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सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 27: संपत्ति की कुर्की
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 60 कुर्की से संबंधित धारा है। यह धारा संहिता की महत्वपूर्ण धारा है। कुर्की एक प्रसिद्ध शब्द है, जहां किसी कर्जदार से वसूली के लिए उसकी संपत्ति को न्यायालय कुर्क करता है, फिर उसकी बोली लगाकर लेनदार को अदायगी करवाई जाती है। हालांकि कुर्की केवल कर्ज़ के मामले में नहीं अपितु प्रत्येक निर्णीत ऋणी के विरुद्ध की जा सकती है। इस आलेख के अंतर्गत कुर्की से संबंधित धारा 60 पर विस्तृत विवेचन किया जा रहा है।धारा 60 इस बात का उपबन्ध करती है कि धन...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 26: संहिता में गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 55, 56, 58 सिविल मामलों में गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान करती है। इस आलेख में इन तीनों महत्वपूर्ण धाराओं पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है जिससे गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान पूरी तरह स्पष्ट हो सके।धारा 55धारा 55 निर्णीत-ऋणी के निष्पादन में गिरफ्तारी और निरोध से सम्बन्धित उपबन्ध करती है। इस धारा के अनुसार निर्णीत-ऋणी को डिक्री के निष्पादन के किसी भी समय और किसी भी दिन गिरफ्तार किया जा सकेगा और यथासाध्य शीघ्रता से न्यायालय के समक्ष...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 25: संहिता की धारा 51, 52, 53 एवं 54 पर टिप्पणी
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 51, 52, 53 एवं 54 पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 51डिक्री के निष्पादन हेतु यह धारा न्यायालय की अधिकारिता और शक्ति को परिभाषित करती है। किस प्रकार डिक्री का निष्पादन किया जाय, तरीका संहिता की अनुसूची (schedule) में दिया गया है। सामान्य तौर से यह धारा उन तमाम ईंगों को बताती है जिसके अनुसार डिक्री का निष्पादन किया जा सकता है। इस धारा में जितने ढंग बताये गये हैं, न्यायालय उन सब का उपयोग किसी मामले में नहीं कर सकती।...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 24: अन्तरिती और विधिक प्रतिनिधि
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 49 अन्तरिती और धारा 50 विधिक प्रतिनिधि के संबंध में घोषणा करती है। इस आलेख में इन दोनों ही महत्वपूर्ण धाराओं पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 49 (अन्तरिती)धारा 49 प्रावधान ठीक उसी प्रकार से है जो सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम 1882 की धारा 132 के हैं। धारा 132 के अनुसार एक समुनेदशिती (अन्तरिती) की स्थिति समनुदेशक से अच्छी नहीं होती जहाँ तक समनुदेशक (assignor) और उसके ऋणदाता के बीच की साम्या का प्रश्न है, वह साम्या जो समनुदेशन के समय...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 23: डिक्री का निष्पादन करने वाली अदालत कौन से प्रश्नों को निर्धारित कर सकती है
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 47 और संहिता की धारा 11 एक दूसरे की पूरक हैं क्योंकि दोनों धाराओं का उद्देश्य अनावश्यक मुकदमेंबाजी को रोकना है। इस धारा के माध्यम से डिक्री के निष्पादन से सम्बन्धित प्रश्नों का निपटारा कम समय और खर्चे में किया जा सकेगा अन्यथा अलग वाद के माध्यम से खर्चे में बढ़ोत्तरी और विलम्ब की पूरी संभावना बनी रहती है। दूसरे शब्दों में धारा 47 निष्पादन से सम्बन्धित सभी प्रश्नों का निपटारा करने की व्यवस्था करके न्यायालय को सशक्त बनाकर एक सस्ती,...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 22: आज्ञापत्र किसे कहा जाता है
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 46 आज्ञापत्र से संबंधित है। यह वही आज्ञापत्र है जो एक प्राधिकारी द्वारा दूसरे प्राधिकारी को कानून द्वारा दी गई शक्ति के अधीन प्रेषित किया जाता है। इस आलेख में आज्ञापत्र से संबंधित प्रावधानों को समझने का प्रयास किया जा रहा है।संहिता में प्रस्तुत की गई धारा में आज्ञापत्र को इन शब्दों में उल्लेखित किया गया है-धारा 46आज्ञापत्र - (1) जब कभी डिक्री पारित करने वाला न्यायालय डिक्रीदार के आवेदन पर ठीक समझे तब वह किसी ऐसे अन्य न्यायालय को, जो...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 21: संहिता की धारा 39, 40, 41 एवं 42
