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सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 21: संहिता की धारा 39, 40, 41 एवं 42
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 39, 40, 41 एवं 42 डिक्री के निष्पादन से संबंधित है। यह चारो ही धाराएं लगभग समान प्रावधान करती है। इस आलेख में इन चारों ही धाराओं पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 39धारा 38 इस बात का प्रावधान करती है कि डिक्री या तो उस न्यायालय द्वारा निष्पादित की जायेगी जिसने डिक्री पारित किया है या उस न्यायालय द्वारा जिसे डिक्री निष्पादन के लिये भेजी जायेगी, परन्तु ऐसा न्यायालय सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय होना चाहिये। धारा 39 इस...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 20: संहिता की धारा 37 एवं 38
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 37 एवं 38 डिक्री के निष्पादन से संबंधित है। इस आलेख के अंतर्गत इन दोनों ही धाराओं पर पृथक पृथक टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 37संहिता की धारा 38 उस न्यायालय को इंगित करती है जिसके द्वारा डिक्री निष्पादित की जा सकती है। यह प्रावधान करता है कि एक डिक्री को या तो उस न्यायालय द्वारा निष्पादित किया जा सकता है जिसने इसे पारित किया है या उस न्यायालय द्वारा निष्पादित किया जा सकता है जिसे इसे निष्पादन के लिए भेजा गया है। इसे भी...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 19: आदेशों का लागू होना
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 36 में प्रावधान है कि डिक्री के तहत भुगतान से संबंधित प्रावधानों सहित डिक्री के निष्पादन से संबंधित संहिता के प्रावधान भी एक आदेश के तहत भुगतान सहित आदेशों के निष्पादन पर लागू होते हैं। इस धारा में अंतर्निहित सिद्धांत यह है कि प्रत्येक न्यायालय के पास अपने आदेशों को लागू करने की एक अंतर्निहित शक्ति है, ऐसा न करने पर आदेश केवल एक तथ्य होगा। अवमानना कार्यवाही में उच्च न्यायालय का एक आदेश संहिता की धारा 2 खंड 14 के अर्थ के भीतर एक आदेश...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 18: संहिता में खर्चे से संबंधित प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 35 खर्चे से संबंधित है। किसी भी वाद में अनेक खर्च होते हैं, उन खर्चो की भरपाई कैसे की जाएगी और किस मद में भुगतान किया जाएगा, यह धारा इसी संबंध में उल्लेख करती है। एक तरह से यह धारा वाद के खर्चो को एक अधिकार के रूप में उल्लेखित कर रही है। अगर संहिता में यह धारा नहीं होती तो वाद में खर्चा प्राप्त करने जैसा कोई विचार ही नहीं होता। इस आलेख में धारा 35 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 35 न्यायालय की लागत अधिनिर्णीत करने की शक्ति से...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 17: संहिता में ब्याज़ संबंधित प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 34 ब्याज़ के संबंध में उल्लेख करती है। इस धारा के अधीन यह निर्धारित किया गया है कि किसी भी रुपए से संबंधित वाद में ब्याज़ का क्या अस्तित्व रहेगा। इस आलेख के अंतर्गत धारा 34 पर टीका प्रस्तुत किया जा रहा है।धारा 34धारा 34 के प्रावधान तभी लागू होते हैं जब रुपए के भुगतान की डिक्री हो। रुपए के भुगतान के लिए डिक्री जैसा कि खंड में उपयोग किया गया है, में अनलिमिटेड हर्जाने का दावा भी शामिल है। इसके अलावा, धारा 34 में सूट की संस्था से पहले...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 16: वाद में निर्णय और डिक्री
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 33 निर्णय और डिक्री के संबंध में उल्लेख करती है। इस धारा में केवल इतना कह गया है कि सुनवाई के बाद न्यायालय निर्णय और डिक्री पारित करेगा। हालांकि निर्णय और डिक्री का अर्थ अत्यंत विशद है, किसी भी वाद की समस्त सुनवाई का सार निर्णय ही होता है। इस आलेख के अंतर्गत निर्णय और डिक्री पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।सुनवाई पूरी होने के बाद कोर्ट फैसला सुनाएगा। एक बार फैसला सुनाए जाने के बाद एक डिक्री का पालन किया जाएगा। संहिता के...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 15: न्यायालय की खोज करने संबंधित शक्तियां
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 30 न्यायालय को खोज की शक्तियां प्रदान करती है। किसी मामले न्यायालय को इन शक्तियों की आवश्यकता हो सकती है। इस आलेख के अंतर्गत इन्हीं शक्तियों को उल्लेखित किया जा रहा है।धारा 30 कुछ मामलों में न्यायालय की शक्ति से संबंधित है, जैसे, पूछताछ करने और जवाब, दस्तावेजों की स्वीकृति, खोज, निरीक्षण, उत्पादन, जब्त और दस्तावेजों की वापसी आदि।विषयवार वे हैं:(1) पूछताछ (आदेश 11)(2) खोज और निरीक्षण (आदेश 11)(3) दस्तावेजों और तथ्यों की स्वीकृति...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 14: प्रतिवादियों को समन
