जानिए हमारा कानून
निःशुल्क विधिक सहायता के संबंध में कानून
निःशुल्क कानूनी सहायता प्रत्येक निर्धन व्यक्ति का अधिकार होता है। आपराधिक मामलों में यदि एक अभियुक्त को कानूनी मदद नहीं मिले और वे अपना बचाव नहीं कर पाए यह नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। आज के समय में न्याय अत्यंत खर्चीला है, ऐसे में एक निर्धन अभियुक्त अपने बचाव से विरत रह जाता है। इस समस्या से निपटने के लिए ही निःशुल्क विधिक सहायता की अवधारणा अस्तित्व में आई है। जहां एक निर्धन अभियुक्त को अपना बचाव करने के लिए सरकार द्वारा अपने खर्च से अधिवक्ता उपलब्ध कराया जाता है जो अभियुक्त की ओर...
अग्रिम जमानत से संबंधित कानून
भारतीय कानून में गिरफ्तारी के बाद ही नहीं अपितु गिरफ्तारी के पहले भी जमानत दिए जाने के प्रावधान है। दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसी जमानत देने की शक्ति सेशन न्यायालय और उच्च न्यायालय को दी गई है। यह दोनों न्यायालय किसी अपराध में आरोपी को गिरफ्तारी के पूर्व ही जमानत दे सकते हैं। इस प्रावधान का मूल उद्देश्य असत्य रूप से मुकदमे में फंसाए गए आरोपी को जेल की पीड़ा से बचाना है। अगर न्यायालय किसी मुकदमे में यह पाता है कि अभियुक्त को गलत और असत्य आधारों पर फंसा दिया गया है और मामले में प्रथम दृष्टया कोई...
अजमानतीय अपराध की दशा में कब जमानत मिलती है
अजमानतीय अपराधों में अभियुक्त जमानत का एक अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकता है। ऐसे मामलों में जमानत देना या नहीं देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। अपराधों को दो प्रकार में बांटा गया है पहला जमानतीय अपराध और अजमानतीय अपराध। जमानतीय अपराधों में अधिकारपूर्वक जमानत मिलती है जबकि अजमानतीय अपराध की दशा में जमानत देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। इस आलेख में अजमानतीय अपराधों की दशा में कानून के संबंध में उल्लेख किया जा रहा है।दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 437 में इस संबंध में...
आपराधिक मामलों में पुनरीक्षण क्या होता है? जानिए प्रावधान
अपीलीय न्यायालय के पास केवल अपील की ही शक्ति नहीं होती है अपितु वह पुनरीक्षण और पुनर्विलोकन भी कर सकता है। आपराधिक मामलों में अपील के साथ पुनरीक्षण भी होता है, यहां भान रहे कि किसी भी आपराधिक मामले में पुनर्विलोकन की व्यवस्था नहीं है। किसी भी आपराधिक निर्णय, आदेश की केवल अपील हो सकती है या फिर पुनरीक्षण होता है। इस आलेख में पुनरीक्षण पर चर्चा की जा रही है।सिविल मामलों की तरह आपराधिक मामलों के पुनरीक्षण (Revision) की व्यवस्था भी की गई है। वस्तुतः पुनरीक्षण अपील का विकल्प है अर्थात् यह ऐसे मामलों...
लोक अदालत क्या है? जानिए प्रावधान
मामलों का त्वरित विचारण व्यक्ति का मूल अधिकार है। विचारण अथवा न्याय में विलम्ब से व्यक्ति की न्यायपालिका के प्रति आस्था में गिरावट आने लगती है। अतः त्वरित विचारण की दिशा में कदम उठाने की अनुशंसा की गई है।यह निर्विवाद है कि आज विचारण में अत्यधिक एवं अनावश्यक विलम्ब होता है। लोगों को वर्षों तक न्याय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कई बार तो स्थिति यह बन जाती है कि पक्षकार मर जाता है लेकिन कार्यवाही जीवित रहती है।इस स्थिति से निपटने के लिए हालांकि समय-समय पर प्रयास किये जाते रहे हैं। फास्ट ट्रेक...
