हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र
Shahadat
1 Dec 2024 10:00 AM IST
देश के विभिन्न हाईकोर्ट में पिछले सप्ताह (25 नवंबर, 2024 से 29 नवंबर, 2024) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं हाईकोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र।
राजस्थान सिविल सेवा नियम | जांच में लंबा समय लगने की आशंका धारा 19 के तहत अनुशासनात्मक जांच को टालने का आधार नहीं: हाईकोर्ट
राजस्थान हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि अनुशासनात्मक जांच में लंबा समय लगने की संभावना राजस्थान सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1958 की धारा 19 (ii) को लागू करने और जांच को खत्म करने का कारण नहीं हो सकती। न्यायालय ने यह भी कहा कि कर्मचारी द्वारा साक्ष्य को प्रभावित करने या छेड़छाड़ करने की आशंका विभाग की अपनी प्रणाली में विश्वास की कमी को दर्शाती है।
नियमों के नियम 19 में यह प्रावधान है कि जहां अनुशासनात्मक प्राधिकारी संतुष्ट हो कि दंड लगाने की प्रक्रिया सहित नियमों में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना व्यावहारिक नहीं है तो वह लिखित में कारण दर्ज करने के बाद ऐसे आदेश पारित कर सकता है जैसा वह उचित समझे।
केस टाइटल: दिनेश बनाम राजस्थान राज्य और अन्य।
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Sec.349 BNSS: मजिस्ट्रेट किसी भी व्यक्ति को जांच के उद्देश्य से आवाज का नमूना देने का निर्देश दे सकता है: केरल हाईकोर्ट
केरल हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेट के लिए किसी भी व्यक्ति को Sec. 349 BNSSके तहत आवाज का नमूना देने का निर्देश देने के मानदंड को मजिस्ट्रेट की संतुष्टि माना कि जांच के उद्देश्य से इस तरह के नमूने की आवश्यकता है।
"धारा 349 के तहत, मानदंड मजिस्ट्रेट की संतुष्टि है कि किसी भी व्यक्ति को BNSS के तहत जांच या कार्यवाही के प्रयोजनों के लिए फिर से अपनी आवाज का नमूना प्रदान करने का निर्देश देना समीचीन है। इसलिए, इस सवाल पर जोर दिया जा रहा है कि क्या अपराध की जांच के उद्देश्य से आवाज के नमूने की आवश्यकता है।
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मजिस्ट्रेट या स्पेशल कोर्ट की जांच की शक्ति में FIR की वैधता पर सवाल उठाने का अधिकार शामिल नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि मजिस्ट्रेट या विशेष अदालत की जांच की शक्ति में प्राथमिकी की वैधता पर सवाल उठाने का अधिकार शामिल नहीं है।
जस्टिस प्रतिभा एम सिंह की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि मजिस्ट्रेट या स्पेशल कोर्ट को CrPC की धारा 173 (2) के तहत अंतिम रिपोर्ट दायर होने तक मूक दर्शक बने रहना चाहिए और न्यायिक सहायता तक अपनी कार्रवाई सीमित करनी चाहिए। पीठ ने यह भी कहा कि जांच पुलिस या जांच एजेंसी का विशेषाधिकार है और अदालत अंतिम रिपोर्ट पेश होने तक इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी।
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सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के पास असीमित वित्तीय अधिकार क्षेत्र है, वह 5 लाख रुपये से कम मूल्य के मुकदमों पर फैसला कर सकते हैं: झारखंड हाईकोर्ट
झारखंड हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि सिविल जज (वरिष्ठ डिवीजन) के पास असीमित वित्तीय अधिकार क्षेत्र है और वह 5 लाख रुपये से कम या उससे अधिक मूल्य के मुकदमों का निपटारा कर सकता है, भले ही ऐसा मूल्यांकन मुंसिफ न्यायालय के वित्तीय अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता हो। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि ऐसे मामलों में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग अवैधानिक नहीं है।