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 27 प्रतिवादियों को समन के संबंध में उल्लेख करती है। मुकदमा दर्ज होने के बाद सर्वप्रथम कार्यवाही समन की होती है। वादी मुकदमा लाता है और प्रतिवादियों को समन जारी किए जाते हैं। इस आलेख के अंतर्गत धारा 27 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।प्रतिवादियों को समनधारा 27 एक नियम को अधिनियमित करती है कि जब मुकदमा "विधिवत रूप से स्थापित" किया गया है, तो न्यायालय का कर्तव्य प्रतिवादी को एक समन जारी करना है जो उसे पेश होने और दावे का जवाब देने के...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 13: वाद अंतरण पर उच्च न्यायालय की शक्ति
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 25 वाद अंतरण करने हेतु उच्च न्यायालय को सशक्त करती है। जिस प्रकार धारा 24 यह शक्ति अधीनस्थ न्यायालय को प्रदान करती है इस ही प्रकार धारा 25 यह शक्ति उच्च न्यायालय में भी निहित करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 25 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।संपूर्ण धारा 25 को एक नए खंड द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। धारा 25 जैसा कि मूल रूप से था (सी.पी.सी. संशोधन अधिनियम, 1976 से पहले) राज्य सरकार को एक एकल न्यायाधीश द्वारा की गई एक रिपोर्ट पर...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 12: अंतरण और प्रत्याहरण की साधारण शक्ति
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 24 न्यायालय को मामले को ट्रांसफर करने और प्रत्याहरण (विथड्रा) करने की शक्ति देती है। न्यायालय में यह शक्ति निहित है, जिस न्यायालय में मामला दर्ज किया गया है वह उसे ट्रांसफर भी कर सकता है और उस मामले को वापस भी कर सकता है। इस आलेख में धारा 24 पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है। धारा 24 किसी भी वाद अपील या कार्यवाही को स्थानांतरित करने और वापस लेने की सामान्य शक्ति प्रदान करती है। शक्ति उच्च न्यायालयों के साथ-साथ जिला...
आपराधिक मामले में अभियुक्त और पीड़ित की मौत पर क्या होता है
स्टेट किसी भी अपराध की घोषणा करती है। क्या काम अपराध है और किस काम को करना अपराध नहीं है, इसका निर्धारण स्टेट द्वारा किया जाता है। जिस किसी भी कार्य या लोप को स्टेट द्वारा अपराध बना दिया जाता है, उसके लिए निर्धारित किया गया दंड भी स्टेट द्वारा दिया जाता है।एक अभियुक्त जिस पर कोई मुकदमा चलाया जा रहा है यदि वे कोई अपराध करता है तब उसका अपराध पीड़ित के खिलाफ नहीं होता है, अपितु स्टेट के खिलाफ होता है। जैसे कि भारत सरकार ने संसद द्वारा अधिनियमित किए गए कानून के माध्यम से उतावलेपन से मोटरयान चलाना एक...
किसी मुकदमे में विरोधी पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर क्या किया जाए
किसी भी मुकदमे में वादी और प्रतिवादी दो पक्षकार होते हैं। वादी वे होता है जो मुकदमा लाता है और प्रतिवादी वह होता है जो मुकदमे का बचाव करता है। कभी यह स्थिति होती है कि जिस व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा लाया गया है उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। इसे प्रतिवादी की मृत्यु कहा जाता है।किसी भी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने से सभी मामलों में वादकारण समाप्त नहीं हो जाता है। जैसे अगर पति और पत्नी के बीच तलाक या भरण पोषण जैसा कोई मुकदमा चल रहा है और प्रतिवादी की मौत हो जाती है तब वादकारण समाप्त हो जाता है।...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 11: अधिकारिता के संबंध में आक्षेप
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 21 अधिकारिता के संबंध में आक्षेप को उल्लेखित करती है। ऐसे न्यायालय में मुकदमा दर्ज किया गया है जिसे अधिकारिता प्राप्त नहीं है, उस पर आक्षेप किया जा सकता है। ऐसे न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को अपास्त किया जा सकता है। धारा 21 में आक्षेप किया जाता है। इस आलेख में धारा 21 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।क्षेत्राधिकारयहां तक कि दोहराव की कीमत पर भी यह कहना उचित होगा कि "अधिकारिता से तात्पर्य उस अधिकार से है जो एक न्यायालय को उन...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 10: अन्य प्रकार के मुकदमों के लिए न्यायालय का स्थान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 20 ऐसे मामलों के लिए न्यायालय का निर्धारण करती है जिनके संबंध में संहिता स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं करती है। इस आलेख में धारा 20 पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।अन्य मामलों में मुकदमा करने के स्थान से संबंधित प्रावधान (धारा 16 से 18 के अंतर्गत आने वाले मामलों को छोड़कर जो अचल संपत्ति के संबंध में वाद है और धारा 19 जो व्यक्ति या चल के लिए गलत के मुआवजे के लिए उपयुक्त है) धारा 20 के तहत सन्निहित है। व्यक्तिगत कार्यों को...
गरीब लोगों को कैसे मिलती है मुफ्त कानूनी सहायता
आज महंगाई के साथ कानूनी सेवाएं भी अत्यंत महंगी हो चली है। किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन काल में कई दफा अदालत का काम पड़ता है। कई लोगों पर आपराधिक प्रकरण बना दिए जाते हैं और कई लोग अपने सिविल प्रकरण लेकर अदालत के समक्ष उपस्थित होते हैं। भारत की कानूनी प्रक्रिया अत्यंत विशद है। ऐसे में कोई भी आम व्यक्ति इस प्रक्रिया को समझ नहीं सकता है। कानूनी बारीकियों को केवल एक अधिवक्ता ही समझ सकता है। फिर किसी व्यक्ति पर यदि कोई आपराधिक प्रकरण बनाया गया है तब ऐसे अपराधिक प्रकरण में सरकार की ओर से सरकारी वकील पर...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 9: संहिता की धारा 17,18, एवं 19
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 17,18 एवं 19 भी न्यायालय के क्षेत्राधिकार के संबंध में उल्लेख करती है। इन तीनों धाराओं में न्यायालय के क्षेत्राधिकार के संबंध में उल्लेख किया गया है। इस आलेख में इन तीनों धाराओं पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 17जैसा कि पहले कहा गया है कि धारा 16 ऐसे मामले से संबंधित है जहां संपत्ति एक न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में स्थित है। लेकिन क्या होगा यदि संपत्ति जो कि वाद की विषय वस्तु है, एक से अधिक न्यायालयों के क्षेत्रीय...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 8: संहिता की धारा 15 एवं 16
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 15 एवं 16 संक्षिप्त धाराएं हैं। इन धाराओं में मुकदमा संस्थित किए जाने के संबंध में प्रावधान दिए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत इन दोनों ही धाराओं पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 15संहिता की धारा 15 से 20 भारत में मुकदमा चलाने के स्थान या वाद की संस्था के लिए मंच से संबंधित है। दूसरे शब्दों में, वे सूट की संस्था के लिए मंच को विनियमित करते हैं। स्थान का अर्थ भारत में स्थान है और इन अनुभागों में संदर्भित न्यायालयों का अर्थ...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 7: संहिता में विदेशी निर्णय का अर्थ और प्रभाव
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 13 विदेशी निर्णय के संबंध में उल्लेख करती है। यह धारा विदेशी निर्णय के अर्थ के साथ उसके निष्कर्ष पर भी प्रभाव डालती है। इस आलेख के अंतर्गत विदेशी निर्णय पर टीका प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे संहिता के अंतर्गत विदेशी निर्णय को स्पष्ट किया जा सके।धारा 13 विदेशी निर्णय की निष्कर्ष से संबंधित है, अर्थात धारा 13 में प्रावधान है कि एक विदेशी निर्णय खंड में निर्दिष्ट छह मामलों को छोड़कर न्यायिक निर्णय के रूप में कार्य कर सकता है। विदेशी...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 6: संहिता में रेस ज्युडिकेटा का सिद्धांत
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 11 रेस ज्युडिकेटा (प्राङ् न्याय) से संबंधित है। यह एक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत है जिसे विश्व के लोकतांत्रिक देशों के सिविल और आपराधिक कानूनों में शामिल किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत इस सिद्धांत पर प्रकाश डाला जा रहा है, साथ ही कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किये जा रहे हैं।रेस ज्युडिकेटा को संहिता की धारा 11 में परिभाषित किया गया है। धारा 11 के अनुसार-"कोई न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद-बिन्दु का विचारण नहीं करेगा जिसके वाद-पद में वह विषय,...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 5: मुकदमों पर रोक
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 10 मुकदमे पर रोक की व्यवस्था करती है। इस धारा का जन्म रेस ज्युडिकेटा से हुआ है। हालांकि यह पूरी तरह रेस ज्युडिकेटा नहीं है लेकिन यह धारा मुकदमों पर रोक ज़रूर लगाती है। ऐसे मुकदमे जो किसी अन्य न्यायालय में लंबित है उन्हें किसी और न्यायालय में नहीं लगाया जा सकता।स्टे ऑफ सूट : रेस सब-ज्यूडिससिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 10 उन मुकदमों पर रोक लगाने के संबंध में एक नियम बनाती है जहां चीजें विचाराधीन हैं या किसी न्यायालय द्वारा निर्णय के...










