Tofan Singh बनाम तमिलनाडु राज्य : क्या NDPS Act के अधिकारी पुलिस अधिकारी हैं और उनके सामने दिए गए इकबालिया बयानों का साक्ष्य मूल्य क्या है?
Himanshu Mishra
23 Sept 2024 6:08 PM IST
Tofan Singh बनाम तमिलनाडु राज्य के महत्वपूर्ण मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दो मुख्य मुद्दों पर फैसला दिया। पहला, क्या नारकोटिक ड्रग्स और साइकोट्रोपिक सब्सटेंस (NDPS) अधिनियम, 1985 के तहत अधिकारी पारंपरिक पुलिस अधिकारी माने जाएंगे? और दूसरा, ऐसे अधिकारियों के सामने दिए गए इकबालिया बयानों (Confessions) का साक्ष्य मूल्य (Evidentiary Value) क्या होगा? ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण थे क्योंकि NDPS अधिनियम के तहत कड़ी सज़ाएँ होती हैं, और इसलिए इकबालिया बयानों की स्वीकार्यता (Admissibility) सजा तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है।
मुख्य तथ्य (Essential Facts)
Tofan Singh, जो अपीलकर्ता (Appellant) हैं, को NDPS अधिनियम के तहत दोषी ठहराया गया था, जिसमें मुख्य साक्ष्य उनके इकबालिया बयान थे, जो NDPS अधिनियम की धारा 67 के तहत दर्ज किए गए थे।
उन्होंने इस सजा को कई आधारों पर चुनौती दी:
1. बयान एक ऐसे अधिकारी द्वारा दर्ज किया गया था, जिसे "पुलिस अधिकारी" माना जाना चाहिए, इसलिए यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) की धारा 25 के तहत अमान्य (Inadmissible) है।
2. धारा 67 केवल अधिकारियों को जानकारी प्राप्त करने की शक्ति देती है, न कि इकबालिया बयान दर्ज करने की।
3. चूंकि बयान बाद में वापस ले लिया गया था, इसे सजा का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए था।
सुप्रीम कोर्ट से पूछा गया कि क्या NDPS अधिनियम के तहत अधिकारी, विशेष रूप से धारा 42 और 53 के तहत सशक्त अधिकारी, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के पुलिस अधिकारियों के समान शक्तियां और ज़िम्मेदारियां रखते हैं। कोर्ट को यह भी तय करना था कि ऐसे अधिकारियों के सामने दिए गए इकबालिया बयानों को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है या नहीं।
कानूनी तर्क (Legal Arguments)
याचिकाकर्ता के तर्क (Petitioner's Arguments)
अपीलकर्ता के वकील श्री सुशील कुमार जैन ने तर्क दिया:
• NDPS अधिनियम की धारा 42 और 53 के तहत अधिकारी पुलिस अधिकारियों के समान कार्य करते हैं, जैसे कि तलाशी (Search), जब्ती (Seizure) और गिरफ्तारी (Arrest)। इसलिए, उनके सामने दिए गए इकबालिया बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत अमान्य होने चाहिए।
• धारा 67, जिसके तहत इकबालिया बयान दर्ज किया गया था, स्पष्ट रूप से इकबालिया बयान दर्ज करने की अनुमति नहीं देती। इसका उद्देश्य केवल जांच के लिए जानकारी एकत्र करना है, जिससे यह धारा 161 CrPC (Criminal Procedure Code) के तहत दिए गए बयान के समान हो जाता है, जिसे सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
• NDPS अधिनियम का कड़ा स्वभाव (Stringent Nature) सख्त व्याख्या (Strict Interpretation) की मांग करता है ताकि जांच के दौरान दिए गए इकबालिया बयानों से आत्म-अभिनय (Self-Incrimination) की रोकथाम हो सके।
प्रतिवादी के तर्क (Respondent's Arguments)
राज्य, जिसकी तरफ से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (Additional Solicitor General) उपस्थित थे, ने यह तर्क दिया:
• NDPS अधिनियम के तहत अधिकारी पारंपरिक पुलिस अधिकारी नहीं होते क्योंकि उनका मुख्य कर्तव्य विशेष कानून को लागू करना होता है। इसलिए, उनके सामने दिए गए इकबालिया बयान धारा 25 के तहत अमान्य नहीं हैं।
• धारा 67 के तहत अधिकारी इकबालिया बयान दर्ज कर सकते हैं, और यदि यह बयान स्वेच्छा से (Voluntarily) और सत्यता के साथ दिया गया हो, तो इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
• NDPS मामलों में गंभीर अपराधों के चलते, इकबालिया बयानों की स्वीकार्यता अपराधियों को दंडित करने के उद्देश्य की पूर्ति करती है।
विचाराधीन मुद्दे (Issues at Hand)
1. क्या NDPS अधिनियम के अधिकारी पुलिस अधिकारी हैं? (Are NDPS Officers Police Officers?)
