ऑल इंडिया फैमिली लॉ डाइजेस्ट 2021: सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के प्रमुख फैसले : पहला भाग

LiveLaw News Network

29 Dec 2021 3:15 PM GMT

  • ऑल इंडिया फैमिली लॉ डाइजेस्ट 2021: सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के प्रमुख फैसले : पहला भाग

    वर्ष 2021 समाप्त हो रहा है, लाइव लॉ आपके लिए सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट से पारिवारिक कानून के विषय में महत्वपूर्ण अपडेट का वार्षिक राउंड-अप लाया है। इस वार्षिक डाइजेस्ट में 100 आदेश और निर्णय शामिल हैं। पेश है इसका पहला भाग।

    विवाह से संबंधित आदेश, उसका रजिस्ट्रेशन और उसकी वैधता

    1. जब दो बालिग आपस में विवाह करने के लिए सहमत हों, तो परिवार या समुदाय की सहमति आवश्यक नहीं: सुप्रीम कोर्ट

    [मामला: लक्ष्मीबाई चंदरगी बी बनाम कर्नाटक राज्य; एससी 79]

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब दो बालिग आपस में विवाह करने के लिए सहमत हों, तो परिवार या समुदाय या कबीले की सहमति आवश्यक नहीं है।

    जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने कहा कि शादी करने का अधिकार या अपनी पसंद की शादी करना, "वर्ग सम्मान (Class honour)" या "समूह की सोच (Group thinking)" की अवधारणा पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस अधिकारी 'सामाजिक रूप से संवेदनशील मामलों' को संभालने के लिए दिशानिर्देश और प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करेंगे।

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    2. विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह पंजीकरण की मांग करने वाले जोड़े के आवास पर नोटिस जारी करना प्रथम दृष्टया न्यायालय की अवमानना : दिल्ली हाईकोर्ट

    [मामला: परवीन बानो बनाम चंद्रशेखर एसडीएम दक्षिण पश्चिम]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने पाया कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह के पंजीकरण की मांग करने वाले जोड़े के आवास पर नोटिस जारी करने के लिए एक उप मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) का कार्य प्रथम दृष्टया अदालत की अवमानना ​​है क्योंकि यह उसके पहले जारी निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। 2009 में सभी विवाह अधिकारियों को अधिनियम के अध्याय II के तहत अपने विवाह के अनुष्ठापन की मांग करने वाले आवेदकों के आवास पर नोटिस नहीं भेजने का निर्देश दिया था।

    3. पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से विवाह के पंजीकरण की अनुमति दी; एकल पीठ के निर्णय को पलटा

    केस का शीर्षक - अमी रंजन और अन्य बनाम हरियाणा राज्य और अन्य [ LPA No.125 of 2021 (O&M) (in CWP No.20480 of 2020)]

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने एकल पीठ के फैसले को पलटते हुए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से एक जोड़े के विवाह के पंजीकरण की अनुमति दी। न्यायमूर्ति रितु बहरी और न्यायमूर्ति अर्चना पुरी की खंडपीठ एकल पीठ के उस फैसले के खिलाफ की गई अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें दंपति (विवाहित जोड़े) को अपनी शादी के ई-पंजीकरण करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था।

    सिंगल जज बेंच ने कहा था कि, "विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत विवाह के पंजीकरण के लिए सक्षम अधिकारी के समक्ष पक्षकारों (विवाहित जोड़े) को पेश होने का अनिवार्य प्रावधान है। अधिकारी के समक्ष पेश हुए बिना विवाह का पंजीकरण नहीं कराया जा सकता है।"

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    4. केरल हाईकोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से विवाह पंजीकरण की अनुमति दी

    [मामला: श्रीलक्ष्मी जेएस बनाम कडुकुट्टी ग्राम पंचायत और अन्य]

    केरल हाईकोर्ट ने श्रीलक्ष्मी जे.एस. बनाम कडुकुट्टी ग्राम पंचायत और अन्य WP (C) .No.27387 of 2020 मामले में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से विवाह पंजीकरण की औपचारिकताओं को पूरा करने की अनुमति दी। याचिकाकर्ता ने अपने पति सनूप के साथ 24.08.2019 को प्रथागत संस्कार के अनुसार विवाह किया था।

