा, प्रतिबं‌धित पदार्थ की ‌रिकवरी दोषसिद्धि के लिए जरूरी नहीं: गुवाहाटी हाईकोर्ट

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने हाल ही में एनडीपीएस एक्ट, 1985 की धारा 21 (सी)/29 के तहत दर्ज मामले में एक व्यक्ति को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि आरोपी की गिरफ्तारी, हिरासत या यहां तक कि उसकी सजा के लिए प्रतिबंधित पदार्थ की रिकवरी या जब्ती आवश्यक नहीं है।

जस्टिस संजय कुमार मेधी ने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि कानून के तहत अपराध एक संगठित अपराध का हिस्सा है और अभियोजन के पक्ष में कोई भी ठोस और पुष्टि करने वाली सामग्री उसके अपराध को स्थापित करने के लिए पर्याप्त होगी।

केस शीर्षक: अमल दास बनाम असम राज्य

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हिरासत में लिए गए व्यक्ति को दस्तावेजों की आपूर्ति करने से इनकार करना, उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने हाल ही में हिरासत में लिए गए एक व्यक्ति को यह कहते हुए रिहा कर दिया गया कि बंदियों को हिरासत से संबंधित दस्तावेजों की आपूर्ति करना आवश्यक है। इस प्रकार के दस्तावेज देने से इनकार करना और उन्हें अंधेरे में रखना अवैध और उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।

यह टिप्पणी जस्टिस रजनीश ओसवाल ने की। उन्होंने कहा, "याचिकाकर्ता को सभी सामग्र‌ियों की आपूर्ति की जाए, उसके बाद ही वह हिरासतकर्ता प्राधिकरण और सरकार के समक्ष प्रभावशाली प्रतिनिधित्व पेश कर सकता है और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो वह अपने मूल्यवान संवैधानिक अधिकार से वंचित हो जाएगा। प्रतिवादी संख्या 2 ने हिरासत का आदेश पारित करते समय, जिन सामग्रियों पर भरोसा किया था, उनकी आपू‌र्ति नहीं कर पाना, इसे अवैध बनाता है।"

केस शीर्षक: आदिल फारूक मीर बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य और अन्य

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धारा 125 सीआरपीसी के तहत पत्नी के भरणपोषण के अधिकार को मुस्लिम महिला संरक्षण अधिनियम के जरिए समाप्त नहीं किया गया: केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने दोहराया है कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरणपोषण की मांग कर सकती है, जब तक कि उसे मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम की धारा 3 के तहत राहत नहीं मिल जाती है। कोर्ट ने साथ में यह जोड़ा कि धारा 125 तहत पारित एक आदेश तब तक लागू रहेगा, जब तक अधिनियम की धारा 3 के तहत देय राशि का भुगतान नहीं किया जाता है।

केस शीर्षक: मुजीब रहिमन बनाम थसलीना और अन्य।

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सिलसिलेवार अनुबंधों के बीच मामूली कृत्रिम ब्रेक का इस्तेमाल मातृत्व अधिकारों से वंचित करने के लिए नहीं किया जा सकताः केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि सिलसिलेवार अनुबंधों के बीच सर्विस में मामूली कृत्रिम ब्रेक का इस्तेमाल कर्मचारियों को मातृत्व अधिकारों से वंचित करने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जा सकता है।

जस्टिस राजा विजयराघवन ने कहा कि जनवरी 2021 के सरकारी आदेश के अनुसार, कर्मचारी को मातृत्व लाभ के लिए पात्र होने के लिए उसकी प्रसव की अपेक्षित तिथि या गर्भपात की तारीख से तुरंत पहले कम से कम 80 दिनों की अवधि के लिए "वास्तव में" काम करना चाहिए और इससे इनकार करने के लिए कृत्रिम ब्रेक एक वैध आधार नहीं है।

केस शीर्षक: नाजिया और अन्य बनाम केरल राज्य

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बिहार और उड़ीसा पब्लिक डिमांड रिकवरी एक्ट और एनआई एक्ट के तहत अंतरिम मुआवजे के आदेश को 'सार्वजनिक मांग' के रूप में लागू किया जा सकता है: पटना हाईकोर्ट

पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (एनआई एक्ट) के तहत अंतरिम मुआवजे के भुगतान का आदेश बिहार और उड़ीसा पब्लिक डिमांड रिकवरी एक्ट, 1914 (रिकवरी एक्ट) तहत 'पब्लिक डिमांड' के रूप में लागू किया जा सकता है।

