सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत जांच के लिए लोक सेवकों के खिलाफ शिकायत का उल्लेख करने के लिए पूर्व स्वीकृति आवश्यक: कलकत्ता हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

30 Jan 2022 8:28 AM GMT

  • सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत जांच के लिए लोक सेवकों के खिलाफ शिकायत का उल्लेख करने के लिए पूर्व स्वीकृति आवश्यक: कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में गुरुवार को कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 156 (3) के तहत जांच प्रक्रिया को गति देने से पहले लोक सेवकों पर मुकदमा चलाने के लिए पूर्व मंजूरी की आवश्यकता होती है।

    कोर्ट पूर्व आईपीएस अधिकारी नजरूल इस्लाम द्वारा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्य के अन्य शीर्ष अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू करने की मांग करने वाली एक अपील पर फैसला सुना रही थी। इस्लाम ने उन्हें पदोन्नति से वंचित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी कथित तौर पर बदलने का आरोप लगाया था।

    न्यायमूर्ति तीर्थंकर घोष ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 197 का प्रावधान, जो पूर्व मंजूरी के लिए निर्धारित है, को लोक सेवकों को बिना किसी डर या पक्षपात के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम बनाने के लिए शामिल किया गया है और इस प्रकार जांच शुरू करने से पहले इसे संकलित किया जाना चाहिए।

    कोर्ट ने फैसला सुनाया,

    "उस विषय के संबंध में जिसके माध्यम से याचिकाकर्ता ने लोक सेवकों के खिलाफ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के प्रावधानों को लागू कराने का प्रयास किया है, इस कोर्ट की राय है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के प्रावधान को क़ानून में शामिल किया गया है, यह लोक सेवकों को बिना किसी डर या पक्षपात के या कानून की कठोरता के कारण परेशान होने की किसी भी आशंका के बिना अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने की अनुमति देने के एक सार्थक उद्देश्य के लिए किया गया है। इसलिए, आमतौर पर जहां सीआरपीसी की धारा 156 (3) के प्रावधान लोक सेवकों के खिलाफ लागू होते हैं वहां एक मुकदमे में वैध मंजूरी की आवश्यकता होगी।''

    कोर्ट ने यह भी नोट किया कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच प्रक्रिया को गति देने से पहले लोक सेवकों के संबंध में अभियोजन के लिए पूर्व मंजूरी की आवश्यकता है या नहीं, यह मुद्दा 'मंजू सुराणा बनाम सुनील अरोड़ा और अन्य' मामले में सुप्रीम कोर्टके आदेश के अनुसार वृहद पीठ के सुपुर्द किया गया है।

    यह ध्यान दिया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले के दो फैसलों- 'एल नारायण स्वामी बनाम कर्नाटक सरकार एवं अन्य' और 'अनिल कुमार एवं अन्य बनाम एम.के. अयप्पा एवं अन्य' ने माना था कि यदि कोई पूर्व मंजूरी नहीं है तो मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत शक्तियों को लागू करते हुए लोक सेवक के खिलाफ जांच का आदेश नहीं दे सकता है।

    न्यायमूर्ति घोष ने कहा कि 'मंजू सुराणा मामले' में सुप्रीम कोर्ट ने 'एल नारायण स्वामी' और 'अनिल कुमार' मामलों में पहले के दो निर्णयों में अभ्युक्तियों को लापरवाही पूर्ण या खराब कानून घोषित नहीं किया था।

    कोर्ट ने रेखांकित किया,

    "उपरोक्त दो निर्णयों ने सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत वैध मंजूरी और एक आवेदन के संबंध में अनुपात का निपटारा किया है। 'मंजू सुराणा (सुप्रा)' मामले में बाद के फैसले ने इस मुद्दे को एक बड़ी बेंच को भेज दिया है, लेकिन पहले के दो निर्णयों में या तो लापरवाही पूर्ण या खराब कानून के तौर पर अनुपात घोषित नहीं किया है।''

    कोर्ट ने इस प्रकार माना कि यदि कानून के किसी बिंदु पर एक संदर्भ दिया गया है तो उस बिंदु पर अधिकृत अंतिम निर्णय ही मान्य होगा।

    कोर्ट ने कहा,

    "विद्वान महाधिवक्ता का यह निवेदन कि यदि कानून के किसी बिंदु पर एक संदर्भ दिया गया है तो उस बिंदु पर अधिकृत अंतिम निर्णय वैध या मान्य होगा, इस कोर्ट द्वारा पालन किया जाने वाला सही प्रस्ताव है, जैसा कि 'एमएस भाटी बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, (2019) 12 एससीसी 248'; 'पी सुधाकर राव और अन्य बनाम यू गोविंदा राव और अन्य, (2013) 8 एससीसी 693', 'अशोक सदरंगानी और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य, (2012) 11 एससीसी 321'; और 'हरभजन सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2009) 13 एससीसी 608' मामलों में कहा गया था।"

