सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 25: संहिता की धारा 51, 52, 53 एवं 54 पर टिप्पणी

Shadab Salim

12 April 2022 1:30 PM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 25: संहिता की धारा 51, 52, 53 एवं 54 पर टिप्पणी

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 51, 52, 53 एवं 54 पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    धारा 51

    डिक्री के निष्पादन हेतु यह धारा न्यायालय की अधिकारिता और शक्ति को परिभाषित करती है। किस प्रकार डिक्री का निष्पादन किया जाय, तरीका संहिता की अनुसूची (schedule) में दिया गया है। सामान्य तौर से यह धारा उन तमाम ईंगों को बताती है जिसके अनुसार डिक्री का निष्पादन किया जा सकता है। इस धारा में जितने ढंग बताये गये हैं, न्यायालय उन सब का उपयोग किसी मामले में नहीं कर सकती। न्यायालय संहिता में बताए गये प्रक्रिया के अनुसार निर्देशित होगी और प्रत्येक मामले में उपर्युक्त ढंग (mode) का उपयोग करेगी।

    साथ-साथ निष्पादन-निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध व्यक्तिगत कार्यवाही और उसकी सम्पत्ति के विरुद्ध कार्यवाही दोनों प्रकार के निष्पादन की अनुमति साथ-साथ या एक ही समय पर दी जा सकती है परन्तु न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि दोनों प्रकार के निष्पादन के साथ-साथ या एक ही समय की अनुमति देने से अस्वीकार कर दे और डिक्री धारक से कड़े कि दोनों में से एक का चुनाव एक समय पर करे हालांकि यह सच है जैसा कि प्रिवी कौंसिल ने कहा है कि भारत वर्ष में एक मुकदमों के पक्षकार (litigant) की कठिनाई उस समय उत्पन्न होती है जब वह डिक्री प्राप्त कर लेता है। किसी न्यायालय के लिये यह न्यायोचित नहीं होगा कि वह डिक्री का निष्पादन इस आधार पर अस्वीकार कर दें कि निर्णीत ऋणी के विरुद्ध व्यक्तिगत कार्यवाही करने से पहले उसकी सम्पत्ति के विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिये।

    निष्पादन के ढंग-

    किसी डिक्री का निष्पादन निम्नलिखित में से किसी भी ढंग द्वारा किया जा सकता है;

    (1) विनिर्दिष्ट रूप से डिक्रीत किसी सम्पत्ति के परिदान द्वारा;

    (2) किसी सम्पत्ति को कुर्की और विक्रय द्वारा या उसकी कुर्की के बिना विक्रय द्वारा; और

    (3) गिरफ्तारी और कारागार में निरोध द्वारा

    जहाँ कम्पनी के एक निदेशक ने कम्पनी के निदेशक की हैसियत से कार्य करके कम्पनी को क्षति पहुंचायी, और उसके विरुद्ध धन की अदायगी की डिक्री पारित की गई, वहाँ कलकत्ता उच्च न्यायालय ने तुलसीदास मुंधरा बनाम आफिसियल लिक्वीडेटर' नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि इस धारा के अन्तर्गत निदेशक को बन्दी बनाया जा सकता है:

    परन्तु जहाँ डिक्री धन के संदाय के लिए है, डिक्री कम्पनी के विरुद्ध उसके मैनेजिंग डाइरेक्टर के द्वारा और मैनेजिंग डाइरेक्टर के विरुद्ध है, डिक्री, मैनेजिंग डाइरेक्टर के विरुद्ध उसकी व्यक्तिगत हैसियत में नहीं पारित है, वहीं पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने मारुति लि० चंडीगढ़ बनाम पान इंडिया प्लास्टिक प्रा० लि०, नई दिल्ली? नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसे मैनेजिंग डाइरेक्टर के विरुद्ध निरोध की कार्यवाही नहीं की जा सकती।

    जहां न्यायालय ने वित्तीय दायित्व अधिरोपित किया है इसका प्रवर्तन व्यक्ति के गिरफ्तारी और निरोध से हो सकता है।

    (4) रिसीवर की नियुक्ति द्वारा; अथवा

    (5) ऐसी अन्य रीति से किया जाय जिसकी दिये गये अनुतोष की प्रकृति अपेक्षा करे :

    परन्तु जहाँ डिक्री धन के संदाय के लिये, निर्णीत-ऋणी को बन्दी बनाने का आदेश या उसके कारागार में निरोध का आदेश तब तक नहीं पारित किया जा सकता है जब तक कि निर्णीत-ऋणी का व्यवहार (निष्पादन सम्बन्धित) हठी और दुराग्रह पूर्ण न हो। इसी प्रकार निर्णीत-ऋणी को बन्दी बनाये जाने और जेल में निरोध का आदेश देने से पहले कारण बताओ की सूचना दिया जाना आवश्यक है। मात्र धन के अदायगी की असमर्थता बन्दी बनाने के लिये उचित कारण नहीं हो सकती है।

