फैमिली लॉ डाइजेस्ट 2021, भाग दो : सहमति से तलाक, भरण पोषण के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के प्रमुख फैसले

LiveLaw News Network

31 Dec 2021 9:45 AM GMT

  • फैमिली लॉ डाइजेस्ट 2021, भाग दो : सहमति से तलाक, भरण पोषण के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के प्रमुख फैसले

    वर्ष 2021 समाप्त हो रहा है, लाइव लॉ आपके लिए सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट से पारिवारिक कानून के विषय में महत्वपूर्ण अपडेट का वार्षिक राउंड-अप लाया है। इस वार्षिक डाइजेस्ट में 100 आदेश और निर्णय शामिल हैं।

    ऑल इंडिया फैमिली लॉ डाइजेस्ट 2021: सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के प्रमुख फैसले : पहला भाग

    इस डायजेस्ट का पहला भाग प्रकाशित हो चुका है। पेश है इसका दूसरा भाग, जिसमें क्रूरता, आपसी सहमति से तलाक, भरण पोषण जैसे मुद्दों से जुड़े महत्वपूर्ण जजमेंट दिए जा रहे हैं।

    पति/पत्नी के खिलाफ उसकी नौकरी को प्रभावित करने के उद्देश्य से झूठा आरोप लगाना 'मानसिक क्रूरता': बॉम्बे हाईकोर्ट

    [मामला: थलराज बनाम ज्योति]

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि पति के आचरण से ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी न किसी रूप में पत्नी की सेवा पर प्रतिकूल प्रभाव डालने का इरादा रखता है। कोर्ट (नागपुर बेंच) ने फैमिली कोर्ट, नागपुर द्वारा पारित निर्णय और आदेश को बरकरार रखा, जिसमें पत्नी के पक्ष में तलाक डिक्री प्रदान की गई थी।

    न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर और न्यायमूर्ति पुष्पा वी. गनेडीवाला की खंडपीठ ने विशेष रूप से कहा, " ... याचिका में पति या उसके रिश्तेदारों के खिलाफ निराधार आरोप लगाना या पत्नी की नौकरी को प्रभावित करने की दृष्टि से शिकायत करना मानसिक क्रूरता का कारण है।।"

    8. वैवाहिक कार्यवाही में पत्नी का पति पर नपुंसकता या स्तंभन दोष का आरोप लगाना क्रूरता: केरल हाईकोर्ट

    [मामला: XXX बनाम XXX]

    केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में माना है कि वैवाहिक कार्यवाही में पति या पत्नी द्वारा दूसरे के खिलाफ नपुंसकता या स्तंभन दोष का आरोप लगाना क्रूरता होगा। अपीलकर्ता पति की ओर से त्रिशूर फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ, अपील दायर की गई थी, जिसका प्रतिनिधित्व एडवोकेट एनके सुब्रमण्यम ने किया था। फैमिली कोर्ट ने अपीलकर्ता को विवाह समाप्त करने के डिक्री देने से इनकार कर दिया था। हाईकोर्ट ने अपील को स्वीकार किया और फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया।

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    9. पत्नी के खिलाफ विश्वासघात और बेवफाई का आरोप लगाना मानसिक क्रूरता के समानः केरल हाईकोर्ट ने कपल को तलाक की मंजूरी दी

    [मामला: सबिता उन्नीकृष्णन बनाम विनीत दास]

    केरल हाईकोर्ट ने सोमवार को एक वैवाहिक अपील को अनुमति देते हुए कहा कि कि एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे के खिलाफ निराधार और चरित्र हनन का आरोप लगाना मानसिक क्रूरता का गठन करेगा।

    न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुस्तक और न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ ने कहा किः ''प्रतिवादी उसके द्वारा लगाए गए उन आरोपों को साबित करने में बुरी तरह विफल रहा है कि अपीलकर्ता का किसी अन्य व्यक्ति के साथ संबंध है और वह एक अपवित्र महिला है। पत्नी पर अपवित्रता और विश्वासघात जैसे घृणित आरोप लगाना, निस्संदेह मानसिक क्रूरता का सबसे खराब रूप है।''

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    10. एक विवाहित महिला को अपने माता-पिता के घर में रहने के लिए मजबूर करना क्रूरता के समानः मध्यप्रदेश हाईकोर्ट

    [मामला: अमर सिंह बनाम विमला]

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि शादी के बाद एक विवाहित महिला को अपने पैतृक घर में रहने के लिए मजबूर करना क्रूरता है और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वह बिना उचित कारण के अलग रह रही थी। इस मामले में न्यायमूर्ति जीएस अहलूवालिया की पीठ एक आपराधिक रिवीजन याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी।

    फैमिली कोर्ट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत पति को निर्देश दिया था कि वह अपनी पत्नी को प्रति माह 7,000 रुपये का भुगतान करे। इसी मामले में हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की है।

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    11. "दिल्ली पुलिस में पत्नी की नौकरी लगने के बाद पति ने उसे कमाऊ गाय के रूप में देखा" : दिल्ली हाईकोर्ट ने क्रूरता के आधार पर विवाह भंग किया

