सुप्रीम कोर्ट वीकली राउंड अप : सुप्रीम कोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र
सुप्रीम कोर्ट में पिछले सप्ताह (08 सितंबर, 2025 से 12 सितंबर, 2025 तक) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं सुप्रीम कोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र।
प्रत्येक नई आवासीय प्रोजेक्ट को खरीदार द्वारा लागत का 20% भुगतान करने पर स्थानीय राजस्व प्राधिकरण के पास रजिस्टर्ड होना अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट
घर खरीदारों के हितों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि नई आवासीय प्रोजेक्ट के लिए प्रत्येक आवासीय अचल संपत्ति लेनदेन को खरीदार/आवंटी द्वारा संपत्ति की लागत का कम से कम 20% भुगतान करने पर स्थानीय राजस्व प्राधिकरण के पास रजिस्टर्ड किया जाएगा।
अदालत ने आगे निर्देश दिया कि ऐसे अनुबंध जो मॉडल रेरा विक्रय समझौते से महत्वपूर्ण रूप से भिन्न हों, या जिनमें रिटर्न/बायबैक खंड शामिल हों, जहां आवंटी की आयु 50 वर्ष से अधिक हो, उन्हें सक्षम राजस्व प्राधिकरण के समक्ष शपथ पत्र द्वारा समर्थित होना चाहिए, जिसमें यह प्रमाणित किया गया हो कि आवंटी संबंधित जोखिमों को समझता है।
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S.5 Limitation Act | परिसीमा अवधि शुरू होने से लेकर वास्तविक दाखिल तिथि तक की पूरी अवधि के विलंब का स्पष्टीकरण देना होगा: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अनुसार विलंब की क्षमा के लिए परिसीमा अवधि शुरू होने से लेकर वास्तविक दाखिल तिथि तक की पूरी अवधि के लिए "पर्याप्त कारण" के अस्तित्व को स्थापित करके विलंब का स्पष्टीकरण देना होगा। यदि परिसीमा अवधि 90 दिन है और अपील 100वें दिन विलंब से दायर की जाती है तो पूरे 100 दिनों के लिए स्पष्टीकरण देना होगा।
न्यायालय ने नोट किया कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 में "ऐसी अवधि के भीतर" पद के अर्थ के संबंध में व्यक्त की गई राय में भिन्नता है, जहां इस पद का अर्थ अपील या आवेदन, जैसा भी मामला हो, दायर किए जाने की अंतिम तिथि से शुरू होने वाली अवधि माना गया। अर्थात, वह अंतिम दिन जिस दिन परिसीमा अवधि समाप्त हो जाती और उस वास्तविक तिथि तक जिस दिन ऐसी अपील या आवेदन अंततः दायर किया जाता है। दूसरे शब्दों में, यदि परिसीमा अवधि मान लीजिए 90 दिन है तो विलंब की व्याख्या केवल 90वें दिन से लेकर अपील या आवेदन, जैसा भी मामला हो, उसके वास्तविक दाखिल होने के दिन तक ही की जानी चाहिए। रामलाल, मोतीलाल और छोटेलाल बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड एआईआर 1962 एससी 361 में यही मत था।
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प्रारंभिक जांच रिपोर्ट संवैधानिक कोर्ट को FIR दर्ज करने का निर्देश देने से नहीं रोक सकती: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि जांच एजेंसी द्वारा की गई प्रारंभिक जांच रिपोर्ट किसी संवैधानिक न्यायालय को यह निष्कर्ष निकालने से नहीं रोक सकती कि आरोप प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का खुलासा करते हैं और FIR दर्ज करने का निर्देश देते हैं।
अदालत ने प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा बनाम गुजरात राज्य मामले में अपने हालिया फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि जब प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का खुलासा हो तो FIR दर्ज करने से पहले शिकायतों की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है।
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सेल डीड शून्य हो तो कब्जे का मुकदमा अनुच्छेद 59 के बजाय अनुच्छेद 65 के तहत 12 वर्ष की परिसीमा अवधि द्वारा शासित होगा: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी के सेल डीड के शून्य होने के आधार पर अचल संपत्ति पर कब्जे के लिए दायर किया गया मुकदमा, परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 65 के तहत 12 वर्ष की सीमा अवधि द्वारा शासित होगा, न कि अधिनियम के अनुच्छेद 59 के तहत 3 वर्ष की छोटी अवधि द्वारा।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि जहां प्रतिवादी द्वारा जाली और शून्य सेल डीड के आधार पर संपत्ति पर कब्जे का दावा किया जाता है, वहां मुकदमा 12 वर्ष के भीतर दायर किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा कब्जा वादी के प्रतिकूल माना जाता है।
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'आवास का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार': सुप्रीम कोर्ट
