अन्य विवाह न करने वाली पूर्व पत्नी जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, उसे इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण का अधिकार: कर्नाटक हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

21 Oct 2021 12:53 AM GMT

  • अन्य विवाह न करने वाली पूर्व पत्नी जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, उसे इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण का अधिकार: कर्नाटक हाईकोर्ट

    Karnataka High Court

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना है कि एक मुस्लिम पुरुष मेहर का भुगतान करने के बावजूद, यदि उसकी पूर्व पत्नी अन्य विवाह नहीं करती है और अविवाहित रहती है और खुद का भरण पोषण करने में सक्षम नहीं है तो वह इद्दत अवधि के बाद भी उसके भरण-पोषण का प्रावधान करने के लिए बाध्य है।

    जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित ने कहा,

    "मुसलमानों के बीच विवाह अनुबंध के साथ शुरू होता है और जैसा कि आमतौर पर अन्य समुदायों में होता है परिपक्व स्थिति में आता है; यह स्थिति कुछ न्यायसंगत दायित्वों को जन्म देती है ... तलाक के जर‌िए भंग ऐसा विवाह स्वयं सभी कर्तव्यों को समाप्त नहीं करता है....कानून में नए दायित्व भी पैदा हो सकते हैं, उनमें से एक परिस्थितिजन्य कर्तव्य पूर्व पत्नी को सहारा देना है, जो तलाक के बाद मुफल‌िसी की हालत में है।"

    न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि एक अविवाहित पूर्व पत्नी को भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार उसकी आवश्यकता के साथ सह-विस्तृत है, मानदंड जीवन की अनिवार्यता है न कि विलासिता।

    केस पृष्ठभूमि

    दंपति ने मार्च 1991 में शादी की थी, जिसमें मेहर की राशि 5,000 रुपये तय की गई थी। पत्नी द्वारा दहेज प्रताड़ना आदि की शिकायत करने और ससुराल छोड़कर चले जाने के कारण विवाह लंबा नहीं चल पाया। 25 नवंबर, 1991 को पति ने तलाक दे दिया और पत्नी को मेहर की राशि और इद्दत अवधि के दौरान उसके भरण-पोषण के लिए 900 रुपये का भुगतान किया।

    2002 में अविवाहित पत्नी ने पूर्व पति से भरण-पोषण की मांग के लिए एक दीवानी मुकदमा दायर किया। पूर्व पति ने इस आधार पर इसका विरोध किया कि उसने तलाक के बाद दूसरी शादी की। उसे एक बच्चा भी हुआ है। पूर्व पत्नी ने दहेज प्रताड़ना का मामला दर्ज कराया था, जिसमें उसे बरी कर दिया गया है। इसके अलावा, पूर्व पत्नी को मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों को लागू करना चाहिए। किसी भी स्थिति में, वह कुछ भी भुगतान नहीं करेगा।

    मुकदमा दायर करने के आठ साल बाद मुद्दों को तय किया गया और नौ साल बाद 12 अगस्त, 2011 को, फैमिली कोर्ट ने आदेश दिया कि पूर्व पत्नी को मुकदमा स्‍थापित होने से उसकी मृत्यु या जब तक वह पुनर्विवाह नहीं कर लेती या पूर्व पति की मृत्यु तक 3,000 रुपये मासिक भरणपोषण दिया जाए।

    पूर्व पत्नी ने डिक्री को निष्पादित करने के लिए एक निष्पादन आवेदन दायर किया। पति ने इसका विरोध किया और निचली अदालत ने 14 दिसंबर 2012 को उसे दीवानी जेल भेज दिया। हालांकि, उन्हें 30,000 रुपये की राशि के भुगतान पर एक महीने के भीतर रिहा कर दिया गया। जिसके बाद पति ने नागरिक प्रक्रिया संहिता के तहत अपनी वित्तीय अक्षमता का निर्धारण करने के लिए एक आवेदन दायर किया, जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट का रुख किया।

    न्यायालय के निष्कर्ष

    ‌रिकॉर्ड को देखने पर अदालत ने खेद व्यक्त करते हुए कहा, "यह एक असहाय मुस्लिम तलाकशुदा पत्नी का एक और मामला है जो दो दशकों से एक भरण पोषण डिक्री को निष्पादित करने के लिए संघर्ष कर रही है।"

    इसके बाद अदालत ने मुस्लिम कानून के तहत विवाह का विश्लेषण किया, जो एक नागरिक अनुबंध है। इसमें कहा गया है, "पूर्व पति का यह तर्क कि मुसलमानों में विवाह केवल एक नागरिक अनुबंध है, विवादित नहीं हो सकता।"

