सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 23: डिक्री का निष्पादन करने वाली अदालत कौन से प्रश्नों को निर्धारित कर सकती है

Shadab Salim

11 April 2022 1:30 PM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 23: डिक्री का निष्पादन करने वाली अदालत कौन से प्रश्नों को निर्धारित कर सकती है

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 47 और संहिता की धारा 11 एक दूसरे की पूरक हैं क्योंकि दोनों धाराओं का उद्देश्य अनावश्यक मुकदमेंबाजी को रोकना है। इस धारा के माध्यम से डिक्री के निष्पादन से सम्बन्धित प्रश्नों का निपटारा कम समय और खर्चे में किया जा सकेगा अन्यथा अलग वाद के माध्यम से खर्चे में बढ़ोत्तरी और विलम्ब की पूरी संभावना बनी रहती है।

    दूसरे शब्दों में धारा 47 निष्पादन से सम्बन्धित सभी प्रश्नों का निपटारा करने की व्यवस्था करके न्यायालय को सशक्त बनाकर एक सस्ती, शीघ्र और अविलम्ब उपाय का उपबन्ध करती है। इस आलेख में इस महत्वपूर्ण धारा 47 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    धारा 47 का विस्तार क्षेत्र काफी बड़ा है। इस धारा के अन्तर्गत निष्पादन न्यायालय कब्जा परिदान करने के आदेश के सहवर्ती (सहगामी) के रूप में अन्तःकालीन लाभ प्रदान कर सकता है। निष्पादन करने वाले न्यायालय को अनन्य अधिकारिता दी गई है कि वह किसी डिक्री के निष्पादन से सम्बन्धित सभी प्रश्नों का निपटारा कर सके और इस सम्बन्ध में अलग से वाद वर्जित है।

    इस सम्बन्ध में धारा 47 की शब्दावली जो नीचे दी जा रही है, समीचीन है-

    "वे सभी प्रश्न जो उस वाद के पक्षकारों के या उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होते हैं जिनमें डिक्री पारित की गई थी और जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित है, डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा, न कि पृथक् वाद द्वारा अवधारित किये जायेंगे।

    जहाँ विच्छिन्न-विवाह (divorcee) पत्नी के पक्ष में एक भरण-पोषण की डिक्री पारित की गई है, पति की मृत्यु हो जाती है, पत्नी द्वारा घोषणा का वाद लाया जाता है कि यह घोषित कर दिया जाए कि मृत पति की सम्पत्ति पर उसके भरण-पोषण का भार (charge) है, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने नन्दरानी मजुमदार बनाम इण्डियन एअर लाइन्स नामक बाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि ऐसे वाद को अधिकारत: (as of right) निष्पादन का आवेदन माना जाना चाहिये।

    जहाँ धन सम्बन्धी डिक्री के निष्पादन में एक तीसरे व्यक्ति को सम्पत्ति बेच दी जाती है और वह इस बात का दावा करता है कि यह घोषित किया जाए कि ऐसी डिक्री उसके ऊपर बाध्यकारी नहीं है, और सम्पत्ति बात कब्जा वापस दिलाया जाय, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने अमीनाबी बनाम कुप्पस्वामी नायडू नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसा वाद धारा 47 के प्रावधानों से बाधित नहीं है।

    एक समझौते की डिक्री के निबन्धन यह थे कि प्रतिवादी को वाद की सम्पत्ति से 10 वर्ष बाद "न्यायालय में एक समुचित कार्यवाही के द्वारा" बेदखल किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय ने विवेकानन्दा भोआल बनाम एतीन्द्र मोहन देव में यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादी को समझौते की डिक्री के निष्पादन में बेदखल नहीं किया जा सकता। उसकी वेदखली के लिये नया वाद लाया जाना चाहिये।