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 39, 40, 41 एवं 42 डिक्री के निष्पादन से संबंधित है। यह चारो ही धाराएं लगभग समान प्रावधान करती है। इस आलेख में इन चारों ही धाराओं पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 39धारा 38 इस बात का प्रावधान करती है कि डिक्री या तो उस न्यायालय द्वारा निष्पादित की जायेगी जिसने डिक्री पारित किया है या उस न्यायालय द्वारा जिसे डिक्री निष्पादन के लिये भेजी जायेगी, परन्तु ऐसा न्यायालय सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय होना चाहिये। धारा 39 इस...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 20: संहिता की धारा 37 एवं 38
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 37 एवं 38 डिक्री के निष्पादन से संबंधित है। इस आलेख के अंतर्गत इन दोनों ही धाराओं पर पृथक पृथक टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 37संहिता की धारा 38 उस न्यायालय को इंगित करती है जिसके द्वारा डिक्री निष्पादित की जा सकती है। यह प्रावधान करता है कि एक डिक्री को या तो उस न्यायालय द्वारा निष्पादित किया जा सकता है जिसने इसे पारित किया है या उस न्यायालय द्वारा निष्पादित किया जा सकता है जिसे इसे निष्पादन के लिए भेजा गया है। इसे भी...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 19: आदेशों का लागू होना
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 36 में प्रावधान है कि डिक्री के तहत भुगतान से संबंधित प्रावधानों सहित डिक्री के निष्पादन से संबंधित संहिता के प्रावधान भी एक आदेश के तहत भुगतान सहित आदेशों के निष्पादन पर लागू होते हैं। इस धारा में अंतर्निहित सिद्धांत यह है कि प्रत्येक न्यायालय के पास अपने आदेशों को लागू करने की एक अंतर्निहित शक्ति है, ऐसा न करने पर आदेश केवल एक तथ्य होगा। अवमानना कार्यवाही में उच्च न्यायालय का एक आदेश संहिता की धारा 2 खंड 14 के अर्थ के भीतर एक आदेश...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 18: संहिता में खर्चे से संबंधित प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 35 खर्चे से संबंधित है। किसी भी वाद में अनेक खर्च होते हैं, उन खर्चो की भरपाई कैसे की जाएगी और किस मद में भुगतान किया जाएगा, यह धारा इसी संबंध में उल्लेख करती है। एक तरह से यह धारा वाद के खर्चो को एक अधिकार के रूप में उल्लेखित कर रही है। अगर संहिता में यह धारा नहीं होती तो वाद में खर्चा प्राप्त करने जैसा कोई विचार ही नहीं होता। इस आलेख में धारा 35 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।धारा 35 न्यायालय की लागत अधिनिर्णीत करने की शक्ति से...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 17: संहिता में ब्याज़ संबंधित प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 34 ब्याज़ के संबंध में उल्लेख करती है। इस धारा के अधीन यह निर्धारित किया गया है कि किसी भी रुपए से संबंधित वाद में ब्याज़ का क्या अस्तित्व रहेगा। इस आलेख के अंतर्गत धारा 34 पर टीका प्रस्तुत किया जा रहा है।धारा 34धारा 34 के प्रावधान तभी लागू होते हैं जब रुपए के भुगतान की डिक्री हो। रुपए के भुगतान के लिए डिक्री जैसा कि खंड में उपयोग किया गया है, में अनलिमिटेड हर्जाने का दावा भी शामिल है। इसके अलावा, धारा 34 में सूट की संस्था से पहले...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 16: वाद में निर्णय और डिक्री
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 33 निर्णय और डिक्री के संबंध में उल्लेख करती है। इस धारा में केवल इतना कह गया है कि सुनवाई के बाद न्यायालय निर्णय और डिक्री पारित करेगा। हालांकि निर्णय और डिक्री का अर्थ अत्यंत विशद है, किसी भी वाद की समस्त सुनवाई का सार निर्णय ही होता है। इस आलेख के अंतर्गत निर्णय और डिक्री पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।सुनवाई पूरी होने के बाद कोर्ट फैसला सुनाएगा। एक बार फैसला सुनाए जाने के बाद एक डिक्री का पालन किया जाएगा। संहिता के...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 15: न्यायालय की खोज करने संबंधित शक्तियां
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 30 न्यायालय को खोज की शक्तियां प्रदान करती है। किसी मामले न्यायालय को इन शक्तियों की आवश्यकता हो सकती है। इस आलेख के अंतर्गत इन्हीं शक्तियों को उल्लेखित किया जा रहा है।धारा 30 कुछ मामलों में न्यायालय की शक्ति से संबंधित है, जैसे, पूछताछ करने और जवाब, दस्तावेजों की स्वीकृति, खोज, निरीक्षण, उत्पादन, जब्त और दस्तावेजों की वापसी आदि।विषयवार वे हैं:(1) पूछताछ (आदेश 11)(2) खोज और निरीक्षण (आदेश 11)(3) दस्तावेजों और तथ्यों की स्वीकृति...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 14: प्रतिवादियों को समन