    उन्होंने केरल रजिस्ट्रेशन ऑफ मैरिज (कॉमन) रूल्स, 2008 (रूल्स) के संदर्भ में स्थानीय रजिस्ट्रार ऑफ मैरिजेज (कॉमन) के समक्ष विवाह के पंजीकरण का आवेदन प्रस्तुत किया था। लेकिन विवाह पंजीकरण पूरा होने से पहले ही याचिकाकर्ता के पति को अचानक दक्षिण अफ्रीका में अपने काम के लिए वापस लौटना पड़ा। अब याचिकाकर्ता दक्षिण अफ्रीका में अपने पति के पास जाने लिए वीजा के लिए आवेदन करना चाहती थी, लेकिन विवाह प्रमाणपत्र के बिना वह ऐसा करने में असमर्थ है।

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    5. बेटी के पास पिता की दूसरी शादी की वैधता के खिलाफ सवाल उठाने का प्रत्येक आधारः बॉम्बे हाईकोर्ट

    [मामला: नयना एम. रमानी बनाम फ़िज़ाह नवनीतलाल शाह]

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को आधिकारिक रूप से कहा कि एक बेटी अपने माता-पिता की दूसरी शादी की वैधता के खिलाफ याचिका पेश कर सकती है।

    जस्टिस वीजी बिष्ट और ज‌स्ट‌िस आरडी धानुका की खंडपीठ ने धारा 7 से संलग्न व्याख्या के खंड (b) की व्याख्या की और कहा कि एक बेटी के पास अपने पिता की शादी की वैधता पर सवाल उठाने का प्रत्येक आधार है। पीठ ने कहा, "अधिनियम की उद्देश्यों और तर्कों के संबंध में, स्पष्टीकरण के तहत क्लॉज (b) के शाब्दिक निर्माण के समक्ष, हमारे विचार में, अपीलकर्ता के पास प्रतिवादी के साथ अपने पिता की शादी की वैधता पर और प्रतिवादी की स्थिति पर सवाल उठाने का प्रत्येक स्थिति है। "

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    विशेष विवाह अधिनियम के तहत वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से शादी पंजीकृत हो सकती है : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा राज्य द्वारा दायर उस अपील को खारिज कर दिया जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से विवाह प्रमाण पत्र देने के आदेश को चुनौती दी गई थी, क्योंकि पत्नी यात्रा संबंधी प्रतिबंध के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका से भारत की यात्रा करने में असमर्थ थी।

    न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति वी रामासुब्रमण्यम की पीठ ने मौखिक रूप से कहा, "कानून को प्रौद्योगिकी के साथ आगे बढ़ना है।"

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    6. नोटरी/शपथ आयुक्त विवाह/तलाक दस्तावेजों को निष्पादित करने के लिए अधिकृत नहीं: मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सख्त दिशानिर्देशों की वकालत की

    [मामला: मुकेश पुत्र। श्री लक्ष्मण @ लक्ष्मीनारायण। बनाम मध्य प्रदेश राज्य]

    उन नोटरी/शपथ आयुक्तों को फटकार लगाते हुए, जो विवाह, तलाक, आदि के संबंध में दस्तावेज को निष्पादित करने में खुद को शामिल कर रहे हैं, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह ऐसे नोटरी/शपथ आयुक्तों के संबंध में सख्त दिशानिर्देशों की वकालत करते हुए कहा कि, "नोटरी और शपथ आयुक्तों को उचित दिशानिर्देश दिए जाएँ कि वे इस तरह के कामों को अंजाम देना बंद करें, अन्यथा उनका लाइसेंस समाप्त कर दिया जाएगा।"

    न्यायमूर्ति विवेक रूसिया की पीठ ने कहा, "नोटरी का कार्य नोटरी अधिनियम के तहत परिभाषित किया गया है। उनका कार्य दस्तावेजों को निष्पादित करके शादी करवाने का नहीं है...न तो नोटरी शादी को निष्पादित करने के लिए अधिकृत है और न ही तलाक की कार्यवाही को निष्पादित करने के लिए सक्षम है।"

