एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(w) तब लागू नहीं होती जब अपराध का अभियोक्ता की जाति से कोई संबंध ना हो: दिल्ली हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
1 Feb 2022 9:42 PM IST
दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि एससी/एसटी एक्ट के सेक्शन 3 (1) (डब्ल्यू) के तहत किए गए अपराध के संदर्भ में किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के लिए, अभियोजन पक्ष को यह दिखाना होगा कि अपराध की पीड़िता/अभियोक्ता की 'जाति' के संदर्भ में किया गया था।
उल्लेखनीय है कि धारा 3(1)(w) के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिला को, उसकी सहमति के बिना, छूने पर, और छूने का कार्य यदि यौन प्रकृति का है, दंड का प्रावधान किया गया है।
अदालत ने मौजूदा मामले के तथ्यों में कहा, "शिकायतकर्ता ने अपनी शिकायत में यह आरोप नहीं लगाया है कि याचिकाकर्ता/आवेदक ने दोनों के आपसी संबंधों के दरमियान जाति की स्थिति के कारण उसका यौन उत्पीड़न किया गया था।"
कोर्ट ने आरोपी की ओर से दायर अग्रिम जमानत अर्जी को स्वीकार कर लिया।
जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने कहा,
"ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ता/आवेदक द्वारा कथित रूप से किए गए यौन उत्पीड़न की प्रकृति के अपराधों में अभियोक्ता की जाति का कोई संदर्भ नहीं था, इस प्रकार, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(w) के तहत प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है।"
इसी तरह, यह नोट किया गया कि एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(आर) और 3 (1)(एस) के तहत दंडनीय अपराध भी प्रथम दृष्टया आकर्षित नहीं होते हैं क्योंकि ऐसा कोई आरोप नहीं है कि सार्वजनिक रूप से कथित जातिवादी गाली दी गई थी।"
धारा 3(1)(r) अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को सार्वजनिक रूप से किसी भी स्थान पर इरादतत अपमान करने या डराने-धमकाने से संबंधित है। धारा 3(1)(एस) सार्वजनिक रूप से किसी भी स्थान पर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के किसी भी सदस्य को जाति के नाम पर गाली देने के लिए दंडित करती है।
ऐसी परिस्थितियों में, कोर्ट ने कहा कि धारा 18 और 18A के तहत निर्धारित प्रतिबंध मौजूदा मामले पर लागू नहीं होगी।
कोर्ट ने कहा,
"अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(w) की सामग्री का अभाव, या यहां तक कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(r) और 3(1)(s) के तहत अपराध के लिए भी एससी/एसटी एक्ट की धारा 18 या 18ए(2) के लागू होने का सवाल ही इस मामले में नहीं उठता है।"
एफआईआर में यौन अपराध का आरोप
जमानत याचिकाकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376/506 और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(r) और 3(1)(s) से संबंधित आरोपों के लिए एफआईआर दर्ज की गई थी। एफआईआर पासी हरिजन अनुसूचित जाति श्रेणी से संबंधित एक तलाकशुदा महिला की शिकायत पर आधारित थी। यह आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता ने जबरन शारीरिक संबंध बनाए, आपत्तिजनक तस्वीरें लीं, जबरन वसूली की और शिकायतकर्ता को हत्या की धमकी दी। जाति-आधारित आरोप एक घटना के आधार पर लगाए गए थे, जहां आवेदक ने उसे "पासी" कहा था।
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की प्रयोज्यता
अदालत ने पक्षों के बीच संबंधों पर सबूतों का आकलन किया। यह देखा गया कि पक्षकारों ने सहमति से संबंध का आनंद लिया।
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की प्रयोज्यता के लिए प्रथम दृष्टया सबूत नहीं प्राप्त होने और पृथ्वी राज चौहान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य, 2020 एससीसी एससी 159 में सुप्रीम कोर्ट का अनुकरण करते हुए
कोर्ट ने निम्नलिखित कारणों से जमानत आवेदन की अनुमति दी-
1. शिकायतकर्ता के आरोपों के अनुसार, दोनों के बीच संबंधों के दरमियान जाति आधारित यौन हिंसा नहीं थी. कथित जाति-आधारित गाली-गलौज का प्रकरण केवल इस संदर्भ में बनाया गया था कि आवेदक ने शिकायतकर्ता से शादी करने से इनकार कर दिया था न कि ऐसा यौन उत्पीड़न के आधार पर किया गया था। यह नोट किया गया था कि धारा 3(1)(w) को मूल एफआईआर में नहीं जोड़ा गया था, लेकिन बाद में अदालत के घटनाक्रम के दरमियान जोड़ा गया था। तदनुसार, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(w) को प्रथम दृष्टया लागू नहीं माना गया।
2. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(r) और 3(1)(s) के अनुसार कथित जाति-आधारित गाली सार्वजनिक रूप से नहीं दी गई थी। शिकायतकर्ता ने स्वीकार किया था कि उसे घटना के समय किसी भी व्यक्ति के मौजूद होने की कोई याद नहीं थी। तदनुसार, एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(r) और 3(1)(s) को शिकायतकर्ता के मामले में लागू नहीं माना गया।
3. सीआरपीसी की धारा 438 के खिलाफ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 और 18ए(2) द्वारा लगाए गए बार को आकर्षित नहीं किया गया क्योंकि अधिनियम के तहत अपराध के लिए कोई मामला नहीं बनाया गया था।
पृथ्वी राज चौहान में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट के पास उपयुक्त मामलों में गिरफ्तारी से पहले जमानत देने की अंतर्निहित शक्तियां हैं। इसके अलावा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत के खिलाफ केवल तभी लागू किया जा सकता है जब प्रथम दृष्टया मामला बनता है।
इस मामले में यह माना गया था,
"धारा 438 सीआरपीसी के प्रावधानों की प्रयोज्यता के संबंध में, यह 1989 के अधिनियम के तहत मामलों पर लागू नहीं होगा। हालांकि, यदि शिकायत 1989 के अधिनियम के प्रावधानों की प्रयोज्यता के लिए प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनाती है, धारा 18 और 18ए (i) द्वारा सृजित बार लागू नहीं होगा।"
स्थापित न्यायशास्त्र के आलोक में, अदालत ने शिकायतकर्ता को 50,000 रुपये के निजी मुचलके पर अग्रिम जमानत आवेदन को अनुमति दी।
केस शीर्षक: जॉय देव नाथ बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली)
केस नंबर: जमानत आवेदन संख्या 4511/2021
सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (दिल्ली) 62