    [मामला: सन्नो कुमारी बनाम कृष्ण कुमार]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने क्रूरता के आधार पर तलाक के डिक्री पारित करके एक जोड़े के बीच विवाह भंग कर दिया। कोर्ट ने यह देखा कि पति ने दिल्ली पुलिस में नौकरी पाने वाली अपनी पत्नी को बिना किसी भावनात्मक संबंधों के एक कमाऊ गाय (कैश काऊ) के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की। न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह एक महिला द्वारा दायर एक अपील पर विचार कर रहे थे, जिसमें परिवार न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई थी, क्योंकि फैमेली कोर्ट द्वारा क्रूरता या परित्याग के किसी भी आधार को स्थापित नहीं किया गया था।

    इस जोड़े के बीच वर्ष 2000 में विवाह संपन्न हुआ जब पत्नी नाबालिग थी और 13 वर्ष की थी जबकि पति की आयु 19 वर्ष थी। 2005 में वयस्क होने के बाद भी पत्नी नवंबर 2014 तक अपने पैतृक घर में रही। उक्त अवधि के दौरान वह पढ़ रही थी और अपनी योग्यता के कारण दिल्ली पुलिस में नौकरी पाने में सक्षम बनी।

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    12. दिल्ली हाईकोर्ट ने पति को तलाक देने से इनकार करते हुए कहा, पत्नी द्वारा दहेज की मांग और शराब पीने का आरोप लगाना 'क्रूरता' नहीं

    [मामला: हरीश कुमार बनाम सरिता]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि वैवाहिक संबंधों में सामान्य ऊंच-नीच होती रहती ही है। हालांकि यह रिश्ते को खत्म करने का कोई कारण नहीं हो सकता।

    न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह ने आगे कहा कि पत्नी द्वारा पति के खिलाफ दहेज की मांग करने और शराब के नशे में धुत होने के आरोप उसके चरित्र पर गंभीर आरोप लगाने के लिए इस हद तक नहीं हैं कि वे उसके प्रति अत्यधिक मानसिक पीड़ा और क्रूरता का कारण बन जाएं।

    हाईकोर्ट, फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली पति द्वारा दायर एक अपील पर सुनवाई कर रहा था। उसके द्वारा क्रूरता के आधार पर दायर उसकी तलाक की याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि वह उक्त आधार को स्थापित करने में असमर्थ रहा। पक्षकारों की शादी 2008 में हुई थी और उनके दो बच्चे हैं- एक बेटा और एक बेटी। दोनों बच्चे प्रतिवादी पत्नी के साथ रह रहे हैं। याचिकाकर्ता पति अक्टूबर, 2014 से अलग रह रहा है।

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    द्विविवाह का प्रथा

    तलाक की डिक्री पर रोक के दौरान दूसरा विवाह करना : बाद में अपील खारिज होने पर आईपीसी की धारा 494 के तहत कोई अपराध नहीं बनताः केरल हाईकोर्ट

    [मामला: मनोज बनाम केरल राज्य और अन्य।]

    केरल हाईकोर्ट ने माना है कि यदि कोई पक्ष उस समय दूसरी शादी कर लेता है, जब पहली शादी के तलाक की डिक्री की अपील लंबित हो, तो वह भारतीय दंड संहिता(आईपीसी) की धारा 494 के तहत द्विविवाह के अपराध का दोषी नहीं होगा, अगर बाद में तलाक की अपील खारिज हो जाती है।

    द्विविवाह का आरोप लगाने वाली शिकायत को रद्द करने की मांग करते हुए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत दायर एक याचिका को अनुमति देते हुए अदालत ने फैसला सुनाया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 15 हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 28 को ओवरराइड नहीं करती है, जो अपील का अधिकार प्रदान करती है।

    न्यायमूर्ति पी. सोमराजन ने आपराधिक मिश्रित याचिका को अनुमति देते हुए कहा किः ''एक बार जब अपील फैमिली कोर्ट के तलाक की डिक्री की पुष्टि करते हुए खारिज कर दी जाती है, तो यह अधिनियम की धारा 15 के तीसरे अवयव के तहत आ जाएगी, भले ही शादी अपील की प्रस्तुति से पहले या अपील के समापन से पहले की गई हो।'' यह टिप्पणी उस मामले में की गई है,जिसमें एक महिला ने आरोप लगाया था कि तलाक की डिक्री के खिलाफ अपील के लंबित रहने के दौरान उसके पति ने दूसरी शादी कर ली।

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    2. तलाक के बिना लिव इन रिलेशनशिप में रहना आईपीसी की धारा 494 के तहत अपराध हो सकता है : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि यदि कोई विवाहित व्यक्ति अपने जीवनसाथी (पति या पत्नी) से तलाक लिए बिना लिव-इन-रिलेशनशिप में है तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत अपराध हो सकता है।