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    7. मुस्लिम पुरुष तलाक दिए बिना एक बार में एक से ज्यादा शादी कर सकता है, लेकिन एक मुस्लिम महिला पर यह लागू नहीं होता: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट

    केस का शीर्षक - नहिदा और अन्य बनाम हरियाणा राज्य और अन्य। [2021 का CRWP No.764 (O & M)]

    पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक मुस्लिम दंपति द्वारा दायर एक संरक्षण याचिका पर सुनवाई करते हुए हाल ही में देखा कि "एक मुस्लिम पुरुष अपनी पूर्व पत्नी को तलाक दिए बिना एक से अधिक शादी कर सकत है, लेकिन एक मुस्लिम महिला पर यह लागू नहीं होती है।"

    न्यायमूर्ति अलका सरीन की खंडपीठ ने उल्लेख किया कि याचिकाकर्ता नंबर 1, मुस्लिम महिला (जो पहले शादी कर चुकी है) ने याचिकाकर्ता नंबर 2, मुस्लिम पुरुष से शादी करने से पहले अपने पहले पति से कानूनी रूप से वैध तलाक नहीं लिया था।

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    विवाह/तलाक का विघटन

    1. 'दोनों पक्षों को एक साथ रहने के लिए राजी करने का कोई मतलब नहीं, रिश्ता भावनात्मक रूप से मर चुका है': सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 में निहित अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए शादी को रद्द करने की अनुमति दी

    [मामला: सुभ्रांसु सरकार बनाम इंद्राणी सरकार; 2021 एससी 455]

    सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 में निहित अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए शादी को रद्द करने की अनुमति दी और कहा कि दोनों पक्षों को एक साथ रहने के लिए राजी करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि दंपति की बीच का रिश्ता भावनात्मक रूप से मर चुका है। इस मामले में पति ने पत्नी द्वारा क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक की याचिका दायर की थी। निचली अदालत ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि क्रूरता का कोई मामला नहीं बनता है। हाईकोर्ट ने भी बर्खास्तगी को बरकरार रखा।

    सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष, पति ने प्रस्तुत किया कि वे 16 वर्षों से अधिक समय से अलग रह रहे हैं और सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए विवाह मर चुका है। उन्होंने दो फैसलों का जिक्र किया। सुखेंदु दास बनाम रीता मुखर्जी और मुनीश कक्कड़ बनाम निधि कक्कड़ मामले में दिए गए फैसले के आधार पर यह प्रस्तुत किया कि अदालत ने अतीत में, विवाह को समाप्त करने के लिए अनुच्छेद 142 शक्तियों का उपयोग किया है, जब वे पूरी तरह से अक्षम और अपरिवर्तनीय हैं।

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    2.'इस विवाह में शुरू से ही सब ठीक नहीं रहा, 19 साल से अलग रह रहे हैं' : सुप्रीम कोर्ट ने तलाक की मंजूरी दी

    [मामला: पूनम बनाम सुरेंद्र कुमार]

    सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए विवाह के अपूरणीय टूटने या असाध्य होने के कारण एक जोड़े को तलाक दे दिया। कोर्ट ने कहा कि शादी में 'शुरू से ही सब ठीक नहीं था' और यह जोड़ा 19 साल से अधिक समय से अलग रह रहा है।

    जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम.एम सुंदरेश की बेंच ने कहा, ''यदि पार्टियां शुरू से ही विवाह के उद्देश्य साहचर्य को एक-दूसरे के लिए पूरा नहीं कर पाई हैं और 19 से अधिक वर्षों से अलग रह रही हैं तो हमारा विचार है कि यदि यह विवाह का अपूरणीय टूटना नहीं है तो यह किस तरह की स्थिति है।''

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    3. पत्नियों के साथ असमान व्यवहार करना, मुस्लिम महिलाओं के लिए तलाक का एक वैध आधारः केरल हाईकोर्ट

    [मामला: रामला बनाम अब्दुल राहुफ]

