जानिए हमारा कानून

सशर्त बिक्री द्वारा बंधक और पुन: हस्तांतरण की शर्त के साथ बिक्री के बीच अंतर : सुप्रीम कोर्ट
सशर्त बिक्री द्वारा बंधक' और 'पुन: हस्तांतरण की शर्त के साथ बिक्री' के बीच अंतर : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में एलआर के माध्यम से प्रकाश (मृत) बनाम जी आराध्या एवं अन्य मामले में 'सशर्त बिक्री द्वारा बंधक' और 'पुन: हस्तांतरण की शर्त के साथ बिक्री' की अवधारणाओं को समझाया है।संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (टीपीए) की धारा 58 (सी) का उल्लेख करते हुए, न्यायालय ने कहा, “नकारात्मक में एक काल्पनिक कल्पना जोड़ी गई थी कि एक लेनदेन को तब तक बंधक नहीं माना जाएगा जब तक कि उस दस्तावेज़ में पुनर्भुगतान की शर्त शामिल न हो जिसका उद्देश्य बिक्री को प्रभावित करना है।"बेंच में जस्टिस हिमा कोहली...

पुराना वाहन बेचने पर खरीदने वाला ट्रांसफर नहीं करवाए तब मालिक क्या नुकसान हो सकते हैं
पुराना वाहन बेचने पर खरीदने वाला ट्रांसफर नहीं करवाए तब मालिक क्या नुकसान हो सकते हैं

वाहन व्यक्ति की संपत्ति है। कई मौकों पर वाहन खरीदने और बेचने पड़ते हैं। वाहनों से संबंधित सभी लेखा जोखा सरकार द्वारा क्षेत्रीय परिवाहन कार्यालय के माध्यम से अपने पास रखा जाता है। किसी भी वाहन को बेचने पर उसके मालिक द्वारा खरीदने वाले व्यक्ति