    निष्पादन की कार्यवाही से किसी भी स्तर पर तथ्य के बारे में कोई आक्षेप नहीं किया गया। तथ्य के बारे में कोई आक्षेप निष्पादन की कार्यवाही में नहीं जांचा जा सकता तथ्य के बारे में कोई भी प्रश्न वाद के परीक्षण के दौरान हो उठाया जा सकता है।

    यहाँ पर दो बातों को नोट कर लेना आवश्यक है। प्रथम, वे प्रश्न जिनके सम्बन्ध में पृथक् वाद वर्जित है, ऐसे प्रश्न होने चाहिये जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित हो और द्वितीय वे पक्षकार जिनके बीच ऐसे प्रश्न उठते हैं, जो उस मुकदमें के पक्षकार होने चाहिये जिसमें डिक्री पारित की गई है। ऐसे पक्षकारों की परीक्षा में उनके प्रतिनिधि भी आते हैं।

    वाद के पक्षकार-

    वाद के पक्षकार से तात्पर्य ऐसे लोगों से हैं जिनको वाद के अभिलेख पर पक्षकार के रूप में चाहे सही या गलत तरीके से स्वीकार किया गया है सिवाय उनके जिन्होंने प्रतिनिधि की हैसियत से वाद संस्थित किया है या जिनके विरुद्ध प्रतिनिधि की हैसियत से वाद संस्थित किया गया है। एक ऐसा व्यक्ति जिसके विरुद्ध न तो कोई अनुतोष माँगा गया है और न ही उसके विरुद्ध कोई डिक्री पारित की गई है किन्तु उसके वाद का पक्षकार बनाया गया है।

    इस धारा के प्रयोजन के लिये वाद का पक्षकार माना जायेगा जहाँ किसी व्यक्ति के प्रतिनिधि की हैसियत से वाद संस्थित किया है या उसके विरुद्ध प्रतिनिधि को हैसियत से वाद संस्थित किया गया है, वहाँ वे सभी व्यक्ति जिनका प्रतिनिधित्व ऐसा व्यक्ति (जिसका नाम अभिलेख पर दर्ज है) करता है, इस धारा के प्रयोजन के लिये वाद के पक्षकार माने जायेंगे।

    "पक्षकारों के बीच" पद का तात्पर्य यह नहीं है कि केवल उन्हीं पक्षकारों के बीच जो एक दूसरे के विरुद्ध हैं जैसे वादी एवं प्रतिवादी वरन् वे भी उसके अन्तर्गत आ जायेंगे जो एक ही पक्ष में है और एक दूसरे के विरुद्ध हैं। उदाहरणस्वरूप जहाँ सम्पत्ति के विभाजन का दावा किया गया है, वहाँ सह प्रतिवादियों के बीच उठने वाला प्रश्न भी धारा 47 की सीमा में आ जायेगा।

    यहाँ यह ध्यान रहे कि वादी जिसका वाद खारिज हो चुका है और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध वाद खारिज हो चुका है इस धारा के प्रयोजनों के लिये वाद के पक्षकार है। और ऐसा क्रेता भी जिसने डिक्री के निष्पादन में डिक्री सम्पत्ति को खरीदा है इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस वाद का पक्षकार समझा जायेगा जिसमें वह डिक्री पारित की गई है।

    धारा 47 के अन्तर्गत प्रयुक्त शब्द "प्रतिनिधि" का तात्पर्य केवल विधिक प्रतिनिधि-जैसे उत्तराधिकारी, निष्पादक (executors) या प्रशासक (administrators) से नहीं है वरन उसके अन्तर्गत वे व्यक्ति भी आते हैं जिनको सम्पत्ति में हित समनुदेशन (assignment), स्वरूप न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर है।

    निष्पादन की कार्यवाही में पृथक् आक्षेप उनके द्वारा जो बाद के पक्षकार नहीं है, परन्तु इस आधार पर कि वे संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य हैं, पोषणीय नहीं है, वह भी तब जब कि 'निष्पादन के विरुद्ध' आक्षेप अन्य भागीदारों द्वारा दाखिल किया जा चुका है।