आपराधिक मामलों में अदालत द्वारा संज्ञान लिए जाने की परिसीमा
अदालत द्वारा किसी भी प्रकरण का संज्ञान लिए जाने के लिए एक समय अवधि होती है। जैसे कि सिविल मामलों में परिसीमा अधिनियम न्यायालय में वाद लाने का समय निर्धारित करता है, इस ही प्रकार आपराधिक मामलों में भी संज्ञान लेने की एक समयावधि है। यह दंड प्रक्रिया संहिता से प्रावधानित होता है। इस आलेख में आपराधिक मामलों में परिसीमा से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है।मामलों के त्वरित विचारण एवं निस्तारण के लिए संज्ञान की भी परिसीमा निर्धारित कर दी गई है। निर्धारित परिसीमा के बाद न्यायालय द्वारा अपराध का...
मजिस्ट्रेट अपराधों का संज्ञान किस कानून के तहत लेते हैं
किसी भी अपराध का संज्ञान सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट द्वारा लिया जाता है, हालांकि कुछ विशेष अधिनियमों के अंतर्गत आने वाले अपराधों का संज्ञान सीधे सत्र न्यायाधीश द्वारा ले लिया जाता है लेकिन साधारण तौर पर संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा ही लिया जाता है। इस आलेख में मजिस्ट्रेट द्वारा लिए जाने वाले संज्ञान के संदर्भ में चर्चा की जा रही है।संज्ञान विचारण का प्रारम्भिक बिन्दु है। अपराध का संज्ञान लेने के साथ ही विचारण प्रारम्भ हो जाता है। शब्द 'संज्ञान' की कहीं परिभाषा नहीं दी गई है। सामान्यतः पत्रावली (आरोप...
अपराधों के अपवाद किसे कहा गया है: भाग 2
कुछ कार्यो को अपराध के अपवाद के रूप में रखा गया है। ऐसे कार्य जो आपराधिक कार्य या लोप होते हुए भी अपराध नहीं माने जाते हैं। जैसे हत्या एक जघन्य और संज्ञेय अपराध है लेकिन सात वर्ष से कम के व्यक्ति द्वारा हत्या को अपराध नहीं माना जाता, इस ही तरह एक न्यायाधीश के आदेश पर जल्लाद द्वारा दी जाने वाली फांसी भी हत्या नहीं होती है। इसे ही अपराधों का अपवाद कहा गया है। यह आलेख ऐसे अपवादों का भाग दो है जिसमे बिंदुवार ऐसे अपवादों का उल्लेख किया जा रहा है।1 विकृत चित्त व्यक्ति का कार्यविकृत चित्त व्यक्ति की...
अपराधों के अपवाद किसे कहा गया है: भाग 1
भारतीय दंड संहिता,1860 अपराधों का उल्लेख करने वाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण संहिता है। यह ऐसी संहिता है जो लगभग लगभग भारतीय समाज में घटने वाले ऐसे सभी कार्य और लोप को अपराध बनाती है जो दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं और उन्हें क्षति पहुंचाते है। यह अपराधों का वर्गीकरण भी करती है। इस ही संहिता में एक अध्ययन अपराधों के अपवाद से संबंधित है। जहां यह प्रावधान किए गए हैं कि कौनसे कार्य आपराधिक होते हुए भी अपवादों के दायरे में अपराध नहीं होंगे। इस आलेख में ऐसे ही अपवादों का उल्लेख किया जा रहा है।...
प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार क्या है जानिए इससे संबंधित प्रावधान
प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार (Right to private defence) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजी सुरक्षा करने का अधिकार है। यही कारण है कि अपनी निजी सुरक्षा के लिए किये गए कार्यों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 96 से 106 के अन्तर्गत आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है।एक पुराने मामले में कहा गया है कि अभियुक्त को अपनी सुरक्षा उस समय तक करनी चाहिए जब तक कि संकट टल न जाए और अपनी सुरक्षा आक्रमण की आशंका बने रहने तक जारी रखी जानी चाहिये।चाको मधैई बनाम स्टेट के मामले में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह...
