हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

Shahadat

18 Aug 2024 4:30 AM GMT

  • हाईकोर्ट वीकली राउंड अप : पिछले सप्ताह के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

    देश के विभिन्न हाईकोर्ट में पिछले सप्ताह (12 जुलाई, 2024 से 16 अगस्त, 2024) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं हाईकोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र।

    कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि पत्नी, बेटा और बेटी (प्रथम श्रेणी वारिस) के जीवित रहने पर बहनें कानूनी प्रतिनिधि बन सकें: राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाइकोर्ट एक फैसले में कहा कि बहनों को मृतक व्यक्ति का कानूनी प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता, खासकर तब जब मृतक की पत्नी, बेटा और बेटी सहित प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारी जीवित हों।

    जस्टिस मनोज कुमार गर्ग की पीठ एक किरायेदार बेदखली मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें प्रतिवादी द्वारा ट्रायल ऑर्डर के एक आदेश के खिलाफ एक पुनरीक्षण याचिका दायर की गई थी। ट्रायल कोर्ट ने मृतक वादी के कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा प्रतिस्थापन के लिए आवेदन को स्वीकार कर लिया था और प्रतिवादी द्वारा दायर मामले को समाप्त करने के लिए आवेदन को खारिज कर दिया था।

    केस टाइटल: खेरुनिसा बनाम जय शिव सिंह एवं अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मतदाता पहचान पत्र/मतदाता सूची जन्म तिथि का निर्णायक प्रमाण नहीं: उड़ीसा हाईकोर्ट

    उड़ीसा हाईकोर्ट ने हाल ही में माना कि मतदाता सूची/मतदाता पहचान पत्र में दी गई जन्म तिथि, भले ही साक्ष्य अधिनियम की धारा 35 के तहत सार्वजनिक दस्तावेज के रूप में प्रासंगिक हो लेकिन वास्तविक जन्म तिथि का निर्णायक प्रमाण नहीं है।

    मतदाता पहचान पत्र में दी गई जन्म तिथि के आधार पर बीमा दावा खारिज करते हुए डॉ. जस्टिस संजीव कुमार पाणिग्रही की एकल पीठ ने कहा, “यह आम तौर पर भारतीय न्यायालयों द्वारा स्वीकार किया जाता है कि मतदाता पहचान पत्र/मतदाता सूची में दर्ज जन्म तिथि पर किसी व्यक्ति की आयु निर्धारित करने के लिए भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। बीमा कंपनियों की नीतियों में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया, जो मतदाता पहचान पत्र को गैर-मानक प्रमाण दस्तावेज के रूप में वर्गीकृत करती हैं।”

    केस टाइटल- तपस्विनी पांडा बनाम क्षेत्रीय प्रबंधक, एलआईसी ऑफ इंडिया, पटना और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    BNS की धारा 111(1) के तहत अपराध के लिए निरंतर गैरकानूनी गतिविधि और दो से अधिक चार्जशीट अनिवार्य: केरल हाईकोर्ट

    बीएनएस की धारा 111 (1) संगठित अपराध सिंडिकेट के सदस्य द्वारा या ऐसे सिंडिकेट की ओर से की गई सतत आपराधिक गतिविधि के रूप में संगठित अपराध को परिभाषित करती है। धारा 111 (1) (i) 'संगठित अपराध सिंडिकेट' को परिभाषित करती है और धारा 111 (1) (ii) 'गैरकानूनी गतिविधि जारी रखने' को परिभाषित करती है।