    धारा 47 के अन्तर्गत आक्षेप किये जाने के लिये कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। अतः आक्षेप को इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वह कालवर्जित है।

    डिक्री का निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि- वे प्रश्न जिनका अभिनिर्धारण डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय कर सकता है ये डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित होना चाहिये। डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित दो प्रकार के प्रश्न उठ सकते हैं। प्रथम, जहाँ डिक्रीदारों की संख्या एक से अधिक है, वहाँ उनके बीच और उनके प्रतिनिधियों के बीच ऐसे प्रश्न जिन पर निर्णय केवल उन्हें ही प्रभावित करते हैं और ये निर्णीतऋणी को प्रभावित नहीं करते और द्वितीय, वे प्रश्न जिन पर निर्णय निर्णीत ऋणी को भी प्रभावित करते हैं।

    ठीक उसी प्रकार दो प्रकार के प्रश्न निर्णीतऋणी जहाँ उसकी संख्या एक से अधिक है उनके बीच या उनके प्रतिनिधि के बीच उठ सकते हैं। प्रथम वे प्रश्न जिनसे केवल निर्णीत ऋणी या उनके प्रतिनिधि प्रभावित होते हैं और द्वितीय, वे प्रश्न जिनसे डिक्रीदार भी प्रभावित होते हैं।

    जहाँ बन्धक धन की वसूली के लिये एक अन्तिम डिक्री पारित की गई और ऐसी डिक्री के निष्पादन में नीलामी विक्रय किया गया, वहाँ ऐसी नीलामी डिक्री को धारा 47 के अन्तर्गत निरस्त किया जा सकता बशर्ते उस प्रारम्भिक डिक्री को जिस पर अन्तिम डिक्री आधारित है, अपील में उलट दिया गया हो। ऐसा निर्णय उच्चतम न्यायालय ने सुबेन्दु नारायन देव बनाम रेनुका विश्वास में दिया उच्चतम न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि नीलामी क्रेता को प्रारम्भिक डिक्री पर और उससे पहले वाद का पक्षकार नहीं माना जायेगा।

    बनारस स्टेट टेनेन्सी अधिनियम की धारा 159 के अन्तर्गत उठे एक मामले उमाशंकर बनाम सर्वजीत में उच्चतम न्यायालय ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि जहाँ एक व्यक्ति भूमि पर एक समझौते को डिक्री के अन्तर्गत काबिज है, और उसे बाद में उस कब्जे से बेदखल कर दिया जाता है वहाँ वह कब्जे के लिये (उस स्वत्व के अधीन जो उसे समझौते के अन्तर्गत प्राप्त हुआ है) वाद संस्थित कर सकता है। ऐसा वाद धारा 47 से बाधित नहीं है क्योंकि बेदखली से नये वाद हेतुक की उत्पत्ति होती है।

    डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों के उदाहरण समोचीन होंगे-

    (1) डिक्री के निष्पादन में गलती से ली गयी सम्पत्ति सम्बन्धी प्रश्न निर्णीत-ऋणी ऐसी सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिये आवेदन कर सकता है और ऐसा प्रश्न डिक्री के निष्पादन से सम्बन्धी प्रश्न माना जायेगा। उसके लिये अलग से वाद नहीं संस्थित किया जा सकता है। न्यायालयों को जो सामान्य शक्ति उन प्रश्नों के विनिश्चय के लिये, जिनका सम्बन्ध धारा 47 के अन्तर्गत निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से है, दी गई है का प्रयोग आदेश 21 नियम 2 जिसमें उपनियम (3) सम्मिलित है के प्रतिबन्धों के अधीन ही किया जा सकता है। अतः जहां डिक्री का समायोजन या भुगतान न्यायालय के बाहर किया गया है और जिसे आदेश 21 नियम 2 के अन्तर्गत सत्यापित/अभिलिखित नहीं किया गया है, उसे निष्पादन न्यायालय द्वारा मान्यता नहीं दी जायेगी।