अभियुक्त को कानून द्वारा क्या अधिकार दिए गए हैं? महत्वपूर्ण बातें
आपराधिक मामलों में जिस व्यक्ति पर अभियोजन अपना मामला लाता है उसे अभियुक्त कहा जाता है। अभियुक्त पर आपराधिक मामले का विचारण चलता है, अदालत द्वारा दोषसिद्धि या दोषमुक्ति दी जाती है। पुलिस एफआईआर दर्ज करती है, अन्वेषण करती है, न्यायालय आरोप तय करता है, अभियोजन अपना मामला साबित करता है एवं अभियुक्त बचाव करता तथा अंत में न्यायालय द्वारा निर्णय पारित किया जाता है। इन सब के बीच कानून द्वारा अभियुक्त को कुछ अधिकार दिए गए हैं, यह अधिकार अभियुक्त को बचाने के लिए नहीं है अपितु शासन की शक्तियों पर अंकुश...
किसी आपराधिक मामले में निर्णय का क्या अर्थ है
निर्णय बेहद आम शब्द है लेकिन इसकी उत्पत्ति कानून से हुई है। आम जीवन में भी हम बहुत से संवादों में निर्णय शब्द को उपयोग करते है। कानून में निर्णय को भिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है। निर्णय देना अदालत का कर्तव्य होता है। किसी भी मामले में निष्कर्ष पर पहुंच कर अदालत द्वारा निर्णय दिया जाता है।निर्णय विचारण का अन्तिम चरण है। विचारण पूरा हो जाने पर निर्णय सुनाया जाता है और निर्णय के साथ ही विचारण का समापन हो जाता है। आपराधिक न्याय प्रशासन में निर्णय का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि निर्णय से ही...
आपराधिक मामलों में जांच किसे कहा जाता है एवं इसका कानूनी महत्व
किसी आपराधिक मामले में अनेक चरण होते हैं। कोई मामला प्रथम सूचना रिपोर्ट से प्रारंभ होकर अपीलीय न्यायालय के निर्णय तक जाता है। किसी आपराधिक मामले में जिस तरह आरोप होता है उस ही तरह जांच भी एक स्तर है। किसी मामले में मजिस्ट्रेट जांच महत्वपूर्ण भी होती है, जैसे पुलिस अधिकारियों पर प्राथमिकी दर्ज करने के पहले मजिस्ट्रेट जांच आवश्यक होती है। इस आलेख में इस ही जांच शब्द पर चर्चा की जा रही है एवं उसके कानूनी महत्व को समझा जा रहा है।जांच एवं अन्वेषण विचारण की प्रारम्भिक प्रक्रियाए हैं। जब न्यायालय के...
आरोप किसे कहते हैं? जानिए इसके कानूनी अर्थ
आरोप शब्द एक सामान्य जीवन से संबंधित शब्द है। हम इसे कई दफा दोहराते है, यह आम बातचीत का हिस्सा होता है। कानूनी क्षेत्र में आमतौर पर यह समझा जाता है कि पुलिस के समक्ष होने वाली शिकायत आरोप होती है जबकि यह आरोप नहीं है। आरोप अदालत द्वारा लगाएं जाते हैं। यह किसी भी मुकदमे का एक स्तर होता है। पुलिस द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के बाद ही कोई मुकदमा आरोप हेतु नियत किया जाता है। इसके पश्चात अदालत आरोप तय करती है। इस आलेख में आपराधिक मामलों में आरोप पर चर्चा की जा रही है।आरोप को 'दोषारोपण'...
जमानत के बावजूद पत्रकार सिद्दीकी कप्पन क्यों है जेल में?
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने हाथरस मामले (Hathras Case) में हिंसा भड़काने की साज़िश रचने के आरोप में 6 अक्टूबर, 2020 को यूपी पुलिस द्वारा गिरफ्तार पत्रकार सिद्दीक कप्पन (Siddique Kappan) को ज़मानत दी थी।हालांकि, प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा उनके खिलाफ दर्ज किए गए मनी लॉन्ड्रिंग के एक मामले के कारण कप्पन अभी भी जेल में बंद है।कप्पन को रिहा क्यों नहीं किया गया?सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन्हें जमानत देने के बाद लखनऊ की एक अदालत ने यूपी पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दर्ज मामले के संबंध में कप्पन के रिहाई...