    जस्टिस सीएस डायस ने कहा कि प्रथम दृष्टया याचिकाकर्ता के खिलाफ धारा 111 (1) के तहत अपराध नहीं बनता है क्योंकि धारा 111 (1) (ii) के तहत परिभाषित 'गैरकानूनी गतिविधि जारी रखने' के जनादेश को पूरा करने के लिए पिछले दस वर्षों की पूर्ववर्ती अवधि में किसी भी अदालत में उसके खिलाफ कोई आरोप पत्र दायर नहीं किया गया।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    एक महिला द्वारा दूसरी महिला के साथ कथित यौन उत्पीड़न पर आईपीसी की धारा 354ए लागू नहीं होती: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 354ए के तहत महिला द्वारा अपनी ननद और सास द्वारा यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए शुरू की गई कार्यवाही रद्द कर दी। वास्तविक शिकायतकर्ता की ननद (तीसरी आरोपी) और सास (चौथी आरोपी) ने आईपीसी की धारा 498ए, 354ए और 34 के तहत उनके खिलाफ लगाए गए अपराधों को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

    जस्टिस ए. बदरुद्दीन ने फैसला सुनाया कि जब विधायिका ने आईपीसी की धारा 354ए के तहत 'कोई भी व्यक्ति' के बजाय 'कोई भी पुरुष' शब्द का इस्तेमाल किया तो महिलाओं द्वारा किए गए प्रत्यक्ष कृत्य उक्त अपराध को आकर्षित नहीं कर सकते।

    केस टाइटल: निशिन हुसैन बनाम केरल राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    लोक अदालत के पास पक्षकार की गैर-उपस्थिति के आधार पर मामला खारिज करने का अधिकार नहीं: जम्मू–कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट

    लोक अदालतों की भूमिका और सीमाओं को पुष्ट करते हुए जम्मू–कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने माना कि लोक अदालतों के पास पक्षकार की गैर-उपस्थिति के आधार पर मामला खारिज करने का अधिकार नहीं है।

    जस्टिस संजय धर ने लोक अदालत के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला करते हुए, जिसमें परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 138 के तहत शिकायत खारिज कर दी गई था, ने कहा कि ऐसी कार्रवाई इन वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों के दायरे से बाहर है।

    केस टाइटल- सैयद तजामुल बशीर बनाम मोहम्मद अयूब खान।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    आरोपी के पास जांच के चरण में कोई अधिकार नहीं, वह धारा 173(8) CrPc के तहत मामले की आगे/पुनः जांच की मांग नहीं कर सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इस बात पर जोर देते हुए कि जांच के चरण में आरोपी के पास कोई अधिकार नहीं है, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह कहा कि आरोपी को धारा 173(8) सीआरपीसी के तहत याचिका दायर करके मामले की आगे/पुनः जांच की मांग करने का अधिकार नहीं है।

    जस्टिस सौरभ लवानिया की पीठ ने राज्य बनाम हेमेंद्र रेड्डी के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2023 के फैसले पर भरोसा करते हुए यह टिप्पणी की। यह माना गया कि धारा 173(8) CrPc के तहत आगे की जांच के लिए आवेदन पर विचार करते समय अदालत आरोपी की सुनवाई करने के लिए बाध्य नहीं है।

    केस टाइटल – विशाल त्रिपाठी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से प्रधान सचिव गृह विभाग, लखनऊ और अन्य 2024

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    Industrial Disputes Act | विवाद उठाने वाला व्यक्ति कर्मचारी है या नहीं, इसका निर्णय केवल लेबर कोर्ट द्वारा किया जा सकता है, सरकार द्वारा नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाईकोर्ट ने सरकारी कर्मचारी को राहत प्रदान की, जिसे 15 वर्ष पहले बिना सुनवाई के नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया तथा सरकार को उसके औद्योगिक विवाद को लेबर कोर्ट में भेजने का निर्देश दिया।

    जस्टिस अनूप कुमार ढांड की पीठ भारत सरकार ("प्रतिवादी") के उस आदेश के विरुद्ध दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए औद्योगिक विवाद के निपटारे के लिए संदर्भ देने से इनकार कर दिया था।

    केस टाइटल- मुकेश कुमार बनाम भारत संघ और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    अविवाहित बेटी यदि वह खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ तो हिंदू पिता धारा 20 एचएएम एक्ट के तहत उसके भरण-पोषण के लिए बाध्य: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पाया कि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 के तहत हिंदू व्यक्ति पर अपनी अविवाहित बेटी का भरण-पोषण करने का वैधानिक दायित्व है, जो अपनी कमाई या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।