    न्यायमूर्ति अशोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने अपने पति से तलाक लिए बिना लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली एक महिला द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए इस प्रकार देखा। अनिवार्य रूप से याचिकाकर्ताओं (महिला और उसके साथी) ने यह प्रस्तुत करते हुए कि वे लिव-इन-रिलेशनशिप में हैं, निजी उत्तरदाताओं के हाथों अपने जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उत्तरदाताओं नंबर 1 से 3 को निर्देश जारी करने की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया।

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    आपसी सहमति से तलाक

    1. क्या सुप्रीम कोर्ट की एकल पीठ आपसी सहमति से तलाक का डिक्री पारित कर सकती है? सुप्रीम कोर्ट के विरोधाभासी फैसले

    [मामला: अविनाश तिवारी बनाम यूपी राज्य और अन्य।]

    क्या सुप्रीम कोर्ट की एकल पीठ आपसी सहमति से तलाक का डिक्री पारित कर सकती है? कुछ न्यायाधीशों ने अकेले बैठकर तलाक की ऐसी डिक्री पारित की हैं, और कुछ अन्य ने यह कहते हुए कि उनके पास ऐसी शक्ति नहीं है, मामलों को डिवीजन बेंच को भेज दिया है।

    सुप्रीम कोर्ट की एकल पीठ ने आपसी सहमति से तलाक की डिक्री देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 को लागू किया।

    न्यायमूर्ति जेके माहेश्वरी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील का निपटारा करते हुए ये आदेश दिया, जिसमें उसकी पत्नी द्वारा उसके खिलाफ धारा 498-ए, 354, 323, 377 और 506 आईपीसी और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3/4 के तहत दर्ज प्राथमिकी रद्द करने के लिए 'पति' की याचिका खारिज कर दी गई थी।

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    2. ट्रांसफर याचिका की सुनवाई करने वाली एकल पीठ अनुच्छेद 142 के तहत आपसी सहमति से तलाक की डिक्री पारित नहीं कर सकती : सुप्रीम कोर्ट

    [मामला: सबिता शशांक सिंह बनाम शशांक शेखर सिंह; प्रशस्ति पत्र: एलएल 2021 एससी 157]

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रांसफर याचिका की सुनवाई करने वाली एकल पीठ भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के साथ पठित हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 बी के तहत आपसी सहमति से तलाक की डिक्री पारित नहीं कर सकती है हाल ही में एक आदेश में न्यायमूर्ति अभय एस ओका ने सुप्रीम कोर्ट के नियम 2013 का हवाला देते हुए कहा कि वह 'अकेले बैठकर' तलाक का डिक्री पारित नहीं कर सकते।

    एकल पीठ के समक्ष ट्रांसफर याचिका के पक्षकारों ने प्रस्तुत किया कि मध्यस्थ के समक्ष हुए समझौते के संदर्भ में, उन्होंने सभी सहमत नियमों और शर्तों का अनुपालन किया है।

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    3. स्‍थानांतरण याचिका की सुनवाई कर रही सिंगल बेंच सहमति से विवाह विच्छेद करने की ड‌िक्री पारित करने के लिए अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति का उपयोग नहीं कर सकतीः सुप्रीम कोर्ट

    [केस: सबिता शशांक सिंह बनाम बनाम शशांक शेखर सिंह [TRANSFER PETITION (C) NO. 908 OF 2019]

    सुप्रीम कोर्ट ने माना कि स्‍थानांतरण याचिका पर सुनवाई करते हुए उसकी सिंगल बेंच आपसी सहमति से विवाह विच्छेद करने की ड‌िक्री पारित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति का उपयोग नहीं कर सकती।

    इस मामले में, एक स्‍थानांतरण याचिका की पार्टियों (पति और पत्नी) ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आपसी सहमति से तलाक के लिए एक संयुक्त आवेदन दायर किया ‌था। उन्होंने अदालत से संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने, और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी में विचार की गई कुछ प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं और समयरेखा का अनुपालन करने के लिए कहा था।

    पत्नी ने स्थानांतरण याचिका दायर की थी, जिसने पति की ओर से दायर तलाक की याचिका को, जिसे परिवार न्यायालय, पुणे, महाराष्ट्र में दायर किया गया था, को प्रधान न्यायाधीश, परिवार न्यायालय, गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश में स्थानांतरित करने की मांग की थी।

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    4. जब दूसरे पक्ष ने समझौते के तहत अपने दायित्व पूरे कर दिए हों, तो तलाक की संयुक्त याचिका से एकतरफा सहमति वापिस लेने की अनुमति नहीं दी जा सकतीः केरल हाईकोर्ट

    [मामला: बेनी बनाम मिनी]

    केरल हाईकोर्ट ने एक उल्लेखनीय निर्णय देते हुए कहा कि जब दूसरे पक्ष ने समझौते के तहत अपने दायित्व पूरे कर दिए हों,तो उसके बाद तलाक के लिए दायर एक संयुक्त याचिका से पति या पत्नी द्वारा एकतरफा सहमति की वापसी कानून के तहत अरक्षणीय है। न्यायालय ने इसे ''शार्प प्रैक्टिस कहा, जिसे एक पल के लिए भी सहन नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह न्याय वितरण प्रणाली में वादियों के विश्वास को चकनाचूर कर देगी और वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र का मखौल बनाएगी।''

    अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि,एक बार जब पक्षकारों ने लंबित कार्यवाही में किए गए समझौते के तहत तलाक की संयुक्त याचिका दायर करने के लिए सहमति दे दी है तो उसके बाद पक्षकारों को समझौते से पीछे हटने से रोक दिया जाता है। जस्टिस ए एम मुहम्मद मुस्ताक और जस्टिस सीएस डायस की डिवीजन बेंच ने कहा कि, ''... हम मानते हैं कि एक बार जब पार्टियां एक लंबित कार्यवाही में किए गए समझौते के तहत संयुक्त याचिका दायर करने के लिए सहमत होती हैं, तो उसके बाद पार्टियों को समझौते को अस्वीकार करने से रोक दिया जाता है। इसलिए, प्रतिवादी द्वारा सहमति की एकतरफा वापसी, विशेष रूप से जब अपीलकर्ता ने समझौते के ज्ञापन में दी गई शर्तों के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा कर दिया हो, केवल एक शार्प प्रैक्टिस है जिसे एक पल के लिए भी सहन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह न्याय वितरण प्रणाली में मुकदमेबाजों के विश्वास को चकनाचूर कर देगी और वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र का मखौल बनाएगी।''

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    5. आपसी सहमति से तलाक देने के लिए विवाद का होना कोई शर्त नहीं: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

    [मामला: संध्या सेन बनाम संजय सेन]

    छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने माना है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13बी के तहत आपसी सहमति से तलाक देने के लिए पति और पत्नी के बीच गंभीर विवाद का होना कोई शर्त नहीं है। जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस एनके चंद्रवंशी की खंडपीठ ने कहा कि अधिनियम, 1955 की धारा 13-बी में निहित प्रावधान आपसी सहमति से तलाक देने के लिए धारा 13 में शामिल आधार के अस्‍त‌ित्व का प्रावधान नहीं करता है। कोर्ट ने कहा, "किसी मामले में हो सकता है कि जोड़े के बीच कोई झगड़ा या विवाद ना हो, फिर भी उनके कार्य और व्यवहार सुखी और शांतिपूर्ण विवाहित जीवन जीने के लिए सुसंगत ना हो, इसलिए वे आपसी सहमति से तलाक की मांग कर सकते हैं। यदि कोई आवेदन अन्यथा विधिवत रूप से गठित किया गया है और न्यायालय के समक्ष उचित रूप से प्रस्तुत किया गया है तो यह न्यायालय पर नहीं है कि वह उस आधार या कारण की खोज करे, जिसने पार्टियों को आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए मजबूर किया है।"

    अदालत हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (बी) के तहत आपसी तलाक के अनुदान की कार्यवाही में निचली अदालत द्वारा पारित न्यायिक अलगाव के डिक्री को चुनौती देने वाली एक अपील पर सुनवाई कर रही थी। शादी करने के बाद, युगल केवल दो के लिए एक साथ रहते थे और कभी पति-पत्नी के रूप में साथ नहीं रहे।

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    कूलिंग ऑफ पीरियड की छूट

    1. क्या हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक की अर्ज़ी दाखिल करने के लिए एक साल की प्रतीक्षा अवधि से छूट देने के लिए 'सेक्स से इनकार करना' पर्याप्त कारण है? दिल्ली हाईकोर्ट करेगा मामले पर विचार

    [मामला: रिशु अग्रवाल बनाम मोहित गोयल]

    दिल्ली हाईकोर्ट इस मुद्दे पर विचार करेगा कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 के तहत विवाहित पक्षों द्वारा एक-दूसरे के साथ सेक्स करने से इनकार करना 'अपवादात्मक या असाधारण कठिनाई' पैदा करने के लिए पर्याप्त है, ताकि एक तलाक की अर्ज़ी दायर करने के लिए एक वर्ष की प्रतीक्षा अवधि से छूट दी जा सके या उस अवधि को वेव किया जा सके? यह देखते हुए कि इस मुद्दे पर विचार करने की आवश्यकता है, न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह ने मामले में एमिकस क्यूरी के रूप में वरिष्ठ अधिवक्ता प्रीतेश कपूर को नियुक्त किया है।

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    2. 'इस विवाह में शुरू से ही सब ठीक नहीं रहा, 19 साल से अलग रह रहे हैं' : सुप्रीम कोर्ट ने तलाक की मंजूरी दी

    सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए विवाह के अपूरणीय टूटने या असाध्य होने के कारण एक जोड़े को तलाक दे दिया। कोर्ट ने कहा कि शादी में 'शुरू से ही सब ठीक नहीं था' और यह जोड़ा 19 साल से अधिक समय से अलग रह रहा है।

    जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम.एम सुंदरेश की बेंच ने कहा, ''यदि पार्टियां शुरू से ही विवाह के उद्देश्य साहचर्य को एक-दूसरे के लिए पूरा नहीं कर पाई हैं और 19 से अधिक वर्षों से अलग रह रही हैं, तो हमारा विचार है कि यदि यह विवाह का अपूरणीय टूटना नहीं है तो यह किस तरह की स्थिति है।''

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    3. (तलाक) दोनों पक्षकार शिक्षित हैं, इसलिए यह माना जा सकता है वे अपने सर्वोत्तम हित को समझते हैं : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने छह महीने के कूलिंग ऑफ पीरियड से छूट दी

    [मामला: संगीता बनाम प्रदीप]

    यह देखते हुए कि 'इस विवाह में शामिल दोनों पक्षकार 30 वर्ष से अधिक उम्र के हैं और शिक्षित हैं, इसलिए यह माना जाता है कि वह अपने सर्वोत्तम हित को समझते हैं', पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने आपसी सहमति से तलाक के मामले में अनिवार्य छह महीने के कूलिंग ऑफ पीरियड से छूट देने का आदेश दिया है।

    न्यायमूर्ति संजय कुमार के समक्ष याचिकाकर्ताओं ने एक पुनःविचार याचिका दायर कर आपसी सहमति के आधार पर हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13-बी के तहत तलाक की एक डिक्री के माध्यम से अपनी शादी को भंग करने की मांग की थी। इस मामले में तलाक की याचिका जून, 2020 में दायर की गई थी। जिसके बाद उन्होंने अधिनियम 1955 की धारा 13-बी (2) के तहत निर्धारित छह महीने की वैधानिक प्रतीक्षा अवधि या वेटिंग पीरियड से छूट देने के लिए एक आवेदन दायर किया था। परंतु अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, मोहाली ने 06 अगस्त 2020 के आदेश के तहत उक्त आवेदन को खारिज कर दिया।

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    रखरखाव/भरण पोषण

    1. सुप्रीम कोर्ट ने अलग हुई पत्नी के रुख को अस्वीकार किया कि वैकल्पिक आवास में उसके वैवाहिक घर के "समान" विलासिता होनी चाहिए

    एक वैवाहिक विवाद में, सुप्रीम कोर्ट ने अलग हुई पत्नी द्वारा अपनाए गए इस रुख को अस्वीकार कर दिया कि उसे पेश किए गए वैकल्पिक आवास में उसके वैवाहिक घर के "समान" विलासिता होनी चाहिए, जहां वह अपने पति के साथ रहती थी। अदालत ने वैवाहिक घर में रहने की अनुमति मांगने वाली उसकी याचिका को भी यह देखते हुए खारिज कर दिया कि "पक्षों के बीच संबंध इतने तनावपूर्ण हैं कि अगर उन्हें उक्त घर में रहने की अनुमति दी जाती है, तो इससे आगे आपराधिक कार्यवाही के अलावा और कुछ नहीं होगा।"

    दंपति मुंबई के पॉश इलाके में रहता था और रिश्ते में खटास आने पर पत्नी ने स्वेच्छा से वह घर छोड़ दिया। इससे पहले की कार्यवाही में कोर्ट ने पत्नी को मुंबई में किराए पर अपनी पसंद का घर चुनने को कहा था। बाद में, कोर्ट ने मुंबई के बांद्रा में फैमिली कोर्ट के रजिस्ट्रार को निर्देश दिया कि वह बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा बनाए गए आर्किटेक्ट्स के पैनल से एक आर्किटेक्ट को उसके और उसकी बेटी के लिए वैवाहिक घर के रूप में "समान" घर का पता लगाने के लिए नियुक्त करे।

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    2. सीआरपीसी की धारा 125-''एक पिता की अपने बेटे को भरण-पोषण देने की बाध्यता उसके बालिग होने पर भी समाप्त नहीं होगी'': दिल्ली हाईकोर्ट

    [मामला: उर्वशी अग्रवाल और अन्य बनाम इंद्रपॉल अग्रवाल]

    दिल्ली हाई कोर्ट ने माना है कि सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता)की धारा 125 के तहत अपने बेटे को भरण-पोषण देने का एक पिता का दायित्व ,बेटे के बालिग होने पर भी समाप्त नहीं होगा क्योंकि इससे उसकी शिक्षा सहित अन्य खर्चों का पूरा बोझ उसकी मां पर आ जाएगा। न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की एकल न्यायाधीश की पीठ ने निर्देश दिया है कि 15,000 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण के रूप में मां को दिए जाएं। यह राशि बेटे के बालिग होने की तारीख से लेकर स्नातक की पढ़ाई पूरी करने या कमाई शुरू करने तक (जो भी पहले हो) देनी होगी।

    कोर्ट ने कहा कि, ''यह नहीं कहा जा सकता है कि एक पिता का दायित्व उस समय समाप्त हो जाएगा जब उसका बेटा 18 वर्ष का हो जाएगा और उसकी शिक्षा व अन्य खर्चों का पूरा बोझ केवल मां को ही वहन करना पड़ेगा। चूंकि बेटा बालिग हो गया है,इसलिए पिता के किसी भी योगदान के बिना मां द्वारा अर्जित की गई राशि उसे खुद पर और अपने बच्चों पर खर्च करनी होगी।''