आपराधिक मामलों में अदालतों का साक्ष्य अभिलिखित किए जाने का तरीका
कानून को दो प्रकार की विधियों में बांटा गया है आपराधिक और सिविल। अदालतें अपने निर्णय साक्ष्य के आधार पर देती है। आपराधिक मामलों में मौखिक साक्ष्य का अधिक महत्व होता है। अभियोजन अपने साक्षी प्रस्तुत करता है और बचाव पक्ष ऐसे साक्षियों का प्रतिपरीक्षण करता है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 272 से 283 तक में साक्ष्य लेने और अभिलिखित किये जाने के ढंग के बारे में प्रावधान किया गया है, यह आपराधिक मामलों के लिए है क्योंकि दंड प्रक्रिया संहिता आपराधिक विधि की प्रक्रिया विधि है। इस आलेख के अंतर्गत...
साक्ष्य क्या है और कितने प्रकार के होते हैं? जानिए प्रावधान
न्याय प्रशासन में साक्ष्य का महत्वपूर्ण स्थान है। साक्ष्य द्वारा ही सत्य-असत्य की खोज की जाती है। साक्ष्य के अभाव में किसी व्यक्ति को दण्डित नहीं किया जा सकता। आपराधिक मामलों में अभियोजन को अपना मामला सन्देह से परे साबित करना होता है। थोड़ा भी संदेह हो तब अभियुक्त दोषमुक्त हो सकता है।एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यह कहा गया है कि "साक्ष्य विधि न्यायालयों का मार्ग प्रशस्त करती है। यह ऐसे नियमों का प्रतिपादन करती है जो न्याय प्रशासन के सुचारु संचालन में सहायक होते हैं।"समस्त न्याय प्रशासन...
वर्तमान जमानत विधि में परिवर्तन पर अदालतों के मत
भारत में किसी भी अपराध के अभियुक्त को दोषसिद्धि से पूर्व एवं अपील के लंबित रहते हुए जमानत पर छोड़े जाने के प्रावधान हैं। हालांकि यह प्रावधान जमानतीय अपराध के मामलों में लागू होते हैं। गैर जमानती अपराधों में जमानत देना अदालत का विवेकाधिकार होता है, ऐसे मामलों में अभियुक्त की परिस्थिति एवं अपराध की गंभीरता को देखते हुए अदालतों द्वारा जमानत दी जाती है। समय-समय पर भारत के उच्चतम न्यायालय एवं भिन्न-भिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा जमानत की विधि पर परिवर्तन हेतु अपने मत दिए गए हैं। अनेक विद्वानों ने भी इस...
जमानत की अवधारणा, जानिए जमानत क्या है
शब्द 'जमानत' का अर्थ अन्वेषण एवं विचारण के लम्बित रहने के दौरान और कतिपय मामलों में अभियुक्त के विरुद्ध दोषसिद्धि के बाद भी अभियुक्त का न्यायिक उन्मोचन है। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 शब्द 'जमानत' को परिभाषित नहीं करती है। हालांकि शब्द 'जमानत का प्रयोग दण्ड प्रक्रिया संहिता में किया गया है, फिर भी संहिता में इसे परिभाषित नहीं किया गया है। शब्द 'जमानत को पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 में भी परिभाषित नहीं किया गया था। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में अपराध को केवल 'जमानतीय' एवं 'अजमानतीय' के...
पुलिस द्वारा चालान पेश करने की अवधि 60 या 90 दिन, जानिए प्रावधान
किसी भी अपराध में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के बाद पुलिस अपना अन्वेषण शुरू करती है। ऐसे अन्वेषण के बाद पुलिस चालान प्रस्तुत करती है। यह पुलिस की फाइनल रिपोर्ट होती है। इस चालान को प्रस्तुत करने हेतु पुलिस को एक समय सीमा दंड प्रक्रिया संहिता द्वारा दी गई है। यदि पुलिस उस निर्धारित समय के भीतर चालान प्रस्तुत नहीं करती है तो अभियुक्त को आवश्यक रूप से जमानत का लाभ मिल जाता है।यह प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के अंतर्गत उपलब्ध है। यहां एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा चालान प्रस्तुत...