    जस्टिस मनीष कुमार निगम की पीठ ने टिप्पणी की, "हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) बच्चों और वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण के संबंध में हिंदू कानून के सिद्धांतों को मान्यता देने के अलावा और कुछ नहीं है। धारा 20(3) के तहत अब हिंदू व्यक्ति का यह वैधानिक दायित्व है कि वह अपनी अविवाहित बेटी का भरण-पोषण करे, जो अपनी कमाई या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।"

    केस टाइटलः अवधेश सिंह बनाम स्टेट ऑफ यूपी 2 अन्य और इससे जुड़ा मामला 2024 लाइव लॉ (एबी) 513

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    सीआरपीसी की धारा 340 के तहत प्रारंभिक जांच केवल न्याय के हित में और अदालती कार्यवाही के संबंध में ही शुरू की जा सकती है: जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया है कि सीआरपीसी की धारा 340 के तहत प्रारंभिक जांच केवल तभी शुरू की जा सकती है, जब न्याय के हित में ऐसा करना उचित हो, खासकर तब, जब अदालती कार्यवाही के संबंध में झूठी गवाही देने का आभास हो।

    चल रही मध्यस्थता प्रक्रिया के कारण कथित झूठे बयानों के लिए आपराधिक कार्यवाही की मांग करने वाले आवेदन पर विचार को स्थगित करते हुए जस्टिस संजय धर ने कहा, “यह ऐसा मामला नहीं है, जिसमें याचिकाकर्ता ने अपनी दलीलों में कोई विरोधाभासी बयान दिया हो, बल्कि यह ऐसा मामला है, जिसमें उसने कुछ आरोप लगाए हैं, जिनकी सत्यता का अभी पता लगाया जाना बाकी है… यह न्यायालय महसूस करता है कि सीआरपीसी की धारा 340 के तहत प्रारंभिक जांच शुरू करने के लिए प्रतिवादियों/आवेदकों की प्रार्थना पर इस स्तर पर विचार नहीं किया जा सकता।”

    केस टाइटलः रोशन लाल टिक्कू बनाम प्रीडिमेंट कृष्ण टिक्कू

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    चाइल्ड केयर लीव पुरुष और महिला दोनों सरकारी कर्मचारियों को दी जानी चाहिए, पारिवारिक जिम्मेदारियों को माता और पिता द्वारा साझा किया जाना चाहिए: कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि चाइल्ड केयर लाभ का लाभ पुरुष और महिला दोनों कर्मचारियों को दिया जाना चाहिए। पारिवारिक जिम्मेदारियों को माता और पिता द्वारा साझा किया जाना चाहिए।

    ऐसे व्यक्ति के मामले पर विचार करते हुए, जिसके दो नाबालिग बच्चे थे और कुछ महीने पहले ही उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई थी, जस्टिस अमृता सिन्हा की एकल पीठ ने कहा, "ऐसा प्रतीत होता है कि अब समय आ गया है, जब सरकार को अपने कर्मचारियों के साथ पुरुष और महिला कर्मचारियों के बीच किसी भी तरह के भेदभाव के बिना समान व्यवहार करना चाहिए। परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी माता और पिता दोनों को समान रूप से साझा करनी चाहिए। हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के तहत लड़के या अविवाहित लड़की के मामले में हिंदू नाबालिग का प्राकृतिक अभिभावक पिता होता है और उसके बाद माता। सरकार को भेदभाव को मिटाने के लिए पुरुष कर्मचारियों को भी वैसा ही लाभ देने का निर्णय लेना चाहिए जैसा महिलाओं के मामले में किया गया।"