    (2) ऐसी डिक्री के निष्पादन में ली गई सम्पत्ति जिसे बाद में संशोधित (amend) कर दिया गया। ऐसी सम्पत्ति से सम्बन्धी प्रश्न।

    (3) एकतरफा डिक्री (ex-parte decree) के निष्पादन में दो गई सम्पत्ति जिसे निरस्त कर दिया गया है।

    (4) डिक्री निष्पादन न करने का करार (agreement) सम्बन्धी प्रश्न।

    (5) डिक्री के पैसे का भुगतान कर दिया गया है या न्यायालय के बाहर उसका समायोजन (adjustment) कर दिया गया है, सम्बन्धी प्रश्न है।

    (6) बन्धक रखी गई विभिन्न सम्पत्तियों के आनुपातिक दायित्व से सम्बन्धित प्रश्न।

    (7) वे सभी प्रश्न जो नौलामी खरीदने वाले व्यक्ति और निर्णीतऋणी के बीच उठते हैं उनका अवधारण निष्पादन करने वाले न्यायालय के द्वारा किया जाना चाहिये, न कि अलग वाद संस्थित करके प्रश्नों के अन्तर्गत कब्जे का परिदान भी आता है।

    (8) ऐसी सम्पत्ति के क्रेता को या उसके प्रतिनिधि को कब्जा देने से सम्बन्धित सभी प्रश्न इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या उसकी तुष्टि से सम्बन्धित प्रश्न समझे जायेंगे।

    (9) कोई भी व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है कि नहीं, सम्बन्धी प्रश्न धारा 47 के अन्तर्गत आता है।

    (10) जहाँ एक डिक्री के निष्पादन में निर्णीतऋणी को अत्यधिक (excessive) सम्पत्ति अर्जित कर ली गई और सम्पत्ति को वापस करने के लिए आवेदन देता है, वहाँ ऐसे प्रश्न का निर्धारण धारा 47 के अन्तर्गत किया जा सकता है, अलग वाद के द्वारा नहीं।

    परन्तु किसी डिक्री को वैधता से सम्बन्धित प्रश्न डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित प्रश्न नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार निर्णीत ऋणी की सम्पदा का कुप्रशासन से सम्बन्धित प्रश्न धारा 47 के अन्तर्गत नहीं आता है। निर्णीत ऋणी द्वारा बिक्री के पहले भुगतान सम्बन्धी प्रश्न भी धारा के प्रावधानों के अन्तर्गत नहीं आता है। ऐसे प्रश्न भी जो किसी पक्षकार और उसके स्वयं के प्रतिनिधि के बीच उठते हैं डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित प्रश्न नहीं माने जायेंगे ऐसे पक्षकार से सम्बन्धित प्रश्न जिसे निष्पादन के प्रक्रम (stage) पर जोड़ा गया है इस धारा के अधीन नहीं आता।

    जहाँ एक विशेष अनुमति याचिका 12 वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय द्वारा खारिज की गई थी, और इसी से सम्बन्धित एक अर्न्तवर्ती आवेदन उच्चतम न्यायालय में दिया गया जिसमें स्वत्व (Title) और धोखा का प्रश्न उठाया गया, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स देवी दयाल रोलिंग मिल्स बनाम प्रकाश चिमन लाल पारिख 10 नामक बाद में अभिनिर्धारित किया कि स्वत्व और धोखा का प्रश्न, न तो विशेष अनुमति याचिका (संविधान के अनुच्छेद 136 या 142 के अन्तर्गत) में और न तो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47 के अन्तर्गत और न हो अन्तवतों आवेदन में उठाया जा सकता है।

