हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

LiveLaw News Network

6 Feb 2022 5:30 AM GMT

  • हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

    देश के विभिन्न हाईकोर्ट में पिछले सप्ताह (31 जनवरी, 2022 से लेकर 4 फरवरी, 2022) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं हाईकोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र।

    संविदात्मक क्षेत्र में न्यायिक हस्तक्षेप सावधानी से किया जाना चाहिए, विशेष रूप से सरकारी अनुबंधों में: आंध्र प्रदेश ‌हाईकोर्ट

    आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि संविदात्मक क्षेत्र में (जैसे कि टेंडर में होता है) न्यायिक जांच का आयोजन सावधानी से किया जाना चाहिए। कोर्ट ने माना कि संविदा के लेखक उसकी आवश्यकताओं और पात्रता शर्तों के सबसे अच्छा जज होत हैं और अदालतों को केवल तभी हस्तक्षेप करना चाहिए जब पात्रता मानदंड या शर्तें मनमानी, तर्कहीन, अनुचित या दुर्भावनापूर्ण हो।

    जस्टिसयू दुर्गा प्रसाद राव ने एक याचिका को खारिज करते हुए, जिसमें एक निविदा अधिसूचना को अवैध घोषित करने की मांग की गई थी कहा कि राज्य के साधनों में न्यायिक हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए। ऐसी स्थिति केवल तभी उत्पन्न होती है, जब प्रक्रिया के मनमाना और जनहित के खिलाफ होने का संदेह हो।

    केस शीर्षक: अटल प्लास्टिक बनाम आंध्र प्रदेश राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    [NEET-PG] ग्रामीण क्षेत्र सेवा में संलग्न उम्मीदवार अधिकार के रूप में एक विशेष उप-कोटा का दावा नहीं कर सकते: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट (Kerala High Court) ने हाल ही में कहा कि ग्रामीण क्षेत्र सेवा या दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र सेवा में संलग्न एनईईटी-पीजी उम्मीदवार अधिकार के रूप में एक विशेष उप-कोटा का दावा नहीं कर सकते हैं।

    न्यायमूर्ति एन. नागरेश ने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि मेडिकल पोस्टग्रेजुएट डिग्री कोर्स 2021-2022 में प्रवेश के लिए प्रॉस्पेक्टस में ग्रामीण क्षेत्र की सेवा के लिए 2% और दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र की सेवा के लिए 5% वेटेज प्रदान किया गया है।

    केस का शीर्षक: डॉ. जिबिन सी.पी. एंड अन्य बनाम केरल राज्य एंड अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 245(2) के तहत आरोपी को इस आधार पर डिस्चार्ज नहीं कर सकता कि साक्ष्य के लिए निर्धारित तिथि पर शिकायतकर्ता अनुपस्थित था; सबूतों पर विचार करना आवश्यक: कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि एक मजिस्ट्रेट को सीआरपीसी की धारा 245(2) के तहत एक आरोपी को आरोपमुक्त करते समय यह दर्शाने के लिए कारण दर्ज करने होंगे कि कोई मामला नहीं बनता है। बेंच ने आगे कहा कि मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 245(2) के तहत आरोपी को इस आधार पर डिस्चार्ज नहीं कर सकता कि साक्ष्य के लिए निर्धारित तिथि पर शिकायतकर्ता अनुपस्थित था।

    केस का शीर्षक: सुप्रतीक घोष बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एंड अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    [एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37] 'उचित आधार' का मतलब 'प्रथम दृष्टया' आधार से कुछ अधिक है: कलकत्ता हाईकोर्ट

    नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सबस्टेंस एक्ट, 1985 (एनडीपीएस एक्ट) की धारा 37 की व्याख्या करते हुए, कलकत्ता हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि किसी अपराधी ने अपराध नहीं किया है, यह मानने के लिए 'उचित आधार' होना चाहिए, जो महज 'प्रथम दृष्टया' आधार से अधिक होना चाहिए।

    अधिनियम की धारा 37 इस कानून में निहित अपराधों के वर्गीकरण से संबंधित है और उन मामलों का प्रावधान करती है जहां आरोपी व्यक्ति को जमानत दी जा सकती है। यह कुछ अपराधों के मामले में जमानत के लिए दोहरी शर्तें प्रदान करता है: पहला, आरोपी की बेगुनाही की प्रथम दृष्टया राय और दूसरा, जमानत पर रहते हुए आरोपी उसी प्रकार का अपराध नहीं करेगा।