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    3. सीआरपीसी की धारा 125- सिर्फ इसलिए कि मां भी कमा रही है, पिता को बच्चों के भरण-पोषण से छूट नहींः दिल्ली हाईकोर्ट

    [मामला: उर्वशी अग्रवाल और अन्य। बनाम इंद्रपॉल अग्रवाल]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि जिन घरों में महिलाएं भी नौकरी कर रही हैं और पर्याप्त रूप से अपना भरण-पोषण करने में सक्षम हैं, वहां पति अपने बच्चों को भरण-पोषण प्रदान करने की जिम्मेदारी से स्वतः मुक्त नहीं हो जाता है। हाईकोर्ट द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत पारित भरण-पोषण के आदेश में संशोधन की मांग के बाद कोर्ट ने अवलोकन किया है।

    न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा कि बच्चों को पालने और शिक्षित करने का पूरा खर्च एक मां पर नहीं डाला जा सकता है।

    कोर्ट ने कहा कि, ''एक पिता का अपने बच्चों के लिए समान कर्तव्य है और ऐसी स्थिति नहीं हो सकती है कि केवल मां ही बच्चों को पालने और शिक्षित करने के लिए सारे खर्च का बोझ उठाए ... एक पिता अपनी पत्नी को मुआवजा देने के लिए बाध्य है, जो बच्चों पर खर्च करने के बाद, शायद ही खुद के भरण-पोषण के लिए कुछ बचा पाती है।''

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    4. अन्य विवाह न करने वाली पूर्व पत्नी जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, उसे इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण का अधिकार: कर्नाटक हाईकोर्ट

    [मामला: एज़ाज़ुर रहमान बनाम सायरा बानो]

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना है कि एक मुस्लिम पुरुष मेहर का भुगतान करने के बावजूद, यदि उसकी पूर्व पत्नी अन्य विवाह नहीं करती है और अविवाहित रहती है और खुद का भरण पोषण करने में सक्षम नहीं है तो वह इद्दत अवधि के बाद भी उसके भरण-पोषण का प्रावधान करने के लिए बाध्य है।

    जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित ने कहा, "मुसलमानों के बीच विवाह अनुबंध के साथ शुरू होता है और जैसा कि आमतौर पर अन्य समुदायों में होता है परिपक्व स्थिति में आता है; यह स्थिति कुछ न्यायसंगत दायित्वों को जन्म देती है ... तलाक के जर‌िए भंग ऐसा विवाह स्वयं सभी कर्तव्यों को समाप्त नहीं करता है....कानून में नए दायित्व भी पैदा हो सकते हैं, उनमें से एक परिस्थितिजन्य कर्तव्य पूर्व पत्नी को सहारा देना है, जो तलाक के बाद मुफल‌िसी की हालत में है।"

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    5. फैमिली कोर्ट द्वारा अवॉर्ड की गई भरण-पोषण राशि यथार्थवादी और उचित होनी चाहिए: दिल्ली हाईकोर्ट

    [मामला: शीतल जोशन रॉय बनाम सौम्यजीत रॉय]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट द्वारा अवॉर्ड की गई भरण-पोषण (Maintenance) राशि यथार्थवादी और उचित होनी चाहिए। ऐसे न्यायालयों द्वारा आदेश पारित करने वाले को स्पष्ट और अच्छी तरह से तथ्यों, विवाद और इसके निष्कर्ष को तर्कपूर्ण होना चाहिए।

    न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह ने यह भी कहा कि एक पति या पत्नी को अंतरिम या स्थायी भरण-पोषण देने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वे अपनी शादी की विफलता के कारण वित्तीय बाधाओं में न फंसे हों।

    अदालत फैमिली कोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली पत्नी द्वारा दायर एक अपील पर सुनवाई कर रही थी। उक्त याचिका के माध्यम से हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत उसके आवेदन पर निर्णय लिया गया था।

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    6. कानूनी खामियां अपराधियों को बच निकलने देती हैं : दिल्ली हाईकोर्ट

    [मामला: सुंदर लाल सैनी बनाम मीना सैनी]

    पहले पति या पत्नी के साथ एक विवाहित जोड़े के बीच उत्पन्न होने वाले भरण पोषण विवाद से निपटते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने महिला की स्थिति के प्रति सहानुभूति व्यक्त की, यह देखते हुए कि कानूनी खामियां आपत्तिजनक पक्षों को बचकर निकलने की अनुमति देती हैं।

    अदालत ने कहा कि आम तौर पर, भले ही एक महिला के पास पत्नी की कानूनी स्थिति नहीं है, उसे वैधानिक प्रावधान के उद्देश्य के साथ निरंतरता बनाए रखने के लिए "पत्नी" की समावेशी परिभाषा में लाया जाता है।

