धारा 498A आईपीसी का दुरुपयोग: धारा 498A मामलों में न्याय और दुरुपयोग रोकथाम के बीच संतुलन
Himanshu Mishra
21 Sept 2024 5:29 PM IST
भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 498A का उद्देश्य महिलाओं के प्रति क्रूरता (Cruelty) और दहेज की मांग से जुड़ी हिंसा को रोकना था। हालांकि, समय के साथ इस प्रावधान के दुरुपयोग (Misuse) को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं। अदालतों ने बार-बार इस धारा के मामलों में सतर्कता की आवश्यकता पर बल दिया है, खासकर वैवाहिक विवादों (Matrimonial Disputes) के संदर्भ में। इस लेख में धारा 498A से संबंधित कानूनी सिद्धांतों (Legal Principles) और इसके दुरुपयोग पर न्यायालयों की टिप्पणियों का विश्लेषण किया गया है, जिसमें कई महत्वपूर्ण मामलों का उल्लेख किया गया है, जिनमें आचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य (Achin Gupta vs State of Haryana, 2024) शामिल है।
धारा 498A का उद्देश्य (Purpose of Section 498A)
धारा 498A का उद्देश्य पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा महिला के प्रति क्रूरता करने वालों को सजा देना है। इस धारा के तहत "क्रूरता" (Cruelty) का मतलब है कोई भी ऐसा व्यवहार जो महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित कर सकता है या उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है। इसके अलावा, यह किसी महिला को उसके परिवार से अवैध संपत्ति या दहेज (Dowry) की मांग को पूरा करने के लिए मजबूर करने वाले व्यवहार को भी शामिल करता है।
यह प्रावधान अपने आप में गैर-जमानती (Non-Bailable), संज्ञेय (Cognizable) और गैर-समाधान योग्य (Non-Compoundable) है, जिससे इसका दुरुपयोग करना आसान हो जाता है। यही कारण है कि समय-समय पर अदालतों ने इसकी शक्ति के प्रति सावधान रहने की जरूरत जताई है, ताकि इसे संरक्षण के बजाय उत्पीड़न का साधन न बनने दिया जाए।
दुरुपयोग पर न्यायिक चिंताएं (Judicial Concerns Over Misuse)
धारा 498A के दुरुपयोग को कई फैसलों में स्वीकार किया गया है। न्यायालयों ने माना है कि अक्सर यह शिकायतें जल्दबाजी में और व्यक्तिगत बदले की भावना से दाखिल की जाती हैं, बजाय इसके कि वे असल क्रूरता की घटनाओं पर आधारित हों।
आचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य (2024) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि एफआईआर (FIR) में लगाए गए आरोप अस्पष्ट (Vague) थे और ऐसा लगता था कि यह वैवाहिक विवादों के कारण प्रतिशोध (Vendetta) का हिस्सा थे।
अदालत ने पाया कि एफआईआर उस समय दर्ज की गई जब शिकायतकर्ता (Complainant) अपने ससुराल से करीब दो साल पहले चली गई थीं, जिससे इसके विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं। अदालत ने इस मामले में आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि इन कार्यवाहियों को जारी रखना कानून के दुरुपयोग (Abuse of Law) के समान होगा।
इसी तरह प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड राज्य (2010) के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 498A के तहत अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर शिकायतें की जाती हैं और इनमें से कई मामलों का उद्देश्य मात्र प्रतिशोध होता है। अदालत ने इसके दुरुपयोग से उत्पन्न होने वाले सामाजिक असंतोष (Social Unrest) पर चिंता व्यक्त की और इस धारा में सुधार की आवश्यकता जताई।
अदालतों की भूमिका (Role of Courts in Preventing Abuse)
धारा 498A के तहत लगाए गए आरोपों की अदालतों को सावधानीपूर्वक जांच करनी चाहिए, विशेषकर जब मामला वैवाहिक विवाद से उत्पन्न हो। भजनलाल मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा के तहत एफआईआर या चार्जशीट को रद्द करने के लिए कुछ दिशानिर्देश (Guidelines) दिए थे, खासकर जब आरोप स्पष्ट रूप से झूठे या दुर्भावनापूर्ण (Malafide) होते हैं।
आचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने फिर से जोर दिया कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह ऐसी एफआईआर या चार्जशीट को रद्द कर सके जो कानून के दुरुपयोग के समान हो। अदालत ने कहा कि एफआईआर को पवित्र नहीं माना जा सकता जब इसका एकमात्र उद्देश्य आरोपी को परेशान करना हो।
इसके अलावा, अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने धारा 498A के तहत की जाने वाली गिरफ्तारी (Arrest) के मामलों पर चिंता व्यक्त की, जहां बुजुर्ग रिश्तेदारों और यहां तक कि बच्चों को भी आरोपों में घसीटा जाता था। अदालत ने पुलिस को अनावश्यक गिरफ्तारियों से बचने और जांच के बाद ही उचित कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे।
न्यायिक व्याख्याएं और सिफारिशें (Judicial Interpretations and Recommendations)
न्यायालयों में एक सामान्य सोच यह है कि एक संतुलित दृष्टिकोण (Balanced Approach) अपनाया जाना चाहिए। न्यायालयों ने जोर देकर कहा है कि जहां असली मामलों में महिलाओं की सुरक्षा (Protection of Women) सुनिश्चित करनी चाहिए, वहीं धारा 498A को प्रतिशोध का उपकरण नहीं बनने देना चाहिए। न्यायालयों ने बार-बार विधायी सुधारों (Legislative Reforms) की आवश्यकता पर बल दिया है ताकि इस प्रावधान का दुरुपयोग रोका जा सके और महिलाओं को असली मामलों में न्याय मिल सके।
आचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हर वैवाहिक झगड़े को धारा 498A के तहत क्रूरता नहीं माना जा सकता। सामान्य वैवाहिक जीवन में होने वाले छोटे-मोटे झगड़े और परेशानियां (Irritations) कानूनी क्रूरता के दायरे में नहीं आतीं।
अदालत ने यह भी कहा कि अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण (Hyper-technical Approach) अपनाने से वैवाहिक संस्था को नुकसान हो सकता है। अदालत ने जोर दिया कि आरोपों की सावधानीपूर्वक जांच की जानी चाहिए ताकि निर्दोष पक्षों को अनावश्यक रूप से हानि न पहुंचे।
विधायी चुनौतियां और सिफारिशें (Legislative Challenges and Recommendations)
हालांकि न्यायालयों ने धारा 498A के पुनरावलोकन (Review) की सिफारिश की है, कोई ठोस विधायी बदलाव नहीं किए गए हैं। प्रीति गुप्ता मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान का फिर से मूल्यांकन करने का आग्रह किया था ताकि इसके दुरुपयोग से बचा जा सके। इसी तरह, आचिन गुप्ता मामले में भी अदालत ने विधायिका से इस मुद्दे को गंभीरता से लेने का आग्रह किया था।
भारत में न्याय प्रणाली में सुधार के लिए 2023 में पेश की गई भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023) की धारा 85 और 86 लगभग धारा 498A के समान ही हैं, लेकिन इसमें कोई विशेष सुधार नहीं किया गया है। अदालत ने विधायिका से अनुरोध किया है कि वह इन नए प्रावधानों को लागू करने से पहले आवश्यक सुधारों पर विचार करे।
भारतीय दंड संहिता की धारा 498A महिलाओं को वैवाहिक संबंधों में क्रूरता से बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है। हालांकि, न्यायपालिका ने इसके दुरुपयोग के प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता जताई है। अदालतों ने बार-बार हस्तक्षेप किया है ताकि इस कानून का दुरुपयोग (Abuse of Law) रोका जा सके। महिलाओं की सुरक्षा और दुरुपयोग की रोकथाम के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए न्यायिक सतर्कता और विधायी सुधार आवश्यक हैं। न्यायालयों द्वारा सुझाए गए विभिन्न सुधारों के अनुसार, इस कानून की पुनरावलोकन की आवश्यकता है ताकि यह अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर सके और उत्पीड़न का उपकरण न बने।