    केस शीर्षक: माणिक दास @मानिक चंद्र दास बनाम नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी)

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    अन्य राज्यों की एसी/एसटी/ओबीसी महिलाएं विवाह बाद राजस्‍थान में बसने पर यहां सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण की हकदार नहींः राजस्‍थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाईकोर्ट ने दोहराया कि राज्य के बाहर की महिलाएं विवाह के बाद राजस्थान में बसने पर किसी अन्य राज्य में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग की सदस्य होने के कारण राज्य में सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण के लाभ के हकदार नहीं हो सकती हैं। हालांकि, वे आरक्षित श्रेणी के सदस्य के रूप में उन योजनाओं का लाभ उठा सकती हैं, जिनमें डोमिसाइल या निवास को हकदारी के रूप में परिकल्पित किया गया है।

    केस शीर्षक: सुनीता रानी बनाम राजस्थान राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी की गवाही को केवल इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि अन्य सह-आरोपियों के संबंध में दी गई गवाही को अविश्वसनीय पाया गया: कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने हाल ही में माना कि एक आरोपी के संबंध में एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी की गवाही को केवल इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है क्योंकि अन्य सह-आरोपियों के संबंध में उसके साक्ष्य अविश्वसनीय पाए गए हैं।

    जस्टिस जॉयमाल्या बागची और जस्टिस बिभास रंजन डे की खंडपीठ ने कहा कि सबूतों की सराहना के संबंध में भारत में 'एक बात में झूठ, हर बात में झूठ' (falsus in uno, falsus in omnibus) का सिद्धांत लागू नहीं है।

    केस शीर्षकः लक्ष्मी राम हेम्ब्राम @ लक्ष्मीराम हेम्ब्राम बनाम पश्‍चिम बंगाल राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    दुर्घटना से पहले के काम को करने की क्षमता में नुकसान का मतलब यह कि कामगार की कमाई क्षमता को 100% नुकसान हुआः बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल के एक मामले में दोहराया कि दुर्घटना से पहले पीड़ित जो काम कर रहा था, वह इस सवाल के निर्धारण के लिए प्रासंगिक है कि क्या वह काम करने के लिए स्थायी रूप से अक्षम है।

    मामले में, आवेदक-प्रतिवादी को एक दुर्घटना का सामना करना पड़ा, जिसके कारण उसे दाहिनी आंख का ऑपरेशन करना पड़ा। कर्मचारी मुआवजा अधिनियम, 1923 के तहत श्रम आयुक्त ने आक्षेपित निर्णय और पुरस्कार में पाया कि आवेदक को 100% स्थायी विकलांगता का सामना करना पड़ा, जिसका नतीजा यह रहा कि आवेदक ड्राइवर के रूप में काम करने से अक्षम हो गया।

    केस शीर्षक: रिलायंस जनरल इंस्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम केशर गोपाल सिंह ठाकुर

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    सीआरपीसी धारा 482 के तहत हाईकोर्ट की शक्तियां गैर-समाधेय अपराधों के लिए भी एफआईआर और उसके बाद की कार्यवाही को रद्द करने के लिए पर्याप्त: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट गैर-समाधेय अपराधों में कार्यवाही रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं। कोर्ट ने कहा, हालांकि अपराधों की समाधेयता सीआरपीसी की धारा 320 के तहत नियंत्रित है।

    एक अपराध को समाधेय करने का सीमित क्षेत्राधिकार, कानून के दुरुपयोग को रोकने और न्याय के उद्देश्य को सुरक्षित करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट में निहित शक्तियों को लागू करने के खिलाफ प्रतिबंध नहीं है।

