क्या आत्महत्या के लिए स्पष्ट उकसावे को साबित किए बिना आत्महत्या का अपराध साबित किया जा सकता है?

Himanshu Mishra

19 Oct 2024 6:32 PM IST

  • क्या आत्महत्या के लिए स्पष्ट उकसावे को साबित किए बिना आत्महत्या का अपराध साबित किया जा सकता है?

    यह लेख पवन कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (Pawan Kumar v. State of Himachal Pradesh) के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझाता है। इस निर्णय में अदालत ने आत्महत्या के लिए उकसाने (Abetment of Suicide) के तहत दोष सिद्ध करने के लिए आवश्यक कानूनी सिद्धांतों को गहराई से समझाया है।

    इसमें भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 306 और धारा 107 पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जो आत्महत्या के लिए उकसाने की परिभाषा और उसकी सीमा स्पष्ट करती हैं। इस मामले में न्यायालय ने यह भी बताया कि कैसे मानसिक उत्पीड़न (Psychological Harassment) और लिंग-न्याय (Gender Justice) के मुद्दे समाज और कानून दोनों पर प्रभाव डालते हैं।

    आत्महत्या के लिए उकसाने से संबंधित प्रावधान

    धारा 306 IPC आत्महत्या के लिए उकसाने वाले व्यक्ति को दंडित करती है, जिसमें अधिकतम दस साल की कैद का प्रावधान है। हालांकि, "उकसाना" (Instigation) शब्द को धारा 306 में विस्तार से परिभाषित नहीं किया गया है।

    इसे स्पष्ट करने के लिए न्यायालय धारा 107 IPC का सहारा लेता है, जो उकसाने के तीन महत्वपूर्ण घटकों की व्याख्या करती है:

    1. प्रेरणा देना (Instigation): किसी व्यक्ति को कोई कार्य करने के लिए उकसाना या उभारना।

    2. षड्यंत्र (Conspiracy): किसी कार्य को अंजाम देने के लिए अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर योजना बनाना।

    3. जानबूझकर सहायता (Intentional Aiding): किसी कार्य को करने में जानबूझकर मदद करना।

    इस मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 107 के तहत उकसाने का अर्थ केवल प्रत्यक्ष आदेश (Direct Order) ही नहीं होता; यह इशारों, व्यवहार या बार-बार उत्पीड़न के माध्यम से भी हो सकता है, जो किसी व्यक्ति को आत्महत्या की ओर धकेल दे।

    महत्वपूर्ण निर्णय जिनसे आत्महत्या के उकसाने की व्याख्या होती है

    अदालत ने इस मामले में कई महत्वपूर्ण फैसलों का उल्लेख किया है। चित्रेश कुमार चोपड़ा बनाम दिल्ली राज्य (Chitresh Kumar Chopra v. State) में यह कहा गया कि उकसाना प्रत्यक्ष (Direct) या अप्रत्यक्ष (Indirect) दोनों हो सकता है। बार-बार उत्पीड़न या मानसिक प्रताड़ना भी उकसाने के अंतर्गत आती है, भले ही उसमें आत्महत्या के लिए स्पष्ट आदेश न दिया गया हो।

    लक्ष्मण बनाम महाराष्ट्र राज्य (Laxman v. State of Maharashtra) के मामले में न्यायालय ने यह सिद्धांत दिया कि यदि व्यक्ति मानसिक रूप से सक्षम है तो बिना मेडिकल प्रमाणपत्र के भी उसकी मृत्युपूर्व घोषणा (Dying Declaration) स्वीकार्य है।

    इस फैसले में कहा गया कि प्रमाणपत्र न होने पर भी अगर अन्य प्रमाण यह दर्शाते हैं कि व्यक्ति बयान देने के लिए मानसिक रूप से फिट था, तो उसकी घोषणा पर भरोसा किया जा सकता है।

    मानसिक उत्पीड़न: क्या यह उकसाने के बराबर है?

    अदालत ने इस मामले में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि क्या आरोपी द्वारा पीड़िता को लगातार परेशान करना आत्महत्या के लिए उकसाने के अंतर्गत आता है। इस फैसले में यह साफ किया गया कि उकसाने के लिए प्रत्यक्ष आदेश की आवश्यकता नहीं होती।

    बार-बार की गई प्रताड़ना या उत्पीड़न भी व्यक्ति को इस हद तक मानसिक रूप से तोड़ सकती है कि उसे आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा विकल्प न दिखे।

    रंधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य (Randhir Singh v. State of Punjab) के मामले का उल्लेख करते हुए अदालत ने कहा कि उकसाना एक मानसिक प्रक्रिया (Mental Process) है, जिसमें आरोपी का इरादा (Intention) पीड़ित को आत्महत्या की ओर धकेलने का होता है।

    केवल सामान्य विवाद या मामूली मतभेद को उकसाने के रूप में नहीं देखा जा सकता; इसमें आरोपी के सक्रिय प्रयास और मानसिक प्रवृत्ति का भी योगदान होना चाहिए।

    सामाजिक संवेदनशीलता और न्याय का महत्व

    अदालत ने इस निर्णय में लिंग-न्याय (Gender Justice) पर भी जोर दिया। इसने आरोपी के व्यवहार को पुरुषवादी मानसिकता (Male Chauvinism) का उदाहरण बताया और कहा कि मानसिक उत्पीड़न, जैसे छेड़छाड़ या बार-बार धमकी देना, न केवल व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि समाज में लैंगिक समानता को भी कमजोर करता है।

    डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस बनाम एस. समुथिरम (DIG v. Samuthiram) के मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए अदालत ने बताया कि छेड़छाड़ (Eve-teasing) कई प्रकार की होती है—मौखिक (Verbal), शारीरिक (Physical), मानसिक (Psychological), और यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment)।

    अदालत ने कहा कि हर व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार है, और यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 (Right to Life and Dignity) के तहत संरक्षित है। किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता या सम्मान का उल्लंघन करे।

    इस फैसले ने स्पष्ट किया कि आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला केवल प्रत्यक्ष आदेशों पर आधारित नहीं होता। बार-बार की गई मानसिक प्रताड़ना भी उकसाने के अंतर्गत आ सकती है, अगर इससे पीड़ित व्यक्ति आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है। अदालत ने यह भी कहा कि सामाजिक रूप से ऐसी हरकतों का गंभीर विरोध जरूरी है, ताकि लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा की रक्षा की जा सके।

    पवन कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (Pawan Kumar v. State of Himachal Pradesh) का यह फैसला इस बात का उदाहरण है कि कानून केवल व्यवहारिक अपराधों पर नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक उत्पीड़न पर भी ध्यान देता है। यह समाज और न्याय प्रणाली दोनों को यह संदेश देता है कि मानसिक उत्पीड़न को हल्के में नहीं लिया जा सकता और इसे गंभीरता से संबोधित करना आवश्यक है।

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