    कोर्ट ने कहा,

    "विवाह एक अनुबंध है" के अर्थ के कई आशय हैं। यह हिंदू विवाह की तरह संस्कार नहीं है, यह सच है। जो कुछ भी ज्ञानमीमांसा है, विवाह दोनों पक्षों को पति, पत्नी, ससुराल, आदि स्थितियां प्रदान करता है; यदि बच्चे पैदा होते हैं तो वे पिता-माता, दादा-दादी की स्थिति अर्जित करते हैं। जब विवाह टूट जाता है तो केवल न पति-पत्नी का बंधन टूट जाता है, बल्‍कि स्थिति समाप्त हो जाती है।"

    कोर्ट ने कहा,

    "उपरोक्त सभी सामाजिक संस्था के रूप में विवाह के संबंधों को दर्शाते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म से संबंधित हों और संविदात्मक तत्व हों। संक्षेप में कहें तो मुसलमानों के बीच विवाह अनुबंध और स्‍थ‌िति को प्राप्त करता हे, जैसा कि आमतौर पर किसी अन्य समुदाय में होता है। यह स्थिति कुछ न्यायसंगत दायित्वों को जन्म देता है। एक मुस्लिम विवाह संस्कार नहीं है, विघटन के बाद भी यह कुछ अधिकारों और दायित्वों खत्‍म नहीं करता...उनमें से एक व्यक्ति का परिस्थितिजन्य कर्तव्य है कि वह अपनी पूर्व पत्नी को भरणपोषण प्रदान करे जो तलाक से वंचित है।"

    जस्टिस दीक्षित ने पवित्र कुरान का उद्धरण दिया और कहा,

    "पवित्र कुरान और हदीस में पर्याप्त आंतरिक सामग्री है, जो एक तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण के लिए एक समान अधिकार की नींव रखती है; आम तौर पर यह तीन संचयी कारकों द्वारा वातानुकूलित होता है। अर्थात (i) मेहर राशि नगण्य है; (ii) वह अपने जीवन को अपने दम पर चलाने में असमर्थ है; और (iii) वह अविवाहित रही है।"

    अदालत ने तब निर्धन मुस्लिम पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार पर चर्चा की कि क्या यह इद्दत तक सीमित है या मेहर राशि तक सीमित है।

    कोर्ट ने कहा,

    "आमतौर पर पूर्व पत्नी का भरण-पोषण का अधिकार इद्दत से आगे नहीं बढ़ता है। मुझे यह जोड़ना चाहिए कि इस्लामी न्यायशास्त्र ने इसे कभी भी 'थंब रूल' के रूप में नहीं माना है, कुछ भ‌िन्न न्यायिक ‌विचार उपलब्ध हैं। इस मानदंड को इस शर्त के अधीन होना चाहिए कि पूर्व पत्नी को भुगतान की गई राशि, चाहे वह मेहर के रूप में हो या मेहर के आधार पर निर्धारित राशि हो, या अन्यथा, अपर्याप्त या भ्रामक राशि नहीं है।"

    कोर्ट ने कहा,

    "यह सामान्य ज्ञान की बात है कि मेहर की राशि पर्याप्त रूप से तय नहीं की जाती है, दुल्हन पक्ष में आर्थिक और लिंग-संबंधी कारकों के कारण समान सौदेबाजी की शक्ति का अभाव होता है। .....कारण और न्याय हमें बताते हैं कि एक भ्रामक मेहर भरणपोषण की मात्रा का आधार नहीं हो सकता है और न ही इसकी अवधि को इद्दत तक सीमित कर सकता है।"

    जिसके बाद अदालत ने याचिका को खारिज कर दिया और पूर्व पति को 25,000 रुपये के जुर्माने का भुगतान करने का निर्देश दिया और ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया कि वह युद्ध स्तर पर निष्पादन को पूरा करे और तीन महीने के भीतर उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को अनुपालन रिपोर्ट भेजे।

    केस शीर्षक: एजाजुर रहमान बनाम शायरा बानो

    मामला संख्या: Writ Petition No.3002 of 2015

    आदेश की तिथि: 7 अक्टूबर, 2021

    प्रतिनिध‌ित्व: याचिकाकर्ता के लिए एडवोकेट केएन हरिदासन नांबियार; प्रतिवादी की ओर से एडवोकेट रश्मि सी

    आदेश पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story