    केस शीर्षक: जागीर सिंह @शुक्ला @ पम्मा बनाम पंजाब राज्य और अन्‍य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एनआई एक्ट- 'लीगल नोटिस जारी करने के लिए निर्धारित 30 दिनों की सीमा अवधि की गणना करते समय उस दिन को नहीं जोड़ा जाना चाहिए, जिस दिन बैंक से चेक की वापसी के बारे में सूचना प्राप्त हुई': दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi high Court) ने कहा कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) की धारा 138(बी) के तहत कानूनी नोटिस जारी करने के लिए निर्धारित 30 दिनों की सीमा अवधि की गणना करते समय उस दिन को नहीं जोड़ा जाना चाहिए, जिस दिन शिकायतकर्ता को बैंक से सूचना प्राप्त होती है कि विचाराधीन चेक बिना भुगतान के वापस कर दिया गया है।

    न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिकाओं के एक समूह से निपट रहे थे। इन याचिकाओं आपराधिक शिकायतों को रद्द करने की मांग की गई है।

    केस का शीर्षक: मेसर्स रायपति पावर जेनरेशन प्राइवेट लिमिटेड एंड अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    विवाहेतर संबंध मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर धारा 498 (ए) के तहत 'मानसिक क्रूरता' के समान हो सकत है: मद्रास हाईकोर्ट

    मद्रास हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि विवाहेतर संबंध गंभीर मानसिक आघात और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों का कारण बन सकते हैं, जिससे विवाह में गंभीर परिणाम हो सकते हैं, और यह धारा 498 (ए) आईपीसी के तहत मानसिक क्रूरता के समान होगा।

    जस्टिस डी भरत चक्रवर्ती ने हालांकि कहा कि यह तय करते समय कि क्या आचरण क्रूरता है, अदालत को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखना होगा। कोर्ट ने यह अवलोकन एक अन्य महिला के साथ विवाहेतर संबंध में शामिल होने के आरोपी पति की दोषसिद्धि की पुष्टि करते हुए किय , जबकि प्रतिवादी पत्नी के साथ विवाह अभी भी वैध था।

    केस शीर्षक: नक्कीरन @ जेरोनपांडी बनाम राज्य और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(w) तब लागू नहीं होती जब अपराध का अभियोक्ता की जाति से कोई संबंध ना हो: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि एससी/एसटी एक्ट के सेक्‍शन 3 (1) (डब्ल्यू) के तहत किए गए अपराध के संदर्भ में किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के लिए, अभियोजन पक्ष को यह दिखाना होगा कि अपराध की पीड़िता/अभियोक्ता की 'जाति' के संदर्भ में किया गया था। उल्लेखनीय है कि धारा 3(1)(w) के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिला को, उसकी सहमति के बिना, छूने पर, और छूने का कार्य यदि यौन प्रकृति का है, दंड का प्रावधान किया गया है।

    केस शीर्षक: जॉय देव नाथ बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली)

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    हैबियस कॉर्पस रिट केवल तभी सुनवाई योग्य होगी, जब नाबालिग को किसी ऐसे व्यक्ति ने कस्टडी में रखा हो,जो उसकी कानूनी कस्टडी का हकदार नहींः इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि बच्चों की कस्टडी के मामलों में हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) रिट को अनुमति देने में हाईकोर्ट की शक्ति का उपयोग केवल उन मामलों में किया जा सकता है,जहां नाबालिग को ऐसे व्यक्ति ने अपनी कस्टडी में रखा हो,जो उसकी कानूनी कस्टडी का हकदार नहीं है।

    जस्टिस राज बीर सिंह की खंडपीठ ने यह टिप्पणी करते हुए 5 साल की बच्ची की मां की तरफ से दायर एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज कर दी। बच्ची की मां ने उसके पिता (उसके पति) से नाबालिग की कस्टडी दिलाए जाने की मांग की थी। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में उचित उपाय हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956) या संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890(Guardians and Wards Act, 1890) के तहत उपलब्ध हैं।

    केस का शीर्षक-श्रद्धा कन्नौजिया (नाबालिग) व एक अन्य बनाम यू.पी. व 5 अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मुकदमे के पक्षकारों को यह अधिकार है कि वे अपना दावा खारिज होने का कारण जानें : केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने सोमवार को कहा कि मुकदमेबाजी के पक्षकार को अपने दावों से इनकार करने के कारणों के बारे में सूचित करने का अधिकार है। हाईकोर्ट ने कहा कि मुकदमे के पक्षकारों को यह अधिकार है कि वे अपना दावा खारिज होने का कारण जानें।