    निर्णीत ऋण को अदा करने के लिए निर्णीत-ऋणी के पास पर्याप्त साधन है यह प्रमाणित करने की जिम्मेदारी डिक्रीदार की है। निर्णीत-ऋणों के पास पर्याप्त साधन है और वह भुगतान करने से अस्वीकार करता है तभी उसे बन्दी बनाया जा सकता है? धारा में दिये गये स्पष्टीकरण के अनुसार, जब निष्पादन निर्णीत-ऋणी की सम्पत्ति के विरुद्ध है, और उसके साधनों को गणना की जा रही है, तो गणना में से ऐसी सम्पत्ति छोड़ दी जाएगी जो डिक्क्री के निष्पादन में किसी विधि के अनुसार कुर्क नहीं हो सकती।

    जहाँ डिक्री का निष्पादन निर्णीत-ऋणी को बन्दी बनाकर कारागार में निरोध द्वारा है, वहीं बन्दी बनाये जाने के लिए किये गये आदेश को न्यायोचित बनाने वाली परिस्थितियों को विद्यमानता या तो निष्पादन के लिये दिये जाने वाले आवेदन में अधिकथित किया जाना चाहिये या पृथक् आवेदन या शपथपत्र (affidavit) में अभिकथित किया जाना चाहिए जो निष्पादन के आवेदन के साथ रहेगा। ऐसा न होने पर न्यायालय आदेश 21, नियम 37 के अधीन कोई कार्यवाही न कर सकेगा।

    जहाँ डिक्री के निष्पादन का प्रश्न निर्णीत-ऋणी को बन्दी बनाकर कारागार में निरोध द्वारा है वहाँ बंदी बनाये जाने के लिये वारण्ट जारी करने से पहले, न्यायालय के लिये आवश्यक है कि वह दोनों पक्षकारों डिक्री धारक एवं निर्णीत ऋणी यह अवसर प्रदान करे कि वे इस प्रश्न पर कि निर्णीत-ऋणी ने जानबूझकर भुगतान में व्यतिक्रम (default) किया है, साक्ष्य प्रस्तुत कर सके।

    जहाँ प्रश्न बिक्री कर के बकाये की वसूली का है और ऐसो वसूलों के लिये व्यतिक्रम (default) करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध बंदी बनाने और निरोध सम्बन्धी प्रावधानों को लागू करने का है, वहां उच्चतम न्यायालय ने रामनरायन बनाम स्टेट आफ यू० पी० नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 51 के प्रावधान बंदी और निरोध सम्बन्धी जो प्रक्रिया उ० प्र० जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के अन्तर्गत बताई गई है, उस पर लागू नहीं होगा।

    धारा 52 (विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध डिक्री का प्रवर्तन)

    धारा 50 इस बात का उपबन्ध करती है कि डिक्री का निष्पादन निर्णीत ऋणी के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध की जा सकती है तब जब कि डिक्री की पूर्णरूप से तुष्टि होने के पूर्व निर्णीत-ऋणी को मृत्यु हो गयी है। लेकिन धारा 52 इस बात का उपबन्ध करती है या उन परिस्थितियों में लागू होती है जहाँ डिक्री किसी मृत व्यक्ति के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध पारित की गई है। दूसरे शब्दों में जब विधिक प्रतिनिधि हो निर्णीत-ऋणी है।

    धारा 52 की उपधारा (1) इस वाद का अधिकार किसी ऋणदाता (creditor) को प्रदान करती है कि वह मृतक व्यक्ति के विधिक प्रतिनिधि के हाथों में जो सम्पत्ति है उसके विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है, और उपधारा (2) इस बात का उपबन्ध करती है कि ऋणदाता विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से कार्यवाही कर सकता है अगर विधिक प्रतिनिधि हाथ में आयो सम्पत्ति का समुचित लेखा जोखा नहीं दे पाता।

    आवश्यक शर्ते- धारा के लागू होने के लिये आवश्यक शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-

    (1) जहाँ डिक्री प्रतिवादी के विरुद्ध किसी मृतक व्यक्ति के विधिक प्रतिनिधि की हैसियत से पारित की गई है और

    (2) ऐसी डिक्री धन की अदायगी के लिए है और अदायगी मृतक की सम्पत्ति जो विधिक प्रतिनिधि के हाथों में है, से की जानी है।

    डिक्री न केवल पिता की उस निजी एवं पृथक सम्पत्ति के विरुद्ध पारित की जा सकती है जो उसके पुत्रों के हाथों में है अपितु संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में पिता के उस हिस्से के विरुद्ध भी पारित की जा सकती है जो पुत्रों को उत्तरजीविता (survivorship) के अधिकार द्वारा मिली है और डिक्रीधारी ऐसो सम्पत्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का अधिकारी है।