    केस टाइटल- मोहम्मद अबू रेहान बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    प्रारंभिक अधिसूचना में उल्लिखित भूमि का अधिग्रहण न करना भूमि स्वामी के किसी मौलिक या वैधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने भूमि स्वामी द्वारा दायर रिट याचिका खारिज की, जिसमें कोयला धारक क्षेत्र (अधिग्रहण एवं विकास) अधिनियम 1957 के तहत शुरू की गई अधिग्रहण कार्यवाही में अपनी भूमि को शामिल करने की मांग की गई थी। याचिका मुख्य रूप से इस आधार पर थी कि उसकी भूमि को अधिग्रहण से बाहर रखने से उसके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन होगा और उसकी संपत्ति बेकार हो जाएगी।

    जस्टिस जी.एस. अहलूवालिया की पीठ ने याचिका में कोई योग्यता नहीं पाई। उन्होंने कहा कि भूमि का बहिष्कार वैध कानूनी और तकनीकी आधारों पर आधारित था, जिसमें याचिकाकर्ता के मौलिक, वैधानिक, संवैधानिक या मानवाधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं था।

    केस टाइटल- हरचरण सिंह भाटिया बनाम भारत संघ और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    केवल अंडे या स्पर्म दान करने से डोनर IVF के माध्यम से पैदा हुए बच्चे का बायोलॉजिकल माता-पिता नहीं बन जाता: बॉम्बे हाईकोर्ट

    एक महत्वपूर्ण फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि किसी व्यक्ति द्वारा केवल अंडे या स्पर्म दान करने से उसे इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (IVF) उपचार के माध्यम से पैदा हुए बच्चों पर किसी भी माता-पिता के अधिकार का दावा करने का अधिकार नहीं मिल जाता।

    जस्टिस मिलिंद जाधव ने एकल न्यायाधीश की पीठ ने महिला की दलील खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया, जिसने अपनी बहन और बहनोई के लिए स्वेच्छा से अपने अंडकोश (अंडे) दान किए थे, जो स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण नहीं कर सकते थे और बाद में दावा किया कि वह सरोगेसी के माध्यम से पैदा हुई जुड़वां लड़कियों की बायोलॉजिकल मां थी।

    केस टाइटल- शैलजा नितिन मिश्रा बनाम नितिन कुमार मिश्रा (WPST/6772/2024)

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    ट्रिपल तलाक | तत्काल और अपरिवर्तनीय तलाक पर रोक, जबकि तलाक के अन्य रूप अभी भी वैध: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

    हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत विधायी निषेध विशेष रूप से तलाक-ए-बिद्दत या तत्काल और अपरिवर्तनीय तलाक के किसी अन्य समान रूप पर लक्षित है। अदालत ने फैसला सुनाया कि यह अधिनियम तलाक-ए-हसन जैसे तलाक के अन्य रूपों पर लागू नहीं होता है, जो प्रतीक्षा अवधि (इद्दत) के दौरान निरस्तीकरण की अनुमति देता है।

    केस टाइटलः शहवाज खान बनाम राज्य हिमाचल प्रदेश और अन्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    मुस्लिम कानून के तहत लिखित रूप में अपंजीकृत दस्तावेज़ पर मौखिक उपहार स्टाम्प अधिनियम की धारा 47 ए के अधीन नहीं हो सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि मुस्लिम कानून के तहत मौखिक उपहार, जो अपंजीकृत दस्तावेज़ पर लिखित रूप में कम किया जाता है, भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-ए के तहत कार्यवाही के अधीन नहीं हो सकता।

    भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-ए कलेक्टर को अधिनियम के तहत किसी भी उपकरण पर स्टाम्प शुल्क में कमी के लिए कार्यवाही शुरू करने का अधिकार देती है। धारा 47-ए की उप-धारा (1) में प्रावधान है कि जहां पंजीकरण अधिनियम 1908 के तहत पंजीकरण के लिए प्रस्तुत किसी भी उपकरण में यह पाया जाता है कि उल्लिखित बाजार मूल्य स्टाम्प अधिनियम के तहत निर्धारित मूल्य से कम है, ऐसे दस्तावेज़ को कलेक्टर को भेजा जाएगा।

    केस टाइटल- साहस डिग्री कॉलेज थ्रू सेक्रेटरी नदीम हसन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य थ्रू डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट जे.पी. नागर और अन्य [रिट - सी संख्या - 41137/2010]