    जस्टिस मैरी जोसेफ ने फैमिली कोर्ट द्वारा पारित एक नॉन स्पीकिंग ऑर्डर खारिज करते हुए कहा कि हालांकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि मांगी गई सभी राहतों की अनुमति दी जानी चाहिए, लेकिन एक पक्षकार यह जानने का हकदार है कि उसकी प्रार्थना क्यों अस्वीकार कर दी गई।

    केस शीर्षक: जिजी सी. सेनन और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    जब वाहन चालक के पास वैध लाइसेंस नहीं तो बीमा कंपनी क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी नहीं: गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात ‌हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि यदि दुर्घटना की तारीख पर उल्‍लंघनकर्ता वाहन चालक के पास वैध लाइसेंस नहीं है तो बीमा कंपनी को क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

    मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण के आदेश के खिलाफ दायर अपील में, जिसमें कहा गया था कि बीमा कंपनी आकस्मिक क्षति की क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी होगी, भले ही वाहन चालक का लाइसेंस समाप्त हो गया हो, जस्टिस आरएम छाया ने ट्रिब्यूनल के अवॉर्ड को उलट दिया। कोर्ट ने फैसले में कहा कि किसी वैध लाइसेंस के अभाव में बीमा कंपनी को क्षतिपूर्ति के भुगतान के दायित्व से मुक्त किया जाना चाहिए।

    केस शीर्षक: नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम भारतभाई भीमजीभाई सोंगारा और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं को बेचने वाले वेंडर्स को नियमित दुकानों से तुलना करने का कोई आधार नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने मंगलवार को कहा कि आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं को बेचने वाले वेंडर्स की साप्ताहिक बाजारों में भागीदारी नियमित दुकानों या प्रतिष्ठानों के साथ उनकी तुलना करने का कोई आधार नहीं है।

    न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की पीठ ने कहा कि बाजार क्षेत्र में नियमित दुकानों या प्रतिष्ठान की प्रकृति विक्रेताओं और आगंतुकों दोनों के घनत्व के कारण किसी भी साप्ताहिक बाजार से बहुत अलग है।

    केस का शीर्षक: सप्ताहिक पेट्री बाजार एसोसिएशन बनाम एनसीटी दिल्ली सरकार एंड अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    कर्मचारी ग्रेच्युटी का दावा "या तो" 1972 अधिनियम के तहत कर सकते हैं या बैंक विनियमों के तहत, दोनों विधियों के तहत नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान ‌हाईकोर्ट ने देखा है कि एक कर्मचारी को ग्रेच्युटी का भुगतान अधिनियम 1972 के तहत या बैंक द्वारा बनाए गए विनियमों के तहत, जो भी अधिक फायदेमंद हो, ग्रेच्युटी प्राप्त करनी चाहिए । हालांकि, एक कर्मचारी एक कानून के तहत ग्रेच्युटी की गणना का चयन नहीं कर सकता है और दूसरे कानून के तहत अन्य प्रावधानों का लाभ नहीं ले सकता है।

    जस्टिस अकील कुरैशी और जस्टिस रामेश्वर व्यास की खंडपीठ ने यह टिप्पणी उन याचिकाओं पर विचार करते हुए की, जिसमें यह सवाल उठाया गया था कि क्या ग्रामीण बैंक के कर्मचारी 1972 के अधिनियम या राजस्थान मरुधारा ग्रामीण बैंक (अधिकारी और कर्मचारी) सेवा विनियम, 2010, या दोनों के तहत लाभ का दावा कर सकते हैं।

    सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (राजस्थान) 43

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    अभियोजन को आईपीसी की धारा 306 के तहत अपराध साबित करने के लिए धारा 107 की आवश्यकताओं को संतुष्ट करना चाहिए: गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट ने एक फैसले में समझाया कि धारा 306 के तहत अपराध साबित करने के लिए अभियोजन को पहले धारा 107 के अवयवों को संतुष्ट करना होगा। जस्टिस संदीप एन भट्ट ने उक्त टिप्‍पणियों के साथ आक्षेपित फैसले में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया और बरी करने के आदेश को रद्द कर दिया। फैसले में बेंच ने आईपीसी की धारा 306 और 107 के तहत 'उकसाने' (abetment) और 'भड़काने' (Instigation) की शर्तों पर विचार किया।

