'इस विवाह में शुरू से ही सब ठीक नहीं रहा, 19 साल से अलग रह रहे हैं' : सुप्रीम कोर्ट ने तलाक की मंजूरी दी

LiveLaw News Network

2 Oct 2021 4:30 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली
    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए विवाह के अपूरणीय टूटने या असाध्य होने के कारण एक जोड़े को तलाक दे दिया। कोर्ट ने कहा कि शादी में 'शुरू से ही सब ठीक नहीं था' और यह जोड़ा 19 साल से अधिक समय से अलग रह रहा है।

    जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम.एम सुंदरेश की बेंच ने कहा,

    ''यदि पार्टियां शुरू से ही विवाह के उद्देश्य साहचर्य को एक-दूसरे के लिए पूरा नहीं कर पाई हैं और 19 से अधिक वर्षों से अलग रह रही हैं, तो हमारा विचार है कि यदि यह विवाह का अपूरणीय टूटना नहीं है तो यह किस तरह की स्थिति है।''

    रिकॉर्ड के अवलोकन के बाद न्यायालय ने कहा कि 'इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस जोड़े को शुरू से ही उनकी शादी में समस्या रही है।''

    शादी 9 जून 2002 को हुई थी और 29 जून 2002 को पत्नी यानी अपीलकर्ता ने पति के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी)की धारा 498ए (क्रूरता) और धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात) के तहत मामला दर्ज करवा दिया था। पत्नी ने आगे आरोप लगाया था कि दहेज की मांग को पूरा करने में असमर्थता के कारण उसे अपने वैवाहिक घर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई थी। इसके बाद 9 सितंबर 2003 को तलाक की याचिका दायर की गई थी।

    पीठ ने शिवशंकरन बनाम शांतिमीनल मामले में सर्वाेच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया है कि पति या पत्नी के खिलाफ बार-बार मामले और शिकायतें दर्ज करवाना हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक देने के उद्देश्य से 'क्रूरता' के समान होगा। यह भी कहा गया कि वैवाहिक एकता बिखर गई थी जिससे विवाह का विघटन हुआ।

    यह मानते हुए कि उपरोक्त मामले के तथ्य और तत्काल मामले की प्रकृति समान है, पीठ ने कहा,

    ''मामले के तथ्यों में, हमने पाया कि क्रूरता थी और 20 वर्षों की शादी में भी लगभग शुरू से ही कुछ ठीक नहीं था, जो वर्तमान मामले में भी कुछ हद तक समान है। हमने देखा कि वैवाहिक एकता बिखर गई थी और इस प्रकार विवाह का विघटन हुआ और यह भी देखा गया कि कोई प्रारंभिक एकीकरण नहीं था जो वास्तव में बाद में विघटित हुआ हो। इस मामले में स्थिति अलग नहीं है। इस प्रकार हमारा विचार है कि यह उचित है कि पार्टियां औपचारिक रूप से एक-दूसरे से अलग हो जाएं क्योंकि वास्तव में वह लगभग 19 वर्षों से अलग ही रह रहे हैं।''

    पृष्ठभूमि

    इस मामले में दोनों पक्षों के बीच हिंदू रीति-रिवाज से 9 जून 2002 को विवाह हुआ था, लेकिन पति के परिवार के सदस्यों के कारण शुरू से ही शादी में दिक्कतें आ गई थी।

    9 जून, 2003 को पत्नी (अपीलकर्ता) ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत क्रूरता और परित्याग के आधार पर एक याचिका दायर की थी। हालांकि, याचिका को 1 जनवरी, 2006 को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि पत्नी के भाई ने ही उसके खिलाफ बयान दिया था।

    हालांकि, अपीलकर्ता ने दावा किया कि उसके अपने भाई सुभाष चंद और भाभी रानी देवी, जिनकी उपस्थिति में अपीलकर्ता का उत्पीड़न हुआ था, की गवाही पर उचित ध्यान नहीं दिया गया। इसके बजाय, उसके दूसरे भाई की गवाही पर विश्वास किया गया, जो परिवार से अलग रहता है और अपने माता-पिता से बातचीत भी नहीं करता है।

    ट्रायल कोर्ट के आदेश को बाद में चुनौती दी गई थी, लेकिन हाईकोर्ट ने 5 नवंबर, 2009 के फैसले के तहत अपील को खारिज कर दिया था।

    इसके बाद दोनों पक्षों को शीर्ष अदालत ने 10 सितंबर, 2010 के आदेश के तहत मध्यस्थता के लिए भेजा दिया था, लेकिन कोई सहमति नहीं बन पाई।

    ट्रायल कोर्ट ने पति को आदेश दिया था कि वह अपनी पत्नी को हर माह 800 रुपये की राशि भरण-पोषण के तौर पर प्रदान करें, हालांकि 23 सितंबर, 2021 को अपीलकर्ता के वकील ने कोर्ट को अवगत कराया कि अपीलकर्ता आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए सहमत हो गई है और पहले लगाए गए सभी आरोपों को वापस ले लिया जाएगा। उसने भरण-पोषण का दावा न करने का भी फैसला किया है।

    हालांकि, 28 सितंबर, 2021 को प्रतिवादी की ओर से पेश वकील ने अदालत को सूचित किया कि प्रतिवादी अपीलकर्ता के सुझाव के अनुसार आपसी सहमति से तलाक लेने को तैयार नहीं है।

    तद्नुसार, न्यायालय यह नोट करने के बाद कि 'आपसी सहमति से तलाक भी प्रतिवादी को स्वीकार्य नहीं है', इस मामले पर फैसला सुनाने के लिए आगे बढ़ा।

    न्यायालय ने इस मामले में तलाक की डिक्री प्रदान करते हुए कहा कि,

    ''इस प्रकार हमारा विचार है कि विवाह के अपूरणीय विघटन के कारण भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पार्टियों के बीच विवाह को भंग करने वाली तलाक की एक डिक्री पारित की जानी चाहिए, लेकिन हम यह स्पष्ट करते हैं कि अपीलकर्ता द्वारा अदालत के समक्ष जो पेश किया गया था,उसको ध्यान में रखते हुए अपीलकर्ता अब से प्रतिवादी से किसी भी भरण-पोषण या अन्य राशि का दावा नहीं करेगी।''

    केस का शीर्षक- पूनम बनाम सुरेंद्र कुमार

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