    जहां याचिकाकर्ताओं को सिविल कोर्ट ने तृतीय श्रेणी का कर्मचारी घोषित किया, डिक्री अन्तिम और निश्चायक हो गई, उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर यह प्रार्थना किया गया कि कालेज प्राधिकारियों को यह निर्देश दिया जाय कि वे सिविल कोर्ट की घोषणा के अनुसार अनुतोष प्रदान करें, वहां उच्च न्यायालय ऐसा अनुतोष प्रदान कर निष्पादन न्यायालय के रूप में कार्यकर्ता नहीं माना जा सकता है।

    पंचाट के बारे में आक्षेप या तो निर्णीत ऋणी द्वारा विवाचक के समक्ष लाया जाना चाहिये या विचारण न्यायालय के समक्ष जब आवेदन पंचाट को निरस्त करने के लिये दिया जा रहा है। पंचाट जब अन्तिमता ग्रहण कर ले एक सिविल न्यायालय की डिक्री के समान तब आक्षेप नहीं स्वीकार किया जा सकता। निष्पादन की कार्यवाही में क्या निष्पादन न्यायालय डिक्री की पुनः परीक्षा कर सकता है?

    क्या निष्पादन न्यायालय किसी डिक्री की वैधता या शुद्धता के प्रश्न का निर्धारण कर सकता है? दूसरे शब्दों में क्या वह डिक्री की गुण-दोष के आधार पर जाँच कर सकता है? यह निष्पादन करने वाले न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। यह डिक्री की गुण-दोष के आधार पर जाँच नहीं कर सकता। निष्पादन न्यायालय को डिक्री उसी भाँति लेना चाहिये जिस प्रकार यह उसके सामने प्रस्तुत की गई है। क्योंकि धारा 47 यह मान कर चलती है कि एक वैध डिक्री विद्यमान है।

    तोपन मल बनाम कुन्डोमूल गंगा राम नामक वाद में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार निष्पादन न्यायालय डिक्री की छानबीन नहीं कर सकता है वह उसकी जाँच नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में उसके ऊपर भी सीमायें आरोपित हैं। उसका अधिकार डिक्री में दिये गये निर्देशों तक सीमित है। वह डिक्री की वैधानिकता या सत्यता को जाँच पड़ताल नहीं कर सकता। यह नियम उस सिद्धान्त पर आधारित है कि निर्णय के प्रवर्तन की कार्यवाही निर्णय की एक सम्पाविक कार्यवाही है और ऐसे कार्य में निर्णय के नियमितता या सत्यता की जाँच की अनुमति नहीं दी जा सकती।

    अतः निष्पादन न्यायालय को डिक्री का निष्पादन जैसे यह डिक्री है उसी तरह और उसकी शर्तों के अनुसार करना चाहिये इस धारा के अधीन न्यायालय की शक्तियाँ बिल्कुल भिन्न और अधिक संकुचित हैं यनिस्पत इसकी अपील, पुनरीक्षण और पुनर्विलोकन की शक्तियों के कोई भी निष्पादन न्यायालय पक्षकारों के बाद में विवादग्रस्त अधिकारों पर निर्णय नहीं कर सकेगा क्योंकि इस बात का (पक्षकारों के अधिकारों पर) निर्णय करने का कार्य विचारण न्यायालय का है।

    ऐसा न्यायालय डिक्री की आलोचना भी नहीं कर सकता और न ही डिक्री की कठोरता के विरुद्ध राहत दे सकता है। ऐसा न्यायालय पारित डिक्री में न तो कोई चीज जोड़ सकता है न तो उसमें कोई परिवर्तन कर सकता है। न्यायालय ऐसा कोई अनुतोष प्रदान नहीं कर सकता है जो डिक्री में आसन्न नहीं है।

    निर्णीत ऋणी के कहने पर निष्पादन न्यायालय डिक्री की तथ्यत: जांच नहीं कर सकता, डिक्री को अकृत और शून्य करने के लिये लेकिन कोई निष्पादन न्यायालय डिक्री की निष्पादकता (executability) के प्रश्न की छानबीन कर सकता है और इस बात पर विचार कर सकता है कि क्या पश्चातूवर्ती घटनाओं के नाते डिक्री अपनी शर्तों के अनुसार निष्पादन योग्य नहीं रह गई है।