चीफ जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एस कुमार की खंडपीठ ने कहा, "एनआई अधिनियम की धारा 143ए के तहत आदेशित अंतरिम मुआवजा सीआरपीसी की धारा 421 के तहत जुर्माना के रूप में वसूली योग्य है, जो कि स्पष्ट रूप से 'सार्वजनिक मांग' की परिभाषा के अंतर्गत आता है। याचिकाकर्ता की दलील के अनुसार, वसूली अधिनियम की गैर-प्रयोज्यता को अनिवार्य रूप से नकारा जाना चाहिए।"

केस टाइटल: सुनील कुमार बनाम बिहार राज्य और अन्य।

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भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65-बी मध्यस्थ कार्यवाही पर लागू नहीं होती है: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65-बी मध्यस्थ कार्यवाही पर लागू नहीं होती है। जस्टिस विभु बाखरू की एकल पीठ ने कहा कि हालांकि साक्ष्य अधिनियम के सिद्धांत आमतौर पर लागू होते हैं, सच पूछिये तो, अधिनियम के विशिष्ट प्रावधान लागू नहीं होते हैं। कोर्ट ने आगे कहा कि धारा 65-बी की आवश्यकता का पालन न करने पर आपत्ति जल्द से जल्द उठाई जाएगी। महत्वपूर्ण समय पर इस तरह की आपत्ति लेने में विफलता दूसरे पक्ष को बाद के चरण में ऐसी आपत्ति लेने से वंचित करती है।

केस शीर्षक: मिलेनियम स्कूल बनाम पवन डावर, OMP (COMM) 590/2020

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मध्यस्थ कार्यवाही से किसी पक्ष का नाम हटाने से इनकार करना रिट क्षेत्राधिकार को लागू करने के लिए दुर्लभ मामला नहीं: उड़ीसा हाईकोर्ट

उड़ीसा हाईकोर्ट ने कहा कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण के आदेश के खिलाफ रिट याचिका को बनाए रखने योग्य नहीं है, जो मध्यस्थता से पक्षकार का नाम हटाने से इनकार करती है।

जस्टिस अरिंदम सिन्हा की एकल पीठ ने माना कि मध्यस्थता मामले में रिट क्षेत्राधिकार का आह्वान करने के लिए पीड़ित पक्ष को यह दिखाना होगा कि यह 'दुर्लभतम मामलों में से दुर्लभ' है और न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता है। ट्रिब्यूनल आदेश में, जिसमें उसने किसी पक्ष का नाम हटाने से इनकार कर दिया, दुर्लभतम मामलों में से दुर्लभ मामलों के रूब्रिक के साथ नहीं आता है।

केस टाइटल: ओडिशा राज्य बनाम मेसर्स। नयागढ़ शुगर कॉम्प्लेक्स लिमिटेड, डब्ल्यू.पी. (सी) 2020 की संख्या 8995।

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लोन के लिए सह आवेदक के कम CIBIL स्कोर के आधार पर एजुकेशन लोन देने से इनकार नहीं किया जा सकता : केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को दोहराया कि लोन के लिए सह-आवेदक के सीआईबीआईएल (The Credit Information Bureau (India) Limited (CIBIL)) स्कोर एजुकेशन लोन के लिए आवेदन तय करने में भूमिका नहीं निभाते हैं, क्योंकि ऐसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र के लोन को मंजूरी देने के लिए पात्रता शर्तों का इन लोन द्वारा प्राप्त की जाने वाली वस्तु के साथ संबंध होना चाहिए। जस्टिस एन. नागरेश ने यह भी देखा कि ऐसी शर्तें लगाने से ऐसे लोन देने का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा, जिससे बैंकों को ऐसा करने से हतोत्साहित किया जाएगा।

केस टाइटल: किरण डेविड बनाम सहायक महाप्रबंधक

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किसी दोषी कैदी को समय से पहले रिहा होने का कोई मौलिक या वैधानिक अधिकार नहीं: मद्रास हाईकोर्ट

मद्रास हाईकोर्ट (Madras High Court) ने दोहराया है कि एक दोषी कैदी को समय से पहले रिहा होने का कोई मौलिक या वैधानिक अधिकार नहीं है। अदालत आजीवन दोषी हरिहरन की मां द्वारा दायर एक याचिका पर विचार कर रही थी। इसमें सरकार के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें उसकी समय से पहले रिहाई को खारिज कर दिया गया था।