जस्टिस सुभाष चंद ने कहा कि असीमित वित्तीय अधिकार क्षेत्र वाले सिविल जज (वरिष्ठ डिवीजन) को 5 लाख रुपये या उससे कम मूल्य के मुकदमों का फैसला करने का अधिकार है। उन्होंने कहा कि इस तरह की अधिकार क्षेत्र संबंधी चुनौतियों को कार्यवाही के शुरुआती चरण में ही उठाया जाना चाहिए था।
केस टाइटल: लगनी मुंडेन बनाम रतन कुमारी सुराना और अन्य
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SC/ST Act अपराध | धारा 482 CrPC के तहत याचिका तब सुनवाई योग्य, जब पूरे मामले की कार्यवाही को चुनौती दी जाती है: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने देखा कि जब SC/ST Act के तहत दर्ज मामले की पूरी कार्यवाही को चुनौती दी जाती है तो हाईकोर्ट न्याय के अंत को सुरक्षित करने के लिए धारा 482 CrPC के तहत अपने अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र के तहत मामले पर विचार कर सकता है।
न्यायालय ने कहा कि अपने अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र के तहत हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बारे में कोई कठोर नियम नहीं हो सकता है। यदि उसे लगता है कि किसी विशेष मामले में हस्तक्षेप करके वह न्यायालय या कानून के दुरुपयोग या दुरुपयोग को रोक सकता है तो वह हमेशा हस्तक्षेप कर सकता है।
केस टाइटल- अभिषेक अवस्थी @ भोलू अवस्थी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य तथा संबंधित मामले
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धारा 233 बीएनएसएस | समान आरोपों पर बाद की एफआईआर पर रोक नहीं, लेकिन मजिस्ट्रेट लंबित शिकायत में आगे की कार्यवाही पर रोक लगाएंगे: राजस्थान हाईकोर्ट
राजस्थान हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा 233 में कोई संदेह नहीं है कि भले ही किसी विशेष आरोप और तथ्य के संबंध में शिकायत की कार्यवाही पहले से चल रही हो और पुलिस अधिकारियों को उसी तथ्य पर रिपोर्ट/शिकायत प्राप्त हो, लेकिन उन्हें उन तथ्यों पर एफआईआर दर्ज करने से नहीं रोका जा सकता है।
जस्टिस अरुण मोंगा की पीठ ने कहा कि एकमात्र अनिवार्य प्रक्रिया यह है कि मजिस्ट्रेट एफआईआर दर्ज करने से पहले शुरू की गई शिकायत मामले में आगे की कार्यवाही पर रोक लगाएगा, ताकि जांच/जांच के परिणाम की प्रतीक्षा की जा सके।
केस टाइटल: राम चंद्र बिसु और अन्य बनाम राजस्थान राज्य
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वसीयत के निष्पादक की मृत्यु के साथ प्रोबेट कार्यवाही समाप्त हो जाती है, कानूनी उत्तराधिकारियों का प्रतिस्थापन स्वीकार्य नहीं: पटना हाईकोर्ट
पटना हाईकोर्ट ने कहा कि वसीयत के निष्पादक की मृत्यु के बाद उसके कानूनी उत्तराधिकारियों को उसके स्थान पर प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है, साथ ही कहा कि वसीयत के निष्पादक की मृत्यु के बाद प्रोबेट कार्यवाही समाप्त हो जाती है।
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 222 पर भरोसा करते हुए जस्टिस अरुण कुमार झा ने कहा कि प्रोबेट प्राप्त करने का अधिकार निष्पादक तक ही सीमित है और यह किसी भी तरह से वसीयत द्वारा नियुक्त निष्पादक के उत्तराधिकारी को नहीं दिया जा सकता है। संदर्भ के लिए प्रोबेट यह स्थापित करने की कानूनी प्रक्रिया है कि वसीयत सही तरीके से बनाई गई है या नहीं।
केस टाइटलः संजय त्रिबेदी @ मुन्ना त्रिबेदी बनाम कांति देवी एवं अन्य।
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अनुकंपा नियुक्ति पाने के लिए 5 साल की सीमा उस तारीख से शुरू होती है जब कार्रवाई का कारण उत्पन्न होता है: पटना हाईकोर्ट