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 27 प्रतिवादियों को समन के संबंध में उल्लेख करती है। मुकदमा दर्ज होने के बाद सर्वप्रथम कार्यवाही समन की होती है। वादी मुकदमा लाता है और प्रतिवादियों को समन जारी किए जाते हैं। इस आलेख के अंतर्गत धारा 27 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।प्रतिवादियों को समनधारा 27 एक नियम को अधिनियमित करती है कि जब मुकदमा "विधिवत रूप से स्थापित" किया गया है, तो न्यायालय का कर्तव्य प्रतिवादी को एक समन जारी करना है जो उसे पेश होने और दावे का जवाब देने के...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 13: वाद अंतरण पर उच्च न्यायालय की शक्ति
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 25 वाद अंतरण करने हेतु उच्च न्यायालय को सशक्त करती है। जिस प्रकार धारा 24 यह शक्ति अधीनस्थ न्यायालय को प्रदान करती है इस ही प्रकार धारा 25 यह शक्ति उच्च न्यायालय में भी निहित करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 25 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।संपूर्ण धारा 25 को एक नए खंड द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। धारा 25 जैसा कि मूल रूप से था (सी.पी.सी. संशोधन अधिनियम, 1976 से पहले) राज्य सरकार को एक एकल न्यायाधीश द्वारा की गई एक रिपोर्ट पर...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 12: अंतरण और प्रत्याहरण की साधारण शक्ति
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 24 न्यायालय को मामले को ट्रांसफर करने और प्रत्याहरण (विथड्रा) करने की शक्ति देती है। न्यायालय में यह शक्ति निहित है, जिस न्यायालय में मामला दर्ज किया गया है वह उसे ट्रांसफर भी कर सकता है और उस मामले को वापस भी कर सकता है। इस आलेख में धारा 24 पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है। धारा 24 किसी भी वाद अपील या कार्यवाही को स्थानांतरित करने और वापस लेने की सामान्य शक्ति प्रदान करती है। शक्ति उच्च न्यायालयों के साथ-साथ जिला...
आपराधिक मामले में अभियुक्त और पीड़ित की मौत पर क्या होता है
स्टेट किसी भी अपराध की घोषणा करती है। क्या काम अपराध है और किस काम को करना अपराध नहीं है, इसका निर्धारण स्टेट द्वारा किया जाता है। जिस किसी भी कार्य या लोप को स्टेट द्वारा अपराध बना दिया जाता है, उसके लिए निर्धारित किया गया दंड भी स्टेट द्वारा दिया जाता है।एक अभियुक्त जिस पर कोई मुकदमा चलाया जा रहा है यदि वे कोई अपराध करता है तब उसका अपराध पीड़ित के खिलाफ नहीं होता है, अपितु स्टेट के खिलाफ होता है। जैसे कि भारत सरकार ने संसद द्वारा अधिनियमित किए गए कानून के माध्यम से उतावलेपन से मोटरयान चलाना एक...
किसी मुकदमे में विरोधी पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर क्या किया जाए
किसी भी मुकदमे में वादी और प्रतिवादी दो पक्षकार होते हैं। वादी वे होता है जो मुकदमा लाता है और प्रतिवादी वह होता है जो मुकदमे का बचाव करता है। कभी यह स्थिति होती है कि जिस व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा लाया गया है उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। इसे प्रतिवादी की मृत्यु कहा जाता है।किसी भी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने से सभी मामलों में वादकारण समाप्त नहीं हो जाता है। जैसे अगर पति और पत्नी के बीच तलाक या भरण पोषण जैसा कोई मुकदमा चल रहा है और प्रतिवादी की मौत हो जाती है तब वादकारण समाप्त हो जाता है।...
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 11: अधिकारिता के संबंध में आक्षेप
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 21 अधिकारिता के संबंध में आक्षेप को उल्लेखित करती है। ऐसे न्यायालय में मुकदमा दर्ज किया गया है जिसे अधिकारिता प्राप्त नहीं है, उस पर आक्षेप किया जा सकता है। ऐसे न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को अपास्त किया जा सकता है। धारा 21 में आक्षेप किया जाता है। इस आलेख में धारा 21 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।क्षेत्राधिकारयहां तक कि दोहराव की कीमत पर भी यह कहना उचित होगा कि "अधिकारिता से तात्पर्य उस अधिकार से है जो एक न्यायालय को उन...
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 भाग 10: अन्य प्रकार के मुकदमों के लिए न्यायालय का स्थान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 20 ऐसे मामलों के लिए न्यायालय का निर्धारण करती है जिनके संबंध में संहिता स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं करती है। इस आलेख में धारा 20 पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।अन्य मामलों में मुकदमा करने के स्थान से संबंधित प्रावधान (धारा 16 से 18 के अंतर्गत आने वाले मामलों को छोड़कर जो अचल संपत्ति के संबंध में वाद है और धारा 19 जो व्यक्ति या चल के लिए गलत के मुआवजे के लिए उपयुक्त है) धारा 20 के तहत सन्निहित है। व्यक्तिगत कार्यों को...