जस्टिस पी.एन. प्रकाश और जस्टिस ए.ए. नक्किरन की पीठ ने कहा कि एक बार सामग्री मौजूद होने के बाद, राज्यपाल तथ्यों की पर्याप्तता का एकमात्र न्यायाधीश होता है और तथ्यों की इतनी पर्याप्तता अनुच्छेद 226 के तहत न्यायिक समीक्षा के आधार से परे है।

केस का शीर्षक: एन. सरोजिनी बनाम तमिलनाडु राज्य

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रेरा अधिनियम | धारा 71(1) के तहत न्यायनिर्णायक प्राधिकारी अकेले मुआवजे का फैसला कर सकता है: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम, 2016 की धारा 71(1) के तहत न्यायनिर्णायक प्राधिकारी अकेले मुआवजे का फैसला कर सकता है।

जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस संजय एस. अग्रवाल की खंडपीठ ने टिप्पणी की कि रेरा अधिनियम, 2016 की धारा 71(1) को पढ़ने से पता चलता है कि न्यायनिर्णयन अधिकारियों की शक्ति मुआवजे का फैसला करना है। मुआवजे की मात्रा तय करने के लिए एक आवश्यक परिणाम के रूप में न्यायनिर्णायक अधिकारी संबंधित व्यक्ति को विकास की डिग्री का पता लगाने के लिए सुनवाई का एक उचित अवसर देने के बाद जांच कर सकता है। न्यायनिर्णायक अधिकारी की उक्त नियुक्ति भी मुआवजे के निर्णय के लिए कानून के उद्देश्य के अनुरूप है।

केस शीर्षक: मेसर्स. गोल्ड ब्रिक्स इंफ्रास्ट्रक्चर प्रा. लिमिटेड बनाम अतीत अग्रवाल और अन्य जुड़े मामले

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शिकायत दर्ज करने में देरी होने पर सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत पुलिस को केस संदर्भित करते समय मजिस्ट्रेट को अपना दिमाग लगाना चाहिए: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट (Andhra Pradesh High Court) ने हाल ही में कहा कि क्रिमिनल लॉ सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत बिना दिमाग लगाए और शिकायत दर्ज करने में अस्पष्टीकृत देरी के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत रद्द करने के लिए उत्तरदायी है।

केस का शीर्षक: एम.श्यामा सुंदर नायडू, चित्तूर डीटी; 2 अन्य बनाम आंध्र प्रदेश प्रतिनिधि पीपी एंड अन्य।

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आर्म्स लाइसेंस एक्ट की धारा 14 में उल्लिखित आधारों पर ही लाइसेंसिंग अथॉरिटी आर्म्स लाइसेंस देने से इनकार कर सकता है: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने आदेश और अपील को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करते हुए कहा कि आर्म्स लाइसेंस देने के आवेदन को खारिज कर दिया गया है। इसमें कहा गया कि किसी आवेदन को खारिज करने के लिए निर्दिष्ट कारण खंड (ए) और (बी) आर्म्स एक्ट, 1959 की धारा 14(1) के तहत के तहत निर्धारित लोगों से अलग नहीं हो सकते हैं। इसके अलावा, लाइसेंस प्रदान करने के लिए एक आवेदन को खारिज करने के लिए निर्दिष्ट कारण धारा 14(1) के खंड (ए) और (बी) के तहत निर्धारित कारणों से भिन्न नहीं हो सकते।

केस टाइटल: मनप्रीत सिंह बनाम पंजाब राज्य और अन्य

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मानव तस्करी को भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरा पहुंचाने के रूप में नहीं देखा जा सकता: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट (Punjab & Haryana High Court) ने कहा है कि मानव तस्करी (Human Trafficking) को भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरा पहुंचाने के रूप में नहीं देखा जा सकता है। जस्टिस सुधीर मित्तल की खंडपीठ ने आगे कहा कि यह एक विदेशी देश के साथ भारत के मैत्रीपूर्ण संबंधों को खतरे में डाल सकता है, लेकिन ऐसा तभी होगा जब आरोपों को साबित करने के लिए ठोस सबूत उपलब्ध हों। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने पंजाब पुलिस के एक कांस्टेबल का पासपोर्ट जब्त करने के पासपोर्ट अथॉरिटी के आदेश को इस संदेह के आधार पर रद्द कर दिया कि वह यूरोप में मानव तस्करी के कृत्य में शामिल था।

केस का शीर्षक - जतिंदर सिंह बनाम भारत संघ एंड अन्य [सिविल रिट याचिका संख्या 35638 ऑफ़ 2019]