    धारा 47 के अन्तर्गत एक आवेदन के माध्यम से यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि एक डिक्री अकृत होने के नाते निष्पादन योग्य नहीं है और न्यायालय ऐसे प्रश्न का विनिश्चय कर सकता है। एक डिक्री जो विधि की दृष्टि में अकृत है वह डिक्री है ही नहीं। अत: पक्षकारों की सहमति के द्वारा भी ऐसी डिक्री का निष्पादन न्यायालय नहीं कर सकता

    क्षेत्राधिकार के विरुद्ध आक्षेप निष्पादन न्यायालय का क्षेत्राधिकार/वैधता के विरुद्ध क्षेत्रीय अधिकारिता का आक्षेप निष्पादन न्यायालय के समक्ष नहीं लाया जा सकता।

    जहाँ एक डिक्री विधि में परिवर्तन के कारण निष्पादन योग्य नहीं रह गई है और पुनः विधि के परिवर्तन के कारण डिक्री निष्पादन योग्य हो गई है, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने दुलारे लोध बनाम थर्ड एडिसनल जज, कानपुर नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि वहाँ ग्रसन का सिद्धान्त (doctrine of Eclipse) लागू होगा और ऐसी डिक्री का निष्पादन किया जा सकता है।

    कोई भी निष्पादन न्यायालय डिक्री की वैधता को चुनौती नहीं दे सकता, वहाँ तक ठीक है जहाँ यह प्रश्न डिक्री के पक्षकारों के बची उठे। परन्तु जहाँ तक तीसरा पक्षकार जिसे निष्पादन के सम्बन्ध में तामील किया गया है वह न्यायालय के समक्ष डिक्री की वैधता का प्रश्न उठाता है, वहाँ, निष्पादन न्यायालय के पास अन्तर्निहित (inherent) अधिकारिता प्राप्त है कि वह डिक्री की वैधता के प्रश्न पर निर्णय दे सके।

    निष्पादन न्यायालय इस प्रश्न पर भी विचार कर सकता है कि कि क्या कोई डिक्री पारित है भी कि नहीं? हर डिक्री के समर्थन में निर्णय का होना आवश्यक है। अतः जहाँ डिक्री पूर्ण रूप से अकृत (nullity) या शून्य है वहां निष्पादन न्यायालय उसकी अवहेलना कर सकता है।

    अपवाद (Exceptions)

    उपरोक्त नियम के कुछ अपवाद भी हैं। अतः निम्नलिखित परिस्थितियों में कोई भी निष्पादन न्यायालय डिक्री को शुद्धता या वैधता के प्रश्न पर विचार करने के लिये उस डिक्री की पुनः परीक्षा कर सकता है-

    (1) जहाँ कि डिक्री शून्य प्रभावी हो या डिक्री प्रारम्भ से ही शून्य और अकृत हो निर्णीत ऋणी की यह आपत्ति की डिक्री एक शून्यता है क्योंकि यह एक मृत व्यक्ति के विरुद्ध पारित की गई है, और उसे पारित करने में उसका विधिक प्रतिनिधि अभिलेख पर नहीं लाया गया था मानने योग्य आपत्ति है और अगर इसे प्रमाणित कर दिया जाता है तो निष्पादन योग्य कोई डिक्री नहीं रह जाती।

    परन्तु जहाँ डिक्री मृत वादी के पक्ष में है (मृत्यु का ज्ञान न होने के कारण) और प्रतिवादी डिक्री को चुनौती नहीं देता, वहाँ निष्पादन न्यायालय डिक्री का निष्पादन इस आधार पर नहीं अस्वीकार कर सकता है कि डिक्री मृत व्यक्ति के पक्ष में है। ऐसा निर्णय मद्रास न्यायालय ने अब्दुल अजीज बनाम ध्यानाबगियाम्मल' नामक वाद में दिया।

