क्या न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत केवल सीमित समय के लिए ही दी जा सकती है?

Himanshu Mishra

23 Sept 2024 5:58 PM IST

  • क्या न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत केवल सीमित समय के लिए ही दी जा सकती है?

    अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) एक कानूनी प्रावधान है जो किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी की आशंका होने पर जमानत पाने का अधिकार देता है, ताकि उसे हिरासत (Custody) की प्रक्रिया से बचाया जा सके। Sushila Aggarwal बनाम दिल्ली राज्य (2020) के महत्वपूर्ण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या अग्रिम जमानत को एक निश्चित अवधि तक सीमित किया जाना चाहिए या इसे मुकदमे के अंत तक जारी रहना चाहिए। साथ ही, यह सवाल भी उठाया गया कि क्या अदालत द्वारा समन (Summoning) जारी करने के बाद अग्रिम जमानत का संरक्षण समाप्त हो जाता है।

    इस लेख में हम धारा 438 (Section 438) के तहत महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधानों और न्यायिक मिसालों (Judicial Precedents) का विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे, जो इन महत्वपूर्ण मुद्दों से संबंधित हैं।

    धारा 438 के प्रमुख कानूनी प्रावधान (Key Legal Provisions under Section 438 of CrPC)

    भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) की धारा 438 अग्रिम जमानत का प्रावधान करती है, जिससे व्यक्ति गिरफ्तारी की आशंका होने पर उसे गिरफ्तारी से बचाने के लिए जमानत की सुरक्षा मिलती है। यह प्रावधान उच्च न्यायालय (High Court) और सत्र न्यायालय (Sessions Court) को गैर-जमानती अपराधों (Non-Bailable Offenses) में जमानत देने की शक्ति देता है। धारा 438 का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की सुरक्षा और गलत गिरफ्तारी से बचाव करना है।

    इस धारा में अग्रिम जमानत की अवधि (Duration) को सीमित करने का कोई विशेष प्रावधान नहीं है। यह अदालतों को विवेकाधिकार (Discretion) देता है कि वे प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर जमानत की शर्तें और अवधि तय करें। धारा 438(2) के तहत अदालतें आवश्यक शर्तें लगा सकती हैं ताकि जमानत से जांच प्रक्रिया (Investigation) में बाधा न पहुंचे और अभियुक्त (Accused) जांच में सहयोग करे।

    न्यायिक मिसाल: सुषिला अग्रवाल बनाम दिल्ली राज्य (Judicial Precedent: Sushila Aggarwal vs State of Delhi)

    सुषिला अग्रवाल बनाम दिल्ली राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दो मुख्य सवालों पर फैसला सुनाया:

    1. क्या अग्रिम जमानत को एक निश्चित अवधि तक सीमित किया जाना चाहिए?

    2. क्या अग्रिम जमानत का संरक्षण अदालत द्वारा समन जारी करने के बाद समाप्त हो जाता है?

    ये सवाल पहले के मामलों में आए परस्पर विरोधी विचारों के कारण उठे थे, जैसे गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) ने अदालतों को अग्रिम जमानत देने में विस्तृत विवेकाधिकार (Wide Discretion) प्रदान किया था, जबकि सालाउद्दीन अब्दुलसामद शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (1996) ने अग्रिम जमानत की अवधि पर समय सीमा लगा दी थी।

    अग्रिम जमानत और समय सीमा (Anticipatory Bail and Time Limits)

    सुप्रीम कोर्ट ने सुषिला अग्रवाल मामले में गुरबख्श सिंह सिब्बिया के सिद्धांत की पुष्टि की कि अग्रिम जमानत को सामान्यतः समय-सीमा में सीमित नहीं किया जाना चाहिए।

    अदालत ने फैसला सुनाया:

    • सामान्य नियम यह है कि अग्रिम जमानत को एक निश्चित अवधि तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि विशेष परिस्थितियाँ इसके विपरीत न हों।

    • अदालतों को मामले-दर-मामले आधार पर अग्रिम जमानत की अवधि तय करने का विवेकाधिकार है।

    फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया कि एक बार अग्रिम जमानत मिलने के बाद, यह सामान्यतः मुकदमे की समाप्ति तक जारी रहेगी, जब तक कि इसे नए साक्ष्य (Evidence) के आधार पर रद्द न किया जाए या अभियुक्त द्वारा जमानत की शर्तों का उल्लंघन (Violation) न किया जाए।

    किन परिस्थितियों में अवधि सीमित हो सकती है? (When Can the Duration Be Limited?)

    हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अग्रिम जमानत की अवधि को स्वतः सीमित नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन उसने अपवाद (Exceptions) की संभावना भी रखी। अदालत ने माना कि कुछ विशेष और अनूठी परिस्थितियाँ हो सकती हैं, जब अग्रिम जमानत की अवधि सीमित की जा सकती है।

    उदाहरण के लिए:

    • यदि अभियुक्त जांच में सहयोग नहीं कर रहा हो, तो अदालत जमानत की अवधि को सीमित कर सकती है ताकि आवश्यक हो तो उसे हिरासत में लेकर पूछताछ (Custodial Interrogation) की जा सके।

    • यदि जांच के दौरान नए आपत्तिजनक साक्ष्य (Incriminating Evidence) सामने आते हैं, तो अदालत अग्रिम जमानत की समीक्षा (Review) कर सकती है और उसकी अवधि सीमित कर सकती है।

    इन अपवादात्मक परिस्थितियों में अदालतें आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जांच की निष्पक्षता (Fair Investigation) के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करती हैं।

    क्या अग्रिम जमानत समन के बाद समाप्त हो जाती है? (Does Anticipatory Bail End Upon Summoning by Court?)

    दूसरा मुद्दा यह था कि क्या अदालत द्वारा अभियुक्त को समन जारी करने पर अग्रिम जमानत का संरक्षण समाप्त हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि सिर्फ समन जारी होने से अग्रिम जमानत स्वतः समाप्त नहीं होती है। धारा 438 के तहत दिया गया संरक्षण तब तक जारी रहता है जब तक कि अदालत इसे रद्द नहीं करती।

    अदालत ने कहा:

    • चार्जशीट दाखिल होने या समन जारी होने से अग्रिम जमानत का संरक्षण समाप्त नहीं होता।

    • अभियोजन पक्ष (Prosecution) को अग्रिम जमानत रद्द करवाने के लिए अदालत में आवेदन करना होगा, यदि उन्हें लगता है कि परिस्थितियाँ बदल गई हैं या अभियुक्त ने जमानत का दुरुपयोग (Misuse) किया है।

    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोर दिया कि अग्रिम जमानत एक व्यापक सुरक्षा नहीं है और इसे सावधानीपूर्वक दिया जाना चाहिए। यदि कोई वैध आधार है, जैसे जांच में हस्तक्षेप (Interference) करना या साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ (Tampering) करना, तो अभियोजन पक्ष जमानत रद्द करवाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।

    महत्वपूर्ण न्यायिक मिसाल: गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (Landmark Precedent: Gurbaksh Singh Sibbia vs State of Punjab)

    सुषिला अग्रवाल के फैसले में गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) के संविधान पीठ के फैसले का विशेष महत्व है। इस मामले में यह सिद्धांत दिया गया था कि अग्रिम जमानत को सामान्यतः समय सीमा में सीमित नहीं किया जाना चाहिए और अदालतों को इसे देने में विस्तृत विवेकाधिकार दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के महत्व को स्वीकार किया और अनावश्यक रूप से ऐसे प्रतिबंधों का विरोध किया जो अग्रिम जमानत के उद्देश्य को कमजोर कर सकते हैं।

    सिब्बिया मामले ने यह भी स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत जांच में हस्तक्षेप नहीं करती और अदालतें अभियुक्त द्वारा जांच में सहयोग सुनिश्चित करने के लिए शर्तें लगा सकती हैं।

    सुप्रीम कोर्ट के सुषिला अग्रवाल बनाम दिल्ली राज्य के फैसले ने अग्रिम जमानत के सिद्धांतों को फिर से मजबूत किया, जो पहले के ऐतिहासिक मामलों में स्थापित किए गए थे। इसने स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत को सामान्यतः एक निश्चित अवधि तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए, सिवाय विशेष परिस्थितियों के। अदालतों को अग्रिम जमानत की शर्तें और अवधि तय करने के लिए विस्तृत विवेकाधिकार दिया गया है, जिससे अभियुक्त के अधिकारों और जांच की जरूरतों के बीच संतुलन बनाया जा सके।

    यह फैसला व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा को और अधिक मजबूत करता है, जबकि यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से चले। अग्रिम जमानत गलत या प्रतिशोधात्मक (Vindictive) आरोपों के खिलाफ व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण बनी हुई है, और अदालतें इसका उपयोग प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार करती हैं।

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