घर खरीदारों की सुरक्षा के उद्देश्य से महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा की कि आवास का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार है। कोर्ट ने केंद्र सरकार से दिवालियापन की कार्यवाही से गुजर रही संकटग्रस्त रियल एस्टेट प्रोजेक्ट के लिए वित्तपोषण प्रदान करने हेतु एक पुनरुद्धार कोष बनाने का आग्रह किया।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने कहा कि इसका उद्देश्य अन्यथा व्यवहार्य रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स के परिसमापन को रोकना और वास्तविक घर खरीदारों के हितों की रक्षा करना होना चाहिए।
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जमानत याचिकाएं 2 महीने में निपटाएं, सालों तक लंबित न रखें: सुप्रीम कोर्ट का हाईकोर्ट्स व ट्रायल कोर्ट्स को निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने देशभर की हाईकोर्ट्स और ट्रायल कोर्ट्स को निर्देश दिया है कि वे जमानत और अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) से जुड़ी याचिकाओं को जल्द से जल्द निपटाएं, अधिमानतः 2 महीने के भीतर। जस्टिस आर. महादेवन ने फैसला सुनाते हुए कहा — “हाईकोर्ट और अधीनस्थ अदालतें जमानत और अग्रिम जमानत की याचिकाओं का निपटारा कम समय में करें, अधिमानतः 2 महीने के भीतर। यही निर्देश हमने दिया है।”
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क्षमा मांगने का अधिकार दोषी को शेष आजीवन कारावास की सजा सुनाने पर ही लागू होता है: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि क्षमा मांगने का अधिकार तब भी लागू होता है, जब किसी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376DA या धारा 376DB जैसे प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया जाता है, जो उस व्यक्ति के शेष जीवनकाल के लिए आजीवन कारावास की अनिवार्य सजा का प्रावधान करते हैं।
यह देखते हुए कि क्षमा मांगने का अधिकार संवैधानिक अधिकार और वैधानिक अधिकार दोनों है, अदालत ने IPC की धारा 376DA की वैधता पर निर्णय देने से इनकार कर दिया, जो 16 वर्ष से कम उम्र की नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार के लिए शेष जीवनकाल के लिए आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करती है।
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Sec.420 IPC| फर्जी दस्तावेज़ से कोई लाभ न मिला तो धोखाधड़ी का अपराध नहीं: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (10 सितम्बर) को एक शैक्षणिक संस्थान के प्रमुख के खिलाफ दर्ज धोखाधड़ी का मामला रद्द कर दिया, जिन पर फर्जी फायर डिपार्टमेंट एनओसी का इस्तेमाल कर संबद्धता (affiliation) लेने का आरोप था।
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने कहा कि कॉलेज को मान्यता दिलाने के लिए फायर डिपार्टमेंट की नकली एनओसी जमा करना न तो धोखाधड़ी (cheating) है और न ही जालसाजी (forgery), क्योंकि यह दस्तावेज़ कानूनी तौर पर अनिवार्य नहीं था और न ही शिक्षा विभाग को संबद्धता देने के लिए इससे कोई वास्तविक प्रभाव पड़ा।
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CrPC की धारा 197 के तहत मंजूरी का मुद्दा कार्यवाही के किसी भी चरण में निचली अदालत में उठाया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामले में किसी लोक सेवक के विरुद्ध निचली अदालत द्वारा आरोप तय करने में हस्तक्षेप करने से इनकार किया और कहा कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 197 के तहत मंजूरी के प्रश्न पर कार्यवाही के किसी भी चरण में विचार किया जा सकता है, क्योंकि यह मुद्दा प्रस्तुत साक्ष्य की प्रकृति पर निर्भर करता है कि क्या कृत्य आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किए गए।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें याचिकाकर्ता-लोक सेवक पर IPC की धारा 120बी (आपराधिक षड्यंत्र), 409 (लोक सेवक द्वारा आपराधिक विश्वासघात), 477ए (खातों में हेराफेरी) और 420 (धोखाधड़ी) के साथ-साथ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत भी मुकदमा चल रहा था। यद्यपि PC Act के तहत वैध अनुमति प्राप्त कर ली गई। हालांकि, IPC के अपराधों के लिए CrPC की धारा 197 के तहत कोई अलग से अनुमति प्राप्त नहीं की गई। हाईकोर्ट में उनकी पुनर्विचार याचिकाएं खारिज कर दी गईं, जिसके बाद उन्हें सुप्रीम कोर्ट का रुख करना पड़ा।