    जहाँ डिक्री एक हिन्दू विधवा एवं उसके अवयस्क पुत्रों के विरुद्ध विधिक प्रतिनिधि को हैसियत से पारित की गई है, किन्तु डिक्री विशिष्टतः विधवा को व्यक्तिगत रूप से दायी नहीं ठहराती वहाँ ओड़ीसा उच्च न्यायालय ने लक्ष्मीधर साहू बनाम पद्मिनी त्रिपाठी? नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी विधवा को व्यक्तिगत सम्पत्ति कुर्क नहीं किया जा सकता।

    धारा 53

    यह धारा एक प्रकार से धारा 50 और 52 का स्पष्टीकरण करती है और मृतक व्यक्ति को सम्पत्ति को व्याख्या करती है। यह धारा विधिक प्रतिनिधि की परिभाषा को जो संहिता की धारा 2, उपधारा 11 में दी गई है उसे विस्तृत करती है क्योंकि पद "विधिक प्रतिनिधि के अन्तर्गत हिन्दू के पुत्र या वंशज, जहाँ तक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति उनके हाथों में है और जो मृतक पूर्वज को ऋण की अदायगी के लिये हिन्दू विधि के अधीन दायी (liable) है, सम्मिलित करती है। धारा 52 के मौलिक शब्दों में-"पुत्र या अन्य वंशज के हाथों में की ऐसी सम्पत्ति के बारे में, जो मृत पूर्वज के ऐसे ऋण चुकाने के लिए हिन्दू विधि के अधीन दायी है, जिसके लिये डिक्री पारित की जा चुकी है, धारा 50 और 52 के प्रयोजनों के लिये यह समझा जायेगा कि वह मृतक की ऐसी सम्पत्ति है जो उसके विधिक प्रतिनिधि के रूप में पुत्र या अन्य वंशज के हाथ में आयी है।"

    अतः धारा 50, 52 और 53 को एक साथ पढ़ने से यह स्पष्ट है कि पैत्रिक सम्पत्ति जो किसो पुत्र या वंशज के हाथ में है, के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन में कार्यवाही की जा सकती है जैसे वह मृतक को आस्ति (assets) वंशज के हाथों में है।

    यह धारा वहाँ नहीं लागू होती है जहाँ पूर्वज जिसके विरुद्ध डिक्री पारित की गई है जीवित है। यह धारा धन सम्बन्धी डिक्री तक ही सीमित नहीं है अपितु वह सभी प्रकार की डिक्री पर लागू होती है।

    धारा 54

    जहाँ डिक्री किसी ऐसी अविभक्त सम्पदा के विभाजन के लिये है, जिस पर सरकार को दिये जाने के लिये राजस्व निर्धारित है, वहाँ इस धारा के उपबन्धों के अनुसार ऐसी सम्पत्ति का विभाजन कलेक्टर द्वारा या किसी राजपत्रित अधीनस्थ द्वारा जो इस निमित्त प्रतिनियुक्त किया गया हो, किया जायेगा।

    यह धारा ऐसे मामले का विवेचना करती है जहां दीवानी न्यायालय डिक्री तो पारित कर सकते हैं पर उस डिक्री का निष्पादन स्वयं नहीं कर सकते। इस धारा के अधीन डिक्री का निष्पादन कलेक्टर के द्वारा किया जायेगा। दीवानी न्यायालय को उस मामले में कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। ऐसा दो कारणों से किया गया है। प्रथम, यह कि धारा में वर्णित मामलों में लगान सम्बन्धी अधिकारी ज्यादे जानकारी रखते हैं और ऐसे मामलों को अधिक दक्षता के साथ निपटा सकते हैं। दूसरे, ऐसे मामले जिसमें सरकार को देने के लिये लगान (राजस्व) निर्धारित है उस हित का संरक्षण कलेक्टर न्यायालय की अपेक्षा ज्यादा कर सकता है।

    इस धारा के अधीन जहाँ कलेक्टर के द्वारा विभाजन कर दिया गया है, वहाँ न्यायालय ऐसे विभाजन पर कोई निर्णय नहीं दे सकते है।

    धारा 54 के अन्तर्गत कार्य करते हुये कलेक्टर समुचित मामले में सम्पत्ति का सायिक बँटवारा (equitable partition) कर सकता है और ऐसा करते समय न तो डिक्री का उल्लंघन करता है और न हो किसी विधि का अतिलंधन (transgression) करता है। ऐसा निर्णय उच्चतम न्यायालय ने खेमचन्द शंकर बनाम विष्णु हरी नामक वाद में दिया।

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