    (2) जहाँ डिक्री अस्पष्ट या संदिग्ध है या जहाँ डिक्री की बातों का एक से अधिक अर्थ लगाया जा सके। ऐसी अवस्था में डिक्री की जाँच करना और निर्णय तथा अभिवचनों से डिक्री के वास्तविक अर्थ का अभिनिश्चित करना, निष्पादक न्यायालय का कर्तव्य है

    (3) जब डिक्री एक ऐसे न्यायालय द्वारा पारित की गई है जिसे डिक्री पारित करने की अधिकारिता नहीं प्राप्त थी' जैसे स्थानीय अधिकारिता (territorial jurisdiction) या धन सम्बन्धी अधिकारिता (pecuniary jurisdiction) क्षेत्राधिकार के आधार पर की गई आपति (आक्षेप) भी न्यायालय द्वारा ग्रहणीय होती है, क्योंकि बिना अधिकारिता के पारित की गई कोई भी डिक्री अकृत या शून्य है।

    "यह एक मूलभूत सिद्धान्त है कि जो डिक्री बिना अधिकारिता के पारित की जाती है, वह अकृत है और ऐसी डिक्री को अविधिमान्यता का प्रश्न कहीं भी और कभी भी उठाया जा सकता है, जहाँ ऐसी डिक्री को प्रवर्तित करने की बात उठायी जाती है या ऐसी डिक्री पर निर्भर हुआ जाता है, यहाँ तक कि निष्पादन के प्रक्रम पर और साम्पार्रिवक कार्यवाइयों (collateral proceedings) में भी अधिकारिता की त्रुटि चाहे वह धन सम्बन्धी, क्षेत्र सम्बन्धी या विषयवस्तु सम्बन्धी हो न्यायालय की डिक्री पारित करने की अधिकारिता की जड़ को ही काटती है और ऐसी त्रुटि को पक्षकारों की सहमति से भी ठीक (cure) नहीं किया जा सकता। विधि का यह सिद्धान्त उच्चतम न्यायालय ने किरन सिंह बनाम चमन पासवान नामक बाद में अभिनिर्धािरित किया।

    (4) जहाँ दो परस्पर विरोधी डिक्री दो सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालयों द्वारा उसी विषय-वस्तु को लेकर पारित की गई है, वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि पूर्ववर्ती डिक्री पक्षकारों के बीच के विवाद को पूर्ण रूप से निपटा देती है (decides) और ऐसी डिक्री प्राङ्गन्याय के रूप में प्रयुक्त होगी। पश्चात्वर्ती डिक्री शून्य (nullity) है। उसका विधि में कोई महत्व नहीं है। अतः ऐसी डिक्री निष्पादन योग्य नहीं है और न्यायालय ऐसी डिक्री का पुनः परीक्षण कर सकता है यह निश्चित करने के लिए कि क्या ऐसी डिक्री निष्पादन योग्य है।

    यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि जहाँ डिक्री अकृत या शून्य है, वहाँ ऐसी डिक्री प्रलक्षित प्राङ्गन्याय के रूप में लागू नहीं होगी ऐसा प्रश्न तब उठ सकता है जब डिक्री के निष्पादन सम्बन्धित प्रश्न धारा 47 के अन्तर्गत उठता हो।

    यहाँ इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि सभी अनियमित या गलत डिक्री या आदेश अनिवार्य रूप से शून्य और अकृत नहीं होते। एक गलत या अवैध निर्णय जो शून्य नहीं है उसके विरुद्ध निष्पादन या साम्पाविक कार्यवाहियों में आक्षेप नहीं उठाया जा सकता जहाँ निष्पादन समझौते की डिक्री का है, वहाँ पश्चातुवर्ती घटनाओं को नोट किया जा सकता है। उस डिक्री को अनिष्पादन योग्य बनाया जा सकता है और वह भी तब, जब बड़ी लोक हित की घटना अन्तवलित हो।

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