पटना हाईकोर्ट की जस्टिस पीबी बंजंथरी और जस्टिस बीपीडी सिंह की खंडपीठ ने उस निर्णय को चुनौती देने वाली अपील स्वीकार कर ली जिसमें कांस्टेबल के पद पर अनुकंपा नियुक्ति के लिए एक आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि आवेदन निर्धारित 5 वर्ष की अवधि के भीतर अधिकारियों के समक्ष दायर नहीं किया गया था।
न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्ता अपने पिता की मृत्यु के ठीक बाद नियुक्ति के लिए आवेदन दायर नहीं कर सकता था, क्योंकि उसे उसकी मृत्यु से छह महीने पहले सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। यह माना गया कि बर्खास्तगी आदेश को रद्द करने के आदेश की तिथि से पांच वर्ष की अवधि पर विचार किया जाना चाहिए।
केस टाइटलः सनी कुमार बनाम बिहार राज्य और अन्य
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लंबे समय से पति-पत्नी के रूप में रह रहे दंपतियों के भरण-पोषण का दावा करने के लिए विवाह के सख्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं: कलकत्ता हाईकोर्ट
कलकत्ता हाईकोर्ट ने माना कि पति-पत्नी के रूप में लंबे समय से रह रहे दंपत्ति के लिए धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण का दावा करते समय विवाह के सख्त सबूत की आवश्यकता नहीं है।
जस्टिस अजय कुमार गुप्ता ने कहा, "जहां एक पुरुष और महिला काफी लंबे समय से पति-पत्नी के रूप में साथ रह रहे हैं, वहां दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए विवाह के सख्त सबूत की पूर्व शर्त नहीं होनी चाहिए। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत कार्यवाही में विवाह के सख्त सबूत की आवश्यकता नहीं है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लाभकारी प्रावधान की सच्ची भावना और सार को पूरा करने के लिए पत्नी को प्रथम दृष्टया विवाह का मामला साबित करना होगा।"
केस टाइटल: श्रीमती सुनीता दास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य
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[Motor Accidents] चालक लाइसेंस की वैधता न होना, वाहन मालिक द्वारा बीमा पॉलिसी की शर्तों का उल्लंघन: कलकत्ता हाईकोर्ट
कलकत्ता हाईकोर्ट ने माना कि जब दुर्घटना के दिन चालक लाइसेंस अमान्य होता है तो यह वाहन मालिक द्वारा बीमा अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन होगा, जिसने चालक को वैध लाइसेंस के बिना वाहन चलाने की अनुमति दी।
जस्टिस अजय कुमार गुप्ता ने कहा: "इसके अलावा, जब दुर्घटना की तिथि पर ड्राइविंग लाइसेंस वैध नहीं होता है तो वाहन मालिक द्वारा ऐसे चालक को वैध लाइसेंस के बिना वाहन चलाने की अनुमति देना बीमा पॉलिसी की शर्तों का उल्लंघन माना जाता है।"
केस टाइटल: बरुण मुखर्जी और अन्य बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और अन्य
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पत्नी द्वारा पति से झगड़ा करने के आरोप तीव्र मानसिक पीड़ा दर्शाने के लिए पर्याप्त नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि पत्नी द्वारा पति से झगड़ा करने के आरोप तीव्र मानसिक पीड़ा दर्शाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, जिससे क्रूरता के आधार पर तलाक मांगा जा सके। यह देखते हुए कि पत्नी द्वारा उस पर क्रूरता करने के खिलाफ पति द्वारा लगाए गए आरोप अस्पष्ट प्रकृति के हैं।
जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने कहा, “यह आरोप कि वह बिना किसी कारण के उससे झगड़ा कर रही थी। इस न्यायालय के सुविचारित दृष्टिकोण में यह कोई राय बनाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि अपीलकर्ता/पति तीव्र मानसिक पीड़ा, निराशा और हताशा से गुजर रहा है। इसलिए उसके लिए प्रतिवादी/पत्नी के साथ रहना संभव नहीं है।”