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बच्चे को सीधे बायोलॉजिकल पैरेंट्स से गोद लेना किशोर न्याय अधिनियम की धारा 80 के तहत अपराध नहीं: कर्नाटक हाईकोर्ट

कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि बच्चे को सीधे बायोलॉजिकल पैरेंट्स से गोद लेना किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 (जेजे एक्ट) की धारा 80 के तहत अपराध नहीं है। जेजे अधिनियम की धारा 80 के तहत प्रदान किए गए प्रावधानों या प्रक्रियाओं का पालन किए बिना किसी भी अनाथ, परित्यक्त या आत्मसमर्पण करने वाले बच्चे को गोद लेने के लिए दंड प्रदान करती है। जस्टिस हेमंत चंदनगौदर की एकल पीठ ने दो जोड़ों द्वारा दायर याचिका को स्वीकार कर लिया और अधिनियम के तहत उनके खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही को रद्द कर दिया।

केस शीर्षक: बानू बेगम डब्ल्यू/ओ खजसब उर्फ महबूब्स और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य।

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कानून किसी व्यक्ति को स्वीकार और अस्वीकार, दोनों की अनुमति नहीं देता, पार्टी एक ही साधन को स्वीकार और अस्वीकार नहीं सकती: मद्रास हाईकोर्ट

मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में अनुमोदन (Approbate) और अस्वीकार (Reprobate) के कानूनी सिद्धांत की व्याख्या किया और कहा कि चुनाव के कानून की नींव यह है कि कोई व्यक्ति एक ही साधन को स्वीकार और अस्वीकार नहीं कर सकता है।

जस्टिस आनंद वेंकटेश ने कहा कि किसी व्यक्ति को एक अनुकूल आदेश प्राप्त करने के लिए एक दस्तावेज पर कार्रवाई करने, उसके बाद दस्तावेज को अस्वीकार करने, और संपत्ति का सौदा जारी रखने के लिए न्यायिक या अर्ध-न्यायिक फोरम बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है । एक सक्षम सिविल कोर्ट ऐसे बेईमान आचरण को अनुमति नहीं दे सकता है और ऐसे अवैध कार्य को वैधता प्रदान नहीं कर सकता है।

केस शीर्षक: लक्ष्मी अम्मल (मृत) और अन्य बनाम अम्माई अम्मल (मृत) और अन्य

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यदि अनुबंध नियोक्ता द्वारा बढ़ाया जाता है तो इसे पूर्वव्यापी रूप से विस्तार की अवधि को कम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी है कि जब नियोक्ता ने ठेकेदार को एक निर्दिष्ट अवधि के लिए समय का विस्तार दिया है, तो वह यह तर्क नहीं दे सकता कि विस्तार केवल अस्थायी था और इसे उन दिनों की संख्या को फिर से निर्धारित करने या कम करने की अनुमति है जिसका करार किया गया था।

न्यायमूर्ति संजीव सचदेवा की एकल पीठ ने माना है कि एक बार नियोक्ता द्वारा अनुबंध की अवधि बढ़ा दी गई है, तो इसे विस्तार की अवधि को पूर्वव्यापी रूप से कम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

केस शीर्षक: उत्तरी दिल्ली नगर निगम बनाम आईजेएम निगम बरहाद

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सीआरपीसी की धारा 107 के तहत मजिस्ट्रेट को संपत्ति के कब्जे को प्रभावित करने का अधिकार नहीं: झारखंड हाईकोर्ट

झारखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि सीआरपीसी की धारा 107 के तहत संपत्ति के कब्जे के वितरण को प्रभावी करना का मजिस्ट्रेट को अधिकार नहीं है।

जस्टिस संजय कुमार द्विवेदी ने यह टिप्पणी की: "यदि व्यक्ति अपने अधिकार क्षेत्र में है या शांति या अशांति के संभावित उल्लंघन का स्थान उसके अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमा के भीतर है तो सीआरपीसी की धारा 107 को देखते हुए यह स्पष्ट है कि मजिस्ट्रेट मामले में आगे कार्रवाई को बढ़ा सकता है। मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 107 के तहत आदेश पारित कर सकता है, लेकिन मजिस्ट्रेट को किसी संपत्ति को किसी व्यकि के कब्ज़े में नहीं दे सकता। जैसा कि इस मामले में 09 मई 2017 के आदेश में किया गया जो धारा 107 की भावना के खिलाफ है।"

केस शीर्षक: सुखलाल बिरुली बनाम झारखंड राज्य और अन्य।

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