    7. सेक्‍शन 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण का आदेश किसी भी स्थान पर लागू किया जा सकता है जहां वह व्यक्ति हो, जिसके खिलाफ यह आदेश दिया गया हो; निवास स्‍थान महत्वपूर्ण नहींः दिल्ली हाईकोर्ट

    [मामला: आशा देवी और अन्य। बनाम मुनेश्वर सिंह]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि अधिमा‌नित क्षेत्राधिकार में एक व्यक्ति की उपस्थिति आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत उसके खिलाफ भरण-पोषण के लिए दायर आवेदन के समय भरण-पोषण के उक्त आदेश के निष्पादन के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य होगा। ज‌स्टिस चंद्रधारी सिंह ने कहा कि संहिता की धारा 128 जो भरण-पोषण के आदेश को लागू करने की प्रक्रिया पर विचार करती है, 'जहां वह व्यक्ति जिसके खिलाफ यह दिया गया हो' शब्दों का प्रयोग करती है और न कि वह कहां रह रहा है या उसकी स्थायी संपत्ति कहां है।

    अदालत ने कहा, "सीआरपीसी की धारा 128 के तहत जनादेश स्पष्ट रूप से किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा भरणपोषण के आदेश को किसी भी स्थान पर जहां वह व्यक्ति, जिसके खिलाफ यह किया गया हो, उसे लागू करने का प्रावधान करता है।

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    8. पत्नी कमाने में सक्षम है, यह अंतरिम भरण-पोषण से इनकार करने का आधार नहीं, कई बार पत्नियां केवल परिवार के लिए अपना करियर छोड़ देती हैं: दिल्ली हाईकोर्ट

    [मामला: कर्नल रमनेश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि तथ्य यह है कि पत्नी कमाने में सक्षम है, यह अंतरिम भरण-पोषण से इनकार करने का आधार नहीं है क्योंकि कई बार पत्नियां केवल परिवार के लिए अपना करियर छोड़ देती हैं। न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने यह भी देखा कि सीआरपीसी की धारा 125 का उद्देश्य एक ऐसी महिला की पीड़ा और वित्तीय पीड़ा को कम करने के लिए है जो अपना वैवाहिक घर छोड़ चुकी है और उसे और उसके बच्चे के भरण-पोषण के लिए कुछ व्यवस्था की जा सके।

    यह टिप्पणी तब आई जब पीठ एक भारतीय सेना के कर्नल पति द्वारा दायर आपराधिक रिवीजन याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें उसे अपनी पत्नी को 33,500 रुपये मासिक भरण-पोषण देने का निर्देश दिया गया था।

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    9. इंटरफेथ मैरिज से पैदा हुए बच्चे को भरण-पोषण देने के लिए पिता कानूनी रूप से बाध्यः केरल हाईकोर्ट

    [मामला: जेडब्ल्यू अरागदान बनाम हाशमी एनएस और अन्य।]

    केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि एक इंटरफेथ मैरिज से पैदा हुए बच्चे को भरण-पोषण देने के लिए बच्चे का पिता कानूनी रूप से बाध्य है।

    न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुस्तक और न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ ने कहाः ''हमें एक अंतर-धार्मिक ( इंटरफेथ) कपल से पैदा हुए बच्चों को उसके पिता से भरण-पोषण का दावा करने के कानूनी अधिकार से वंचित करने का कोई कारण नहीं दिख रहा है, वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि ऐसे पिता को अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य करने वाला कोई विशिष्ट वैधानिक प्रावधान नहीं है। एक पिता के माता-पिता के तौर पर कर्तव्य को निर्धारित करने के लिए जाति, आस्था या धर्म का कोई तर्कसंगत आधार नहीं हो सकता है। माता-पिता द्वारा अपनाए गए अलग-अलग धर्म या आस्था के बावजूद सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए।''

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    10.पति, कैरी होम सैलरी के अभाव में तलाकशुदा पत्नी और बेटी को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी को अनदेखा नहीं कर सकता : त्रिपुरा हाईकोर्ट

    [मामला: सुप्रिया भट्टाचार्जी और अन्य बनाम देवव्रत चक्रवर्ती]

    त्रिपुरा हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि पति को वेतन के अभाव में तलाकशुदा पत्नी और बेटी को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी को अनदेखा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, पिछले सप्ताह एक पति को तलाकशुदा पत्नी और उसकी बेटी को पालन-पोषण और रखरखाव के लिए को प्रति माह 17,000 रुपए का भुगतान करने का निर्देश दिया। न्यायमू‌र्ति एसजी चट्टोपाध्याय की खंडपीठ एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें तलाकशुदा पत्नी ने पारिवारिक न्यायालय, अगरतला के आदेश को चुनौती दी थी, जिसके तहत उसे देय मासिक गुजारा भत्ता के राश‌ि को 5000 रुपए से बढ़ाकर 8000 रुपए करने का आदेश दिया गया था, जबकि उसने उक्त राशि को 5000 रुपए से बढ़ाकर 23,500 रुपए प्रति माह करने की मांग की थी।