    केरल हाईकोर्ट ने कहा कि दूसरी शादी के बाद एक मुस्लिम व्यक्ति का अपनी पहली पत्नी के साथ वैवाहिक दायित्वों को निभाने से इनकार करना तलाक के लिए एक उचित आधार है।

    जस्टिस ए. मोहम्मद मुस्तक और जस्टिस सोफी थॉमस की खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा किः ''पहली पत्नी के साथ सहवास करने और वैवाहिक दायित्वों को निभाने से इनकार करना कुरान के आदेशों के उल्लंघन के समान है, जो पति द्वारा एक से अधिक विवाह करने पर पत्नियों के समान व्यवहार करने का आदेश देता है। ऐसी परिस्थितियों में, हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि अपीलकर्ता-पत्नी इस आधार पर भी तलाक की डिक्री प्राप्त करने की हकदार है।''

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    4. पत्नी की तम्बाकू चबाने की आदत के आधार पर तलाक की डिक्री को मंजूरी नहीं दी जा सकती : बॉम्बे हाईकोर्ट

    [मामला: शंकर बनाम रीना]

    फैमिली कोर्ट के जजमेंट के खिलाफ एक पति की तरफ से दायर अपील को खारिज करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट (नागपुर बेंच) ने पिछले हफ्ते फैसला सुनाया कि तलाक की डिक्री पारित करने के लिए पत्नी की तम्बाकू चबाने की आदत अकेले पर्याप्त आधार नहीं है।

    इससे पहले फैमिली कोर्ट ने भी पति की तरफ से दायर तलाक की अर्जी को खारिज कर दिया था। यह देखते हुए कि यदि विवाह को भंग कर दिया जाता है, तो बच्चों को बहुत नुकसान होगा, न्यायमूर्ति पुष्पा वी गणेदीवाला और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर की पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता/पति द्वारा ऐसे कोई सबूत पेश नहीं किए गए,जिसके आधार पर ट्रायल कोर्ट के सुविचारित निष्कर्षों में हस्तक्षेप किया जाए।

    5. धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत गठित पारिवारिक न्यायालय; प्रथागत कानूनों के तहत तलाक की मांग करने वाले पक्षों को मना नहीं कर सकते: झारखंड हाईकोर्ट

    [मामला: बागा तिर्की बनाम पिंकी लिंडा और अन्य।]

    झारखंड हाईकोर्ट ने माना कि पारिवारिक न्यायालय अपने प्रथागत कानूनों के तहत तलाक की मांग करने वाले पक्षों को मना नहीं कर सकते।

    जस्टिस अपरेश कुमार सिंह और अनुभा रावत चौधरी की खंडपीठ ने कहा, " फैमिली कोर्ट यह मानने में गलती कर गया कि मुकदमा संहिताबद्ध मूल कानून के अभाव में चलने योग्य नहीं है जैसा कि पार्टियों पर लागू होता है ... राहत की मांग करने के लिए उनके बीच तलाक के मामलों को नियंत्रित करने वाली प्रथा को साबित करना और साबित करना एक ऐसा मुद्दा था जिसे रिकॉर्ड पर दलीलों और सबूतों पर विचार करने के बाद योग्यता के आधार पर तय किया जाना था। "

    6. ''पंचायती तलाक' में कोई कानूनी पवित्रता नहीं, इस तरह के रिवाज हिंदू विवाह अधिनियम के गठन के बाद अस्तित्व में नहीं रहे: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    [मामला: निशान सिंह और अन्य। v. पंजाब राज्य और अन्य।]

    यह देखते हुए कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 एक पूर्ण संहिता है और विवाह की शर्तों के साथ-साथ तलाक की प्रक्रिया भी प्रदान करता है, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने पिछले महीने स्पष्ट किया कि 'पंचायती' तलाक की कानून दृष्टि में कोई मान्यता नहीं है।

    न्यायमूर्ति अलका सरीन की खंडपीठ ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 4 के मद्देनजर सभी रिवाज जैसे 'पंचायती' तलाक और इससे संबंधित प्रचलन का प्रभाव समाप्त हो गया है।