मुख्य मुद्दा यह था कि क्या NDPS अधिनियम के तहत अधिकारी, विशेष रूप से धारा 42 और 53 के तहत सशक्त अधिकारी, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत पुलिस अधिकारी माने जा सकते हैं। यदि उन्हें पुलिस अधिकारी माना जाता है, तो उनके सामने दिए गए इकबालिया बयान अमान्य हो जाएंगे। अपीलकर्ता का तर्क था कि चूंकि ये अधिकारी पुलिस अधिकारियों के समान कार्य करते हैं, उन्हें पुलिस अधिकारी ही माना जाना चाहिए। लेकिन राज्य का दावा था कि NDPS अधिकारी विशेष कानून के प्रवर्तन (Enforcement) के लिए नियुक्त होते हैं, और इसलिए वे पुलिस अधिकारी नहीं हैं।
2. धारा 67 के तहत इकबालिया बयानों की स्वीकार्यता (Admissibility of Confessions under Section 67)
धारा 67 NDPS अधिनियम के तहत अधिकारियों को जांच के दौरान व्यक्तियों से जानकारी एकत्र करने की शक्ति देती है। मुख्य सवाल यह था कि क्या यह धारा अधिकारियों को इकबालिया बयान दर्ज करने की अनुमति देती है, जिसे सजा के लिए सबूत के रूप में उपयोग किया जा सकता है। अपीलकर्ता का तर्क था कि धारा 67 में स्पष्ट रूप से इकबालिया बयान दर्ज करने का उल्लेख नहीं है, और ऐसे बयानों को सबूत के रूप में नहीं माना जाना चाहिए, विशेष रूप से जब आरोपी ने उन्हें वापस ले लिया हो।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Judgement by the Supreme Court)
NDPS अधिनियम के तहत अधिकारी पुलिस अधिकारी माने जाएंगे (Officers under NDPS Act as Police Officers)
सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि NDPS अधिनियम की धारा 42 और 53 के तहत सशक्त अधिकारी, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत पुलिस अधिकारी माने जाएंगे। इसका कारण यह था कि उनके कार्य जैसे कि तलाशी, जब्ती, और गिरफ्तारी, पारंपरिक पुलिस अधिकारियों के कार्यों के समान थे। कोर्ट ने फ़ंक्शनल टेस्ट (Functional Test) का इस्तेमाल किया, जो अधिकारियों के कार्यों की प्रकृति (Nature of Duties) का विश्लेषण करता है। इन अधिकारियों के कार्यों में जांच और कानून प्रवर्तन (Law Enforcement) शामिल हैं, इसलिए कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि NDPS अधिनियम के तहत अधिकारी पुलिस अधिकारी हैं। इसलिए, उनके सामने दिए गए इकबालिया बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत अमान्य हैं।
धारा 67 के तहत इकबालिया बयानों की स्वीकार्यता (Confessions under Section 67 of the NDPS Act)
धारा 67 के तहत दर्ज किए गए इकबालिया बयानों के साक्ष्य मूल्य के बारे में कोर्ट ने कहा कि ऐसे बयान सजा का आधार नहीं बन सकते। धारा 67 केवल जानकारी एकत्र करने की शक्ति देती है और यह अधिकारियों को इकबालिया बयान दर्ज करने की अनुमति नहीं देती। कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक ऐसे बयानों का समर्थन अन्य सबूतों से नहीं होता, तब तक इन्हें मान्य नहीं माना जा सकता। इसलिए, NDPS अधिकारी के सामने दिया गया इकबालिया बयान अदालत में केवल तब ही स्वीकार किया जा सकता है जब उसे अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों से पुष्टि मिलती हो।
Tofan Singh बनाम तमिलनाडु राज्य का मामला NDPS अधिनियम के तहत अधिकारियों की भूमिका और उनके द्वारा दर्ज किए गए इकबालिया बयानों की स्वीकार्यता पर एक ऐतिहासिक फैसला है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि NDPS अधिनियम के तहत सशक्त अधिकारी भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत पुलिस अधिकारी माने जाएंगे, और उनके सामने दिए गए इकबालिया बयान तब तक साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं हैं जब तक उन्हें अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों से समर्थन न मिले। यह निर्णय संविधान में निहित आत्म-अभिनय के खिलाफ सुरक्षा को फिर से पुष्टि करता है और इस कठोर कानून के प्रवर्तन में प्रक्रिया की निष्पक्षता (Procedural Fairness) सुनिश्चित करता है।