    दोनों की शादी 02 फरवरी 2003 को हुई, जिसके बाद उन्हें एक बेटी हुई। कुछ वर्षों बाद, अपसी विवाद के कारण पत्नी ने बेटी के साथ पति के घर को छोड़ दिया और माता-पिता के साथ रहने लगी। पति के आवेदन पर, फैमिली कोर्ट, अगरतला ने 16 सितंबर 2010 को तलाक का फैसला सुनाया और याचिकाकर्ता को 5000 रुपए मासिक गुजारा भत्ता देने की अनुमति दी।

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    11. जब कोई पुरुष एक ऐसी महिला से शादी करता है जिसके बारे में जानता है कि उसका पहले पति से कानूनी रूप से तलाक नहीं हुआ है, तो 125 की कार्यवाही में शादी के अवैध होने की दलील नहीं दे सकताः छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

    [मामला: तेरस डोंगरे बनाम अविनाश डोंगरे]

    छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने माना है कि एक पुरुष, जो एक महिला से बारे में पूरी तरह से जानता था कि उसकी पूर्व की शादी वैध तलाक के जरिए समाप्त नहीं हुई है, उसे सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण पोषण की कार्यवाही में विवाह के अवैध होने की दलील देने से रोक दिया जाता है।

    न्यायमूर्ति राजेंद्र चंद्र सिंह सामंत की एकल पीठ ने एक फैमिली कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश के खिलाफ दायर एक रिविजन पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। फैमिली कोर्ट ने आवेदक-पत्नी को इस आधार पर भरण पोषण भत्ता देने से इनकार कर दिया था कि उसने पहले पति से वैध तलाक नहीं लिया,इसलिए वह प्रतिवादी (दूसरे पति) की कानूनी रूप से पत्नी नहीं है।

    मिसाल/पूर्व के निर्णय एकल न्यायाधीश ने मोतीम बाई बोरकर बनाम अर्जुन सिंह बोरकर, 2017 (2) सीजीएलजे 330 के मामले का उल्लेख किया, जिसमें याचिकाकर्ता पत्नी का यह तर्क था कि उसने अपने पहले पति से आपसी सहमति से रिवाज के अनुसार तलाक ले लिया था।

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    12. एकतरफा तलाक़ देने वाली पत्नी यदि खुद का रखरखाव करने में असमर्थ है तो वह भरण-पोषण की हकदार है: कलकत्ता हाईकोर्ट

    [मामला: रेहेना खातून बनाम जार्गिस हुसैन]

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने गुरुवार को फैसला सुनाया कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत एकतरफा तलाक़ देने वाली पत्नी यदि खुद का रखरखाव करने में असमर्थ है तो वह भरण-पोषण की हकदार है। याचिकाकर्ता ने संबंधित मामले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, 5वीं अदालत, मुर्शिदाबाद द्वारा पारित 18 नवंबर, 2017 के एक आदेश को चुनौती दी, जिसमें याचिकाकर्ता को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया गया था।

    अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने भरण-पोषण के लिए इस तरह की प्रार्थना को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि याचिकाकर्ता ने खुद प्रतिवादी यानी उसके पति को एकतरफा तलाक दे दिया था। इस प्रकार, उसे बेसहारा नहीं माना जा सकता क्योंकि उसने अपने पति की 'जानबूझकर उपेक्षा' की थी। सत्र न्यायालय ने भी इस फैसले की पुष्टि की थी कि चूंकि याचिकाकर्ता को कथित तौर पर समझौता करने की स्थिति में पाया गया था, इसलिए उसके द्वारा भरण-पोषण का ऐसा दावा नहीं किया जा सकता।

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    13. क्या पत्नी आपसी सहमति से तलाक और अंतिम निपटान के रूप में एकमुश्त राशि लेने के बाद भरण-पोषण का दावा कर सकती है? कलकत्ता हाईकोर्ट ने मामला बड़ी बेंच को भेजा

    [मामला: प्रसेनजीत मुखर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य]

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह इस कानूनी मुद्दे को बड़ी पीठ के पास संदर्भित किया है कि क्या एक पत्नी आपसी सहमति से हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 बी के तहत तलाक की डिक्री द्वारा शादी भंग करने और पत्नी को भूत, वर्तमान और भविष्य के भरण-पोषण के लिए अंतिम निपटान के रूप में एकमुश्त राशि का भुगतान करने के बाद आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती है? न्यायमूर्ति तीर्थंकर घोष ने इस मामले को संदर्भित करने से पहले कहा कि इस मुद्दे पर हाईकोर्ट के परस्पर विरोधी फैसले मौजूद हैं।

    न्यायालय के समक्ष विचाराधीन कानूनी मुद्दा इस प्रकार है, एक बार जब मजिस्ट्रेट को पता चलता है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत तलाक की एक डिक्री द्वारा पार्टियों के बीच विवाह को भंग कर दिया गया है और यह पाया जाता है कि पत्नी को भरण-पोषण के लिए एकमुश्त राशि प्राप्त हुई है तो निम्नलिखित परिस्थितियों में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया क्या होगी?

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