    न्यायालय के समक्ष मामला अदालत एक आपराधिक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें याचिकाकर्ताओं (दोनों बालिग) के जीवन को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिवादी नंबर 2 से 4 को निर्देश देने की मांग की गई थी ताकि उन्हें पुलिस सहायता प्रदान की जा सके।

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    7. प्रथागत तलाक की वैधता के संबंध में सिविल कोर्ट से घोषणा नहीं हो तो अनुच्छेद 29 (2) हिंदू विवाह अधिनियम का अपवाद आकर्षित नहीं होगा: कलकत्ता उच्च न्यायालय

    [मामला: कृष्णा वेनी बनाम भारत संघ और अन्य।]

    कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना कि केवल एक प्रथागत तलाक प्राप्त करना हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 29 (2) के तहत परिकल्पित अपवाद को आकर्षित नहीं करेगा।

    जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्य की एकल पीठ ने यह स्पष्ट किया है कि इस तरह के तलाक की वैधता को घोषणा के विलेख द्वारा स्थापित किया जाए। "1955 के अधिनियम की धारा 29 (2) के लिए, इसे पक्ष द्वारा एक प्रथा पर भरोसा करते हुए स्थापित करना होगा कि एक हिंदू विवाह के विघटन को प्राप्त करने के लिए पक्ष के अधिकार को प्रथा द्वारा मान्यता दी गई थी।"

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    8. वर्तमान पीढ़ी विवाह की अवधारणा को बहुत हल्के में लेती है, वे अकल्पनीय तुच्छ मुद्दों पर तलाक के लिए आवेदन करते हैं: मद्रास उच्च न्यायालय

    [मामला: अन्नपूर्णी बनाम एस. रितेश]

    मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि वर्तमान पीढ़ी में विवाह की अवधारणा को बहुत हल्के में लिया जाता है और यहां तक ​​कि तुच्छ मुद्दों के लिए भी, वे तलाक फाइल कर देते हैं, और विवाह टूट जाता है।

    न्यायमूर्ति वी. भवानी सुब्बारायन की खंडपीठ ने विशेष रूप से टिप्पणी की, " असहिष्णु जोड़े की मांग को पूरा करने के लिए पारिवारिक न्यायालयों की संख्या में वृद्धि होती है, जो विवाह की संस्था से अनजान हैं, अकल्पनीय तुच्छ कारणों से संबंध तोड़ते हैं ।"

    9. लिव-इन रिलेशन में विवाहित महिला-''ऐसी अवैधता की अनुमति नहीं दी जा सकती'': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 5 हजार जुर्माने के साथ संरक्षण याचिका खारिज की

    केस का शीर्षक- श्रीमती गीता व एक अन्य बनाम यू.पी. राज्य व 4 अन्य

    यह देखते हुए कि महिला पहले से ही शादीशुदा है और किसी अन्य पुरुष के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में है, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंगलवार को उसकी सुरक्षा याचिका को 5 हजार जुर्माने के साथ खारिज कर दिया।

    न्यायमूर्ति कौशल जयेंद्र ठाकर और न्यायमूर्ति दिनेश पाठक की खंडपीठ ने कहा किः ''हम यह समझने में विफल हैं कि इस तरह की याचिका को कैसे स्वीकार किया जा सकता है,जो समाज में अवैधता को अनुमति देती हो।''

    याचिकाकर्ता नंबर 1 (महिला) बालिग है और वह याचिकाकर्ता नंबर 2 (बालिग पुरुष) के साथ लिव-इन-रिलेशन में रह रही है। उन्होंने अपनी सुरक्षा याचिका में मांग की है कि प्रतिवादियों को परमादेश की प्रकृति में निर्देश दिया जाए कि वे कोई कठोर उपाय अपनाकर उनके शांतिपूर्ण लिव-इन-रिलेशन में कोई हस्तक्षेप न करें।

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    10. प्रथागत तलाक एक सामाजिक बुराई, जो बीमार दिमाग वाले पुरुषवादी रवैये के कारण होते हैं: गुजरात हाईकोर्ट

    [मामला: भारतीबेन बनाम अमितभाई विट्ठलभाई सोजित्रा]