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    परिवीक्षा पर चल रहे सरकारी कर्मचारी 'अस्थायी कर्मचारी' नहीं, विभागीय कार्रवाई के बिना उन्हें बर्खास्त नहीं किया जा सकता: राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाईकोर्ट ने पुष्टि की है कि एक सरकारी कर्मचारी जो चयन के नियमित तरीके से नियुक्त किया गया है, और परिवीक्षा पर है, उसे एक अस्थायी सरकारी कर्मचारी नहीं माना जा सकता है, जिसकी सेवाओं को राजस्थान सेवा नियम 1951 ("नियम") के नियम 23-ए के तहत एक महीने का नोटिस देकर समाप्त किया जा सकता है, जो अस्थायी कर्मचारियों के लिए है।

    जस्टिस महेंद्र कुमार गोयल की पीठ एक व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे राज्य सरकार द्वारा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में नियुक्त किया गया था, लेकिन उसकी सेवाओं को नियमों के नियम 23-ए के तहत समाप्त कर दिया गया था। याचिका में सेवाओं को समाप्त करने के आदेश को चुनौती दी गई थी।

    केस टाइटलः महेश कुमार बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    यूपी का 'धर्मांतरण विरोधी' कानून धर्मनिरपेक्षता की भावना को बनाए रखने का प्रयास करता है; धार्मिक स्वतंत्रता में धर्मांतरण का सामूहिक अधिकार शामिल नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह कहा कि उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 का उद्देश्य सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देना है, जो भारत की सामाजिक सद्भावना और भावना को दर्शाता है। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में धर्मनिरपेक्षता की भावना को बनाए रखना है।

    जस्टिस रोहित रंजन अग्रवाल की पीठ ने आगे कहा कि संविधान प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है, लेकिन यह व्यक्तिगत अधिकार धर्म परिवर्तन करने के सामूहिक अधिकार में तब्दील नहीं होता, क्योंकि धार्मिक स्वतंत्रता धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति और धर्मांतरित होने वाले व्यक्ति दोनों को समान रूप से प्राप्त होती है।

    केस टाइटलः अजीम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2024 लाइव लॉ (एबी) 500

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    POCSO अधिनियम के तहत 'पेनेट्रेटिव सेक्‍सुअल असॉल्ट' का अपराध महिला के खिलाफ लगाया जा सकता है, पुरुष अपराधी तक सीमित नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि POCSO अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न और गंभीर यौन उत्पीड़न के अपराध अपराधी के लिंग की परवाह किए बिना अपराध हैं और इन्हें महिला के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।

    ज‌स्टिस अनूप जयराम भंभानी ने कहा कि POCSO अधिनियम (यौन उत्पीड़न) की धारा 3 में "वह" शब्द को यह कहने के लिए प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं दिया जा सकता है कि यह केवल पुरुष को संदर्भित करता है, बल्‍कि इसके दायरे में अपराधी के लिंग की परवाह किए बिना किसी भी अपराधी को शामिल किया जाना चाहिए।

    केस टाइटल: सुंदरी गौतम बनाम दिल्ली राज्य

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    लीज रेंट एग्रीमेंट की प्रमाणित कॉपी स्मॉल कॉज कोर्ट में स्वीकार्य साक्ष्य: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना है कि लीज रेंट एग्रीमेंट की प्रमाणित कॉपी स्मॉल कॉज कोर्ट के समक्ष कार्यवाही में स्वीकार्य साक्ष्य है क्योंकि यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत एक 'सार्वजनिक दस्तावेज' है।

    जस्टिस आशुतोष श्रीवास्तव ने कहा कि "पट्टा समझौते की प्रमाणित प्रति एक सार्वजनिक दस्तावेज है, जैसा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1972 की धारा 74 के तहत माना जाता है और धारा 65 (e) या 65 (f) के तीसरे प्रावधान के संदर्भ में प्रमाणित प्रति साक्ष्य में स्वीकार्य है।

    आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story