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पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि पुलिस को FIR दर्ज करते समय शिकायत की सत्यता या विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है; यदि शिकायत में प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो पुलिस FIR दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने कहा, "यदि प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनता है तो FIR दर्ज करना पुलिस का कर्तव्य है, पुलिस को उक्त सूचना की सत्यता और विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है।"
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नियम न हों तो आरक्षित उम्मीदवार छूट लेकर भी सामान्य वर्ग में चयनित हो सकता है: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (9 सितंबर) को फैसला सुनाते हुए कहा कि जब तक भर्ती नियमों में स्पष्ट रूप से मना न किया गया हो, आरक्षित वर्ग का कोई उम्मीदवार जिसने शारीरिक मानकों में छूट ली हो, अगर मेरिट में चयनित होता है तो उसे सामान्य श्रेणी (अनारक्षित) की पोस्ट पर भी नियुक्त किया जा सकता है।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार की याचिका खारिज कर दी, जिसने CISF असिस्टेंट कमांडेंट (एक्जीक्यूटिव) भर्ती में एक अंक से चयन चूक जाने के बाद, आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार की सामान्य सीट पर नियुक्ति को चुनौती दी थी। कोर्ट ने कहा कि एसटी श्रेणी के तहत कम ऊँचाई मानक की छूट लेने के बावजूद, यदि उम्मीदवार मेरिट में सामान्य सीट के लिए योग्य है, तो वह उस पर दावा कर सकता है।
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आयु-छूट लेने वाले आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार सामान्य श्रेणी सीटों पर नहीं जा सकते: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (9 सितम्बर) को कहा कि आरक्षित वर्ग के वे उम्मीदवार, जो आरक्षण श्रेणी में आयु-छूट लेकर आवेदन करते हैं, उन्हें बाद में अनारक्षित (सामान्य) श्रेणी की रिक्तियों में चयन के लिए नहीं माना जा सकता, यदि भर्ती नियम ऐसे स्थानांतरण (migration) को स्पष्ट रूप से रोकते हैं।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने यह मामला सुना, जो स्टाफ सिलेक्शन कमीशन (SSC) की कॉन्स्टेबल (GD) भर्ती से जुड़ा था। इसमें आयु सीमा 18–23 वर्ष तय थी और ओबीसी उम्मीदवारों को 3 साल की छूट दी गई थी। प्रतिवादियों ने ओबीसी उम्मीदवार के रूप में आवेदन किया और इस छूट का लाभ लिया। हालांकि उन्होंने सामान्य वर्ग के अंतिम चयनित उम्मीदवार से अधिक अंक प्राप्त किए, लेकिन ओबीसी वर्ग के अंतिम चयनित उम्मीदवार से कम अंक होने के कारण चयनित नहीं हो सके।
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केवल दस्तावेज़ी प्रमाण के अभाव में नकद लोन रद्द नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल इसलिए कि धन का एक हिस्सा बैंक हस्तांतरण के बजाय नकद के माध्यम से किया गया, इसका मतलब यह नहीं है कि केवल बैंकिंग माध्यम से हस्तांतरित राशि को ही प्रमाणित माना जा सकता है, खासकर जब वचन पत्र में पूरे लेनदेन का उल्लेख हो। न्यायालय ने आगे कहा कि दस्तावेज़ी प्रमाण का अभाव अपने आप में नकद लेनदेन रद्द नहीं कर देता। न्यायालय ने स्वीकार किया कि ऐसी स्थितियां होंगी, जहां लेनदेन करना होगा, जिसके लिए कोई प्रमाण नहीं होगा।
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सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार क्षेत्राधिकार के सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया, बेटी को सहदायिक अधिकार दिया
हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (HSA) के तहत बेटी के सहदायिक हिस्से का वैधानिक अधिकार बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (8 सितंबर) को मद्रास हाईकोर्ट का पुनर्विचार आदेश रद्द कर दिया। हाईकोर्ट ने अपने इस आदेश में तथ्यों की पुनर्व्याख्या की थी और उसके अधिकार पर सवाल उठाया था। न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई भी प्रयास हाईकोर्ट के पुनर्विचार क्षेत्राधिकार के दायरे से बाहर है।
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सुप्रीम कोर्ट का ECI को निर्देश: आधार कार्ड को पहचान प्रमाण के रूप में स्वीकार करें
बिहार विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (8 सितंबर) को भारत के चुनाव आयोग (ECI) को निर्देश दिया कि वह आधार कार्ड को "12वें दस्तावेज़" के रूप में माने, जिसे बिहार की संशोधित मतदाता सूची में शामिल होने के लिए पहचान के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इसका अर्थ है कि आधार कार्ड को मतदाता सूची में शामिल होने के लिए स्वतंत्र दस्तावेज़ के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जैसे कि चुनाव आयोग द्वारा मूल रूप से स्वीकार्य अन्य ग्यारह दस्तावेज़ों में से किसी एक को भी।