    गुजरात हाईकोर्ट ने यह रेखांकित करते हुए कि प्रथागत तलाक एक सामाजिक बुराई है, हाल ही में एक जोड़े के प्रथागत तलाक के आधार पर उनके विवाह के विघटन की घोषणा करने से इनकार कर दिया।

    हाईकोर्ट ने कहा कि पत्नी द्वारा इसे पर्याप्त रूप से साबित नहीं किया गया (जिसने एक अपील दायर कर ऐसी घोषणा करने की मांग की थी)। पीठ ने,हालांकि स्पष्ट किया कि दोनों पक्ष हिंदू विवाह अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधान के तहत एक उपयुक्त आवेदन दायर करने और सहमति से तलाक की एक डिक्री के लिए प्रार्थना करने के लिए स्वतंत्र हैं और अदालत को इस तरह के आवेदन पर जल्द से जल्द सुनवाई करने का निर्देश दिया है।

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    तलाक का आधार

    1. 'मैरिटल रेप तलाक के लिए एक वैध आधार': केरल हाईकोर्ट ने 15 महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं

    [मामला: एक्स बनाम वाई]

    केरल हाईकोर्ट ने एक पति द्वारा दायर दो अपीलों को खारिज करते हुए कहा कि वैवाहिक बलात्कार यानी मैरिटल रेप तलाक का दावा करने का एक वैध आधार है। हालांकि, भारत में वैवाहिक बलात्कार को दंडित नहीं किया गया है। दरअसल, पति ने अपनी अपील में फैमिली कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी।

    न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुस्ताक और न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ ने पत्नी को तलाक की मंजूरी देते हुए कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं।

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    2. मुस्लिम महिलाओं को विवाह को समाप्त करने के अतिरिक्त न्यायिक तरीकों का सहारा लेने का अधिकार, केरल हाईकोर्ट ने 49 साल पुराने फैसले को रद्द किया

    [मामला: एक्स बनाम वाई और अन्य जुड़े मामले]

    49 साल पुराने एक फैसले, जिसके तहत मुस्लिम महिलाओं को विवाह को समाप्त करने के अतिरिक्त न्यायिक तरीकों का सहारा लेने से रोक दिया गया था, केरल हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया और इन तरीकों की वैधता को बरकरार रखा।

    यह पाते हुए कि शासी कानून, द डिसॉल्विंग ऑफ मुस्लिम मैरिजेज एक्ट, पर्सनल लॉ के तहत महिलाओं को उपलब्ध अतिरिक्त न्यायिक तलाक के तरीकों को अनकिया करने पर विचार नहीं किया, जस्टिस ए मुहम्मद मुस्ताक़ और सीएस डायस की पीठ ने कहा, "शरीयत एक्‍ट की धारा 2 में उल्लिखित अतिरिक्त न्यायिक तलाक के अन्य सभी प्रकार इस प्रकार मुस्लिम महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए, हम मानते हैं कि केसी मोइन के मामले (सुप्रा) में घोषित कानून अच्छा कानून नहीं है।"

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    3. जब पति या पत्नी उचित कारण के बिना सहवास की पेशकश से इनकार करते हैं, तो यह 'रचनात्मक परित्याग' के समान हैः केरल हाईकोर्ट

    [मामला: पीसी कुन्हिनारायणन बनाम विजयकुमारी]

    केरल हाईकोर्ट ने माना है कि जब अपीलकर्ता-पति वैवाहिक संबंधों को फिर से शुरू करने का प्रस्ताव देता है, और प्रतिवादी-पत्नी बिना किसी उचित कारण के इसका विरोध करती है,सहवास फिर से शुरू करने में विफल रहती है, तो यह ''रचनात्मक परित्याग'' के समान है। जस्टिस ए मोहम्मद मुस्तक और कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ ने विवाह को खत्म करने की मांग करते हुए दायर एक आवेदन को अनुमति देते हुए सावित्री पांडे बनाम प्रेम चंद पांडे (2002) मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का हवाला दिया, जहां यह माना गया है कि परित्याग रचनात्मक भी हो सकता है और इसका वर्तमान परिस्थितियों से अनुमान लगाया जाना चाहिए।

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