Dying Declaration: महत्वपूर्ण अवधारणाएँ और सुप्रीम कोर्ट का जयम्मा बनाम कर्नाटक राज्य मामला
Himanshu Mishra
25 Sept 2024 5:31 PM IST
मृत्यु पूर्व कथन (Dying Declaration) क्या है?
मृत्यु पूर्व कथन किसी भी अपराध के मामलों में महत्वपूर्ण सबूत माना जाता है, विशेषकर तब जब किसी व्यक्ति की अप्राकृतिक मृत्यु (Unnatural Death) हुई हो। यह विचार भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 32(1) में निहित है, जो उस व्यक्ति के बयान को स्वीकार करता है जो अपने मृत्यु के कारणों या घावों के बारे में कुछ कहता है। इसका आधार यह है कि मृत्यु के समय व्यक्ति को झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता क्योंकि मृत्यु के सामने व्यक्ति का विवेक (Conscience) स्वच्छ होता है।
मृत्यु पूर्व कथन से संबंधित कानूनी प्रावधान (Legal Provisions)
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अनुसार, मृत्यु पूर्व कथन को कोर्ट में स्वीकार्य (Admissible) माना जाता है, यदि वह कथन उस व्यक्ति की मृत्यु के कारण या उसके घावों से संबंधित हो। यह धारा सामान्य रूप से अप्रत्यक्ष (Hearsay) साक्ष्य की स्वीकार्यता के खिलाफ होने वाले नियम का अपवाद (Exception) है। जब मृत्यु के समय व्यक्ति की गवाही (Testimony) नहीं ली जा सकती, तब उनके अंतिम शब्द (Last Words) को साक्ष्य के रूप में महत्व दिया जाता है।
मृत्यु पूर्व कथन की स्वीकार्यता (Admissibility)
मृत्यु पूर्व कथन को कोर्ट में मान्यता प्राप्त करने के लिए कुछ मुख्य बिंदु होते हैं:
1. कथन मृतक (Deceased) की मृत्यु के कारण से संबंधित होना चाहिए।
2. मृतक ने बयान देते समय सही मानसिक स्थिति (Fit State of Mind) में होना चाहिए।
3. यह बयान मौखिक (Oral) या लिखित (Written) हो सकता है।
4. यह आवश्यक नहीं है कि मृत्यु पूर्व कथन को केवल मजिस्ट्रेट (Magistrate) ही रिकॉर्ड करें; अगर मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं है, तो पुलिस अधिकारी (Police Officer) भी इसे दर्ज कर सकते हैं। हालांकि, मजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड किए गए बयान को अधिक विश्वसनीय (Credible) माना जाता है।
न्यायिक व्याख्या (Judicial Interpretation)
सुप्रीम कोर्ट ने मृत्यु पूर्व कथन की स्वीकार्यता और विश्वसनीयता (Credibility) पर कई फैसलों में विस्तृत दिशा-निर्देश दिए हैं। प्रमुख केस जैसे पी.वी. राधाकृष्णन बनाम कर्नाटक राज्य (P.V. Radhakrishna v. State of Karnataka) और शाम शंकर कंकड़िया बनाम महाराष्ट्र राज्य (Sham Shankar Kankaria v. State of Maharashtra) ने मृत्यु पूर्व कथन की कानूनी स्थिति को स्पष्ट किया है।
पी.वी. राधाकृष्णन के मामले में, कोर्ट ने यह कहा कि किसी व्यक्ति के शरीर पर जलने के घावों का प्रतिशत (Percentage of Burns) अकेले उसकी मृत्यु पूर्व कथन की विश्वसनीयता का निर्धारण (Determination) नहीं कर सकता। इसके बजाय, उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति और उसकी सच्चाई (Truthfulness) बोलने की क्षमता को देखा जाना चाहिए। अगर मृतक बयान देते समय होश में और स्पष्ट (Coherent) हो, तो बिना अन्य साक्ष्य के भी मृत्यु पूर्व कथन को स्वीकार किया जा सकता है।
जयम्मा बनाम कर्नाटक राज्य (2021) का मामला
जयम्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्यु पूर्व कथन से जुड़े कई सिद्धांतों को पुन: पुष्टि (Reaffirm) किया। इस मामले में मुख्य सवाल यह था कि क्या मृतक द्वारा दिया गया कथन अभियुक्तों (Accused) को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त (Sufficient) है। बयान पुलिस अधिकारी द्वारा डॉक्टर की मौजूदगी (Presence) में दर्ज किया गया था, लेकिन मृतक के बेटे और बहू ने इस कथन को खारिज करते हुए इसे आत्महत्या (Suicide) का मामला बताया।
ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्तों को बरी (Acquit) कर दिया था, यह मानते हुए कि मृत्यु पूर्व कथन अविश्वसनीय (Unreliable) था, खासकर मृतक के व्यापक जलने के घावों और गवाहों के विरोधाभासी (Contradictory) बयान के कारण। हालांकि, उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट का फैसला उलट दिया और मृत्यु पूर्व कथन के आधार पर अभियुक्तों को दोषी ठहराया। इसके बाद अभियुक्तों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य निष्कर्ष (Key Findings)
सुप्रीम कोर्ट ने जयम्मा मामले में मृत्यु पूर्व कथन की विश्वसनीयता और स्वीकार्यता के बारे में विस्तृत टिप्पणियाँ कीं:
1. सही मानसिक स्थिति (Fit State of Mind): कोर्ट ने जोर दिया कि बयान पर तभी भरोसा किया जा सकता है जब मृतक सही मानसिक स्थिति में हो। इस मामले में, रिकॉर्डिंग के समय डॉक्टर से स्पष्ट प्रमाण (Clear Certification) नहीं लिया गया था। डॉक्टर ने बाद में मृतक की फिटनेस को प्रमाणित (Certify) किया, लेकिन कोर्ट ने बताया कि यह प्रमाण रिकॉर्डिंग से पहले दिया जाना चाहिए था, न कि बाद में।
2. घावों का प्रतिशत और मानसिक स्थिति (Percentage of Burns and Mental Fitness): मृतक के शरीर पर व्यापक जलने के निशान थे। कोर्ट ने विचार किया कि क्या पीड़ा (Pain), दर्द निवारक दवाएं (Sedatives), या घावों के झटके (Shock) से मृतक की बयान देने की क्षमता प्रभावित हुई हो सकती है। इसी तरह के मामलों जैसे सुरिंदर कुमार बनाम हरियाणा राज्य (Surinder Kumar v. State of Haryana) में, कोर्ट ने कहा कि दर्द निवारक दवाओं के प्रभाव में दिए गए बयानों पर सावधानीपूर्वक विचार किया जाना चाहिए।
3. मृत्यु पूर्व कथन का समर्थन (Corroboration): हालांकि मृत्यु पूर्व कथन अकेले आधार पर दोषसिद्धि (Conviction) का आधार बन सकता है, लेकिन यह संदेह से मुक्त (Free from Doubt) होना चाहिए। शाम शंकर कंकड़िया के मामले में, कोर्ट ने कहा कि मृत्यु पूर्व कथन को बिना समर्थन के तभी स्वीकार किया जा सकता है जब वह कोर्ट को पूरी तरह विश्वसनीय (Reliable) लगे। जयम्मा मामले में, मेडिकल सबूत और पुलिस अधिकारी के बयानों के बीच विरोधाभास (Contradictions) थे, जिससे अभियोजन (Prosecution) का मामला कमजोर हुआ।
4. मंशा और गवाहों के बयान (Motive and Witness Testimony): स्पष्ट मंशा (Clear Motive) की अनुपस्थिति और मृतक के परिवार के सदस्यों के बयानों ने मृत्यु पूर्व कथन की विश्वसनीयता पर और अधिक संदेह डाला। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बनाए रखते हुए अभियुक्तों को बरी कर दिया।
जयम्मा बनाम कर्नाटक राज्य का मामला मृत्यु पूर्व कथन से जुड़े जटिलताओं को विस्तार से बताता है। यह स्पष्ट करता है कि बयान देने वाले की मानसिक स्थिति और आस-पास की परिस्थितियों का मूल्यांकन (Evaluation) किए बिना ऐसे बयानों को दोषसिद्धि का आधार नहीं माना जा सकता।
हालांकि मृत्यु पूर्व कथन एक शक्तिशाली साक्ष्य हो सकता है, लेकिन कोर्ट को इसे स्वीकार करने में सावधानी बरतनी चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि बयान में कोई विरोधाभास न हो और इसे ऐसी परिस्थितियों में दिया गया हो जो उसकी विश्वसनीयता को गारंटी दें।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने फिर से पुष्टि की कि मृत्यु पूर्व कथन का साक्ष्य के रूप में महत्वपूर्ण मूल्य (Evidentiary Value) है, लेकिन इसे अन्य सबूतों (Evidence) के साथ ही उचित संदर्भ में देखा जाना चाहिए, खासकर जब इसके प्रामाणिकता (Authenticity) पर सवाल उठते हों।
इस प्रकार, प्रत्येक मामले का अपने तथ्यों के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि विश्वसनीय और विश्वसनीय साक्ष्यों पर ही न्याय दिया जा सके।