सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 24: अन्तरिती और विधिक प्रतिनिधि

Shadab Salim

12 April 2022 4:38 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 24: अन्तरिती और विधिक प्रतिनिधि

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 49 अन्तरिती और धारा 50 विधिक प्रतिनिधि के संबंध में घोषणा करती है। इस आलेख में इन दोनों ही महत्वपूर्ण धाराओं पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    धारा 49 (अन्तरिती)

    धारा 49 प्रावधान ठीक उसी प्रकार से है जो सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम 1882 की धारा 132 के हैं। धारा 132 के अनुसार एक समुनेदशिती (अन्तरिती) की स्थिति समनुदेशक से अच्छी नहीं होती जहाँ तक समनुदेशक (assignor) और उसके ऋणदाता के बीच की साम्या का प्रश्न है, वह साम्या जो समनुदेशन के समय थी।

    मुजराई (set of) का अधिकार एक साम्या है, और अगर एक निर्णीत-ऋणी को एक प्रति डिक्री (cross decree) में मुजराई का अधिकार है तो यह अधिकार (मुजराई का) उसे डिक्रीदाता के समनुदेशिती के विरुद्ध भी है, यह धारा उन सभी डिक्रियों पर लागू होती है चाहे वह बन्धक की डिक्री ही क्यों न हो।

    इस धारा को इन दो उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है

    1-''अ' 'ब' के विरुद्ध 5000 रुपये को एक डिक्रो धारित करता है। 'ब''अ' के विरुद्ध 3000 को एक डिको धारित करता है। 'अ' अपने डिक्रो का अन्तरण 'स' को कर देता है। 'स' 'ब' के विद डिक्री का निष्पादन 2000 रुपये से ज्यादे के लिये नहीं कर सकता है।

    2-'अ''ब' के विरुद्ध 5000 रुपये को एक ढिक्री प्राप्त करता है। 'ब' उसके पश्चात् 2000 के लिए 'अ' के विरुद्ध एक दावा संस्थित करता है। बाद के लम्बित रहते 'स'. "अ' के डिक्री का अन्तरण इस सूचन के साथ 'ब' ने वाद संस्थित किया है, प्राप्त करता है। तत्पश्चात् 'अ' के विरुद्ध और 'व' के पक्ष में दिनो पारित की जाती है। 'स' 'ब' के विरुद्ध डिक्री की पूरी रकम अर्थात् 5000 रुपये के लिए निष्पादन को कार्यवाही करता है। वह 3000 रुपये से ज्यादे के लिये डिक्री का निष्पादन नहीं करा सकता क्योंकि उसने अन्तरण इसी सूचना के साथ प्राप्त किया था कि 'ब'ने 'अ' के विरुद्ध वाद संस्थित किया है।

    धारा 50 (विधिक प्रतिनिधि)

    धारा 50 यह उपबन्धित करती है कि जहाँ डिक्री के पूर्णत: तुष्ट किये जाने से पहले निर्णीतऋणी की मृत्यु हो जाती है, वहाँ उस डिक्री का धारक डिक्री का निष्पादन उस मृतक निर्णीत-ऋणी के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध कर सकता है चाहे ऐसे विधिक प्रतिनिधि को डिक्री को पारित होने के पहले या डिक्री पारित होने के पश्चात् बनाया गया है। यहाँ पर यह ध्यान देना समीचीन होगा कि ऐसा विधिक प्रतिनिधि मृतक को सम्पत्ति के उस परिणाम (extent) तक हो दायी होगा जितने परिणाम तक वह सम्पत्ति उसके हाथ में आयी है और सम्यक रूप से व्ययनित (disposed of) नहीं कर दी गई है जहाँ निर्णीत- ऋणी को मृत्यु एक मोटर दुर्घटना में हो जाती है, और उत्तराधिकारियों को क्षतिपूर्ति की जाती है, वहाँ ऐसे क्षतिपूर्ति की रकम को जो उत्तराधिकारियों के हाथ में है, मृत निर्णीत-ऋणों के विरुद्ध पारित डिक्री के निष्पादन में कुर्क नहीं किया जा सकता है।

    जहाँ डिक्री एक ऐसे व्यक्ति के विरूद्ध पारित की गई है जिसको मृत्यु वाद के लम्बित (pending) रहते हो गई है, और उसके विधिक प्रतिनिधि को वाद का पक्षकार नहीं बनाया गया है और न ही संहिता के आदेश 22, नियम 4(4) के अन्तर्गत छूट माँगी गयी है, वह ऐसी डिक्री अकृत (nullity) है और ऐसी डिक्री का निष्पादन विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है।

    जहाँ निष्पादन को कार्यवाही निर्णत-ऋणी के विरुद्ध प्रारम्भ की जा चुकी है और निर्णत- ऋणी को मृत्यु हो जाती है, वहां ऐसे निष्पादन की कार्यवाही जारी रहेगी अगर विधिक प्रतिनिधि को पक्षकार बना दिया गया है। निष्पादन की कार्यवाही आगे जारी रखने के लिए अलग से आवेदन देने की आवश्यकता नहीं है।

    विधिक प्रतिनिधि जिसके विरुद्ध निष्पादन की कार्यवाही प्रारम्भ की गई है अगर उसको मृत्यु हो जाती है तो निष्पादन की कार्यवाही उसे विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध की जा सकेगों लेकिन सम्पत्ति के इसी परिणाम तक जिस तक उसे मूल ऋणी (original judgement debtor) की सम्पत्ति प्राप्त हुई है।

    जहाँ एक स्थायी व्यादेश की डिक्री प्रतिवादियों के विरुद्ध पारित की गई है कि वे वादी के रास्ते के अधिकार को जो प्रतिवादियों के मकान के पीछे से होकर गुजरता है, न बाधित करे, निर्णीत-ऋणी प्रतिवादी ने उस मकान को पिछवाड़े सहित बेच दिया, वहाँ कर्नाटक उच्च न्यायालय ने रामचन्द्र देश पाण्डेय बनाम लक्षमना राव कुलकर्णी में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी डिक्री को अन्तरिती निर्णीत ऋणी के विरुद्ध निष्पादित किया जा सकता है क्योंकि यह उस नियम का अपवाद है कि व्यादेश भूमि के साथ-साथ नहीं चलता।

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