केस टाइटल: डॉ. बागीश कुमार मिश्रा बनाम रिंकी मिश्रा
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कक्षा 10 की मार्कशीट एक सार्वजनिक दस्तावेज, जन्म प्रमाण के रूप में विश्वसनीय और प्रामाणिक: राजस्थान हाईकोर्ट
राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर पीठ ने एक व्यक्ति को सरपंच पद के लिए अयोग्य ठहराने के चुनाव न्यायाधिकरण के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र (कक्षा 10 की मार्कशीट) एक सार्वजनिक दस्तावेज है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 35 के अनुसार विश्वसनीय और प्रामाणिक है।
न्यायालय ने कहा कि यह विशेष रूप से इस तथ्य के मद्देनजर था कि कक्षा 10 की मार्कशीट में दिखाई देने वाली जन्म तिथि अंतिम हो गई थी क्योंकि उसे चुनौती नहीं दी गई थी।
केस टाइटल: जगदीघ प्रसाद बनाम अरविंद कुमार और अन्य।
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नियुक्ति कानून के अनुसार नहीं है तो ड्यूटी पर बिताया गया समय महत्वहीन : पटना हाईकोर्ट
पटना हाईकोर्ट के जस्टिस पी.बी. बंजंथरी और जस्टिस बी.पी.डी. सिंह की खंडपीठ ने माना कि यदि किसी उम्मीदवार की नियुक्ति कानून के अनुसार नहीं है तो यह महत्वहीन होगा कि उसने पद के संबंध में कितने वर्षों तक कर्तव्यों का निर्वहन किया। खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश को बरकरार रखा जिसने अपीलकर्ता (प्रधान लिपिक) को राहत देने से इनकार किया, जिसे नियुक्ति की तिथि पर मेरिट सूची में नहीं होने के बावजूद पद पर नियुक्त किया गया।
केस टाइटल: अमित श्रीवास्तव बनाम बिहार राज्य और अन्य
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रेस - ज्यूडिकाटा का सिद्धांत गुजारा भत्ता, स्त्रीधन की राहत पर लागू नहीं होता, जिसका दावा किसी भी बाद के चरण में किया जा सकता है: राजस्थान हाईकोर्ट
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 की उद्देश्यपूर्ण व्याख्या के लिए स्वर्णिम नियम को लागू करते हुए, राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर पीठ ने फैसला सुनाया कि रेस - ज्यूडिकाटा का सिद्धांत प्रावधान में दिए गए स्थायी गुजारा भत्ता और स्त्रीधन की राहत पर लागू नहीं होता है।
ऐसा करते हुए न्यायालय ने रेखांकित किया कि रेस - ज्यूडिकाटा लागू नहीं होता है, क्योंकि धारा 25 के तहत मांगी गई राहत का दावा "किसी भी बाद के चरण में" भी किया जा सकता है और अधिनियम के तहत अधिकार क्षेत्र रखने वाले किसी भी न्यायालय द्वारा प्रदान किया जा सकता है।
केस: एक्स बनाम वाई
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केंद्र सरकार की सेवाओं में नियुक्ति मात्र से राज्य सेवाओं में नियुक्ति का अधिकार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि केंद्र सरकार की सेवाओं के किसी भाग में कर्मचारी होने मात्र से उसे प्रांतीय सेवाओं में नियुक्ति का अधिकार नहीं मिल जाता। यह माना गया कि राज्य सरकार ऐसे कर्मचारी के विरुद्ध आपराधिक मामला लंबित होने के बावजूद उसे यंत्रवत् नियुक्त नहीं कर सकती।
जस्टिस सलिल कुमार राय ने एक ऐसे मामले में सुनवाई करते हुए, जिसमें याचिकाकर्ता पर दहेज निषेध अधिनियम 1961 के तहत मामला दर्ज किया गया था, कहा, “नियुक्ति के लिए उम्मीदवार की उपयुक्तता के बारे में दो अलग-अलग सार्वजनिक नियोक्ताओं के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। एक नियोक्ता दूसरे नियोक्ता के निर्णय और विवेक से बाध्य नहीं है। राज्य सरकार को केंद्र सरकार या राज्यसभा सचिवालय द्वारा लिए गए निर्णय का यंत्रवत् और दासतापूर्वक पालन करने के दायित्व से नहीं जोड़ा जा सकता।”
केस टाइटल: विशाल सारस्वत बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य