सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 22: आज्ञापत्र किसे कहा जाता है

Shadab Salim

11 April 2022 4:43 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 22: आज्ञापत्र किसे कहा जाता है

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 46 आज्ञापत्र से संबंधित है। यह वही आज्ञापत्र है जो एक प्राधिकारी द्वारा दूसरे प्राधिकारी को कानून द्वारा दी गई शक्ति के अधीन प्रेषित किया जाता है। इस आलेख में आज्ञापत्र से संबंधित प्रावधानों को समझने का प्रयास किया जा रहा है।

    संहिता में प्रस्तुत की गई धारा में आज्ञापत्र को इन शब्दों में उल्लेखित किया गया है-

    धारा 46

    आज्ञापत्र - (1) जब कभी डिक्री पारित करने वाला न्यायालय डिक्रीदार के आवेदन पर ठीक समझे तब वह किसी ऐसे अन्य न्यायालय को, जो उस डिक्री के निष्पादन के लिये सक्षम है, यह आज्ञापत्र निकाल सकेगा कि वह निर्णीत-ऋणी का उस आज्ञापत्र में विनिर्दिष्ट कोई भी सम्पत्ति कुर्क कर ले।

    (2) वह न्यायालय, जिसे आज्ञापत्र भेजा जाता है, उस सम्पत्ति को ऐसी रीति से कुर्क करने के लिये कार्यवाही करेगा जो डिक्री के निष्पादन में सम्पत्ति की कुर्की के लिये विहित है परन्तु जब तक कि कुर्की की अवधि डिक्री पारित करने वाले न्यायालय के आदेश द्वारा बढ़ा न दी गई हो या जब तक कि कुर्की के अवसान के पूर्व डिक्री कुर्की करने वाले न्यायालय को अन्तरित न कर दी गई हो और डिक्रीदार ने ऐसी सम्पत्ति के विक्रय के आदेश के लिए आवेदन न कर दिया हो, आज्ञापत्र के अधीन कोई भी कुर्की दो मास से अधिक चालू न रहेगी।

    यह संहिता में प्रस्तुत धारा 46 के शब्द थे

    आज्ञापत्र से तात्पर्य ऐसे आदेश या निर्देश से है जो एक शासकीय व्यक्ति का निकाय दूसरे को उसकी अधिकार सीमा में आने वाले कुछ कार्य करने के लिये देता है। ऐसा आदेश धारा-46 के अन्तर्गत एक न्यायालय द्वारा दूसरे न्यायालय को दिया जाता है।

    इसका उद्देश्य निर्णीत-ऋणी की सम्पत्ति जो दूसरे न्यायालय के क्षेत्राधिकार में स्थित है, को शीघ्रता से कुर्क करने में सहायता पहुँचाना है ताकि निर्णीत-ऋणी अपनी सम्पत्ति का डिक्रीदार के हितों को क्षति के लिये अन्य संक्रमण (alienation) या अन्य किसी रीति में व्यवहार (dealing in any manner) न कर सके। ऐसा इसलिये आवश्यक है कि जब तक निर्णीत ऋणी को सम्पत्ति की डिक्री के लिये विधिवत् आदेश दिया जाय वह अपनी सम्पत्ति को कुर्की और विक्रय से बचाने के लिये किसी भी प्रकार अन्य संक्रमण या अन्य रीति से व्यवहार कर सकता है।

    धारा 46 यह उपबन्धित करती है कि डिक्री पारित करने वाला न्यायालय डिक्रीदार के आवेदन पर किसी अन्य न्यायालय को जो इस डिक्री का निष्पादन करने के लिए सक्षम है यह आज्ञापत्र निकाल सकेगा कि वह निर्णीत-ऋणी की इस आज्ञापत्र में विनिर्दिष्ट कोई भी सम्पत्ति कुर्क कर ले। आज्ञा-पत्र के अधीन कुर्की की अवधि दो मास से ज्यादा नहीं होगी। दूसरे शब्दों में आज्ञा-पत्र के अधीन जब कुर्क की गई तो वह केवल दो मास तक चालू रहेगी उसके बाद समाप्त हो जायेगी। किन्तु ऐसी कुर्की दो मास के पश्चात् भी चालू रह सकती है अगर,

    (1) कुर्की की अवधि डिक्री पारित करने वाले न्यायालय द्वारा बढ़ा दी गई है, या

    (2) जब कुर्की अवसान (determination of such attachment) के पूर्व डिक्री कुर्की करने वाले न्यायालय को अन्तरित कर दी गई हो और डिक्रीदार ने सम्पत्ति के विक्रय के आदेश के लिये आवेदन कर दिया हो।

    जहाँ सम्पत्ति "अ" नामक शहर में स्थित है, निष्पादन की कार्यवाही "ब" नामक शहर में चल रही है, सम्पत्ति की नीलामी के लिये आवेदन "अ" नामक शहर के न्यायालय में दिया जाता है इस कारण कि ज्यादा से ज्यादा लोगों के बोली बोलने से ऊंची कीमत (ज्यादा कीमत) प्राप्त हो सकती है।

    आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कारी वेंकट रेड्डी बनाम सेन्ट्रल बैंक आफ इण्डिया नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि कुर्की की अवधि के समाप्ति मात्र से निष्पादित करने वाले न्यायालय की निर्देश देने की अधिकारिता इस बात के लिये कि "अ" नामक स्थान का न्यायालय सम्पत्ति की नीलामी करे समाप्त नहीं हो जाती।

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