    पृष्ठभूमि

    वर्तमान मामले में कोर्ट 27 सितंबर, 2013 को विद्वान मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, कलकत्ता द्वारा जारी आदेश के खिलाफ अपील पर फैसला सुना रहा था, जिसमें याचिकाकर्ता द्वारा सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत दायर एक आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि सीआरपीसी की धारा 197 के तहत पूर्व मंजूरी नहीं ली गई थी।

    याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि विभिन्न लोक सेवकों यथा - (i) बासुदेव बनर्जी, गृह सचिव, पश्चिम बंगाल सरकार (ii) ए सेनगुप्ता, डब्ल्यूबीसीएस (कार्यकारी), संयुक्त सचिव, सतर्कता प्रकोष्ठ, पी एंड एआर विभाग, पश्चिम बंगाल सरकार; (iii) संजय मित्रा, मुख्य सचिव, पश्चिम बंगाल सरकार; (iv) ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री और गृह विभाग और पी एंड एआर विभाग के प्रभारी मंत्री, पश्चिम बंगाल सरकार (v) एस.एन. हक, अतिरिक्त मुख्य सचिव, एआरडी विभाग, पश्चिम बंगाल सरकार; और (vi) नपराजित मुखर्जी, डीजी और आईजीपी पश्चिम बंगाल पुलिस निदेशालय द्वारा जालसाजी और कई अन्य आपराधिक घटनाओं को अंजाम दिया गया है।

    टिप्पणियां

    कोर्ट ने कहा कि यह दिखाने के लिए कोई सामग्री संलग्न नहीं की गई थी कि संबंधित लोक सेवकों, जिन्हें सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत अर्जी में नामित किया गया है, ने इस तरह के कथित जाली दस्तावेज लिखे थे।

    कोर्ट ने कहा,

    "..जैसे कि कल्पना के किसी भी दायरे से यह नहीं माना जा सकता है कि ये लोग याचिकाकर्ता को चोट आघात पहुंचाने के किसी भी उद्देश्य के लिए दोषी दिमाग से काम कर रहे थे, यह कहना उचित नहीं होगा कि उनका कार्य और कार्रवाई एक आपराधिक मामले की नींव हो सकती है और उनके खिलाफ जांच की जानी चाहिए।"

    'अनिल कुमार और अन्य बनाम एमके अयप्पा और एक अन्य मामले' में भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर एतवार जताया गया था जिसमें यह माना गया था कि एक लोक सेवक को दी जाने वाली सुरक्षा का एक अनिवार्य चरित्र है और 'संज्ञान' शब्द का व्यापक अर्थ है और केवल सीआरपीसी की धारा 190 के तहत संज्ञान लेने के चरण तक ही सीमित नहीं है।

    "माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लोक सेवकों के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत पारित होने वाले आदेश से पहले मंजूरी की आवश्यकता से संबंधित अनुपात निर्धारित करते हुए संहिता में आने वाले 'संज्ञान' शब्द की व्याख्या की। आपराधिक प्रक्रिया और उस प्रभाव के लिए यह माना गया है कि एक लोक सेवक को दी जाने वाली सुरक्षा का एक अनिवार्य चरित्र है और 'संज्ञान' शब्द का व्यापक अर्थ है और यह केवल धारा 190 के तहत संज्ञान लेने के चरण तक ही सीमित नहीं है।''

    इस प्रकार, न्यायालय ने पाया कि धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत जांच प्रक्रिया को गति देने से पहले लोक सेवकों पर मुकदमा चलाने के लिए पूर्व मंजूरी आवश्यक है। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मौजूदा मामले में, कथित रूप से वास्तविक अपराध नहीं बनाए गए हैं, इसलिए मंजूरी का मुद्दा एक अतिरिक्त विचार है।

    कोर्ट ने आगे आदेश दिया,

    "तदनुसार, विद्वान मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, कलकत्ता द्वारा दिनांक 27.09.2013 को पारित आदेश में कोई अवैधता नहीं है और इस तरह किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।''

    केस शीर्षक: डॉ नजरूल इस्लाम बनाम बासुदेब बनर्जी और अन्य

    केस साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (कलकत्ता) 16

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



    Next Story