    केस शीर्षक: गुजरात राज्य बनाम गौतम भाई देवकुभाई वाला

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    अदालत के समक्ष चुनौती दिए गए आदेश को अतिरिक्त सामग्री पेश करके न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता: पटना हाईकोर्ट

    पटना हाईकोर्ट ने कहा कि जब न्यायनिर्णायक प्राधिकारी द्वारा पारित किसी आदेश को न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जाती है तो सरकारी वकील द्वारा ऐसी सामग्री पर भरोसा करके बचाव नहीं किया जा सकता है, जिसे प्राधिकरण के सामने कभी नहीं रखा गया था, भले ही यह अस्तित्व में हो।

    चीफ जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एस कुमार की खंडपीठ ने सहायक आयुक्त, वाणिज्यिक कर के एक आदेश को रद्द करते हुए कहा, "सरकारी वकील विकास कुमार ने मामले में अतिरिक्त सामग्री पेश करके आदेश को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया। यह प्रयास प्राधिकरण के समक्ष नही किया गया बल्कि इस न्यायालय के समक्ष आदेश को चुनौती देते हुए दिया गया।

    केस शीर्षक: यूनाइटेड ब्रुअरीज लिमिटेड बनाम बिहार राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    अभियोजन पक्ष को आरोपी से मोबाइल फोन सरेंडर करने के लिए कहने का अधिकार, यह अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने शनिवार को कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 79ए के तहत आरोपी को फोरेंसिक जांच के लिए मोबाइल फोन सरेंडर करने की मांग करने का अभियोजन पक्ष को पूरा अधिकार है। कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि मोबाइल फोन के सरेंडर से संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत आत्म-अभिशंसन (Self-Incrimination) के खिलाफ मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।

    कोर्ट ने अभिनेता दिलीप और अन्य आरोपियों को 2017 के सनसनीखेज यौन उत्पीड़न मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों को मारने की कथित आपराधिक साजिश में सोमवार को सुबह 10.15 बजे तक सीलबंद बॉक्स में छह मोबाइल फोन रजिस्ट्रार जनरल को सौंपने का निर्देश दिया ।

    केस शीर्षक: पी गोपालकृष्णन उर्फ दिलीप और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका दायर करने के लिए आरोपी अपने पावर ऑफ अटॉर्नी धारक का उपयोग नहीं कर सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि आरोपी आपराधिक कार्यवाही में उसका प्रतिनिधित्व करने के लिए किसी तीसरे पक्ष, जैसे पावर ऑफ अटॉर्नी धारक (एसपीए) का सहारा नहीं ले सकता। दंड प्रक्रिया संहिता ( सीआरपीसी) में अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति की अनिवार्य आवश्यकता का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि आपराधिक मामलों में तीसरे पक्ष की उपस्थिति आपराधिक न्याय प्रणाली के उद्देश्य को विफल कर देगी।

    न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 227 सहपठित दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 धारा 482, के तहत दायर एक याचिका खारिज कर दी। इसमें याचिकाकर्ता के प्रतिनिधि को दी गई पावर ऑफ अटार्नी धारक के माध्यम से उसके खिलाफ दर्ज आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की गई थी।

    केस शीर्षक: अमरिंदर सिंह और राजा थ्रू: स्पा होल्डर सुखजिंदर सिंह बनाम दिल्ली के एनसीटी राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत जांच के लिए लोक सेवकों के खिलाफ शिकायत का उल्लेख करने के लिए पूर्व स्वीकृति आवश्यक: कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में गुरुवार को कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 156 (3) के तहत जांच प्रक्रिया को गति देने से पहले लोक सेवकों पर मुकदमा चलाने के लिए पूर्व मंजूरी की आवश्यकता होती है।

    कोर्ट पूर्व आईपीएस अधिकारी नजरूल इस्लाम द्वारा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्य के अन्य शीर्ष अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू करने की मांग करने वाली एक अपील पर फैसला सुना रही थी। इस्लाम ने उन्हें पदोन्नति से वंचित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी कथित तौर पर बदलने का आरोप लगाया था।

    केस शीर्षक: डॉ नजरूल इस्लाम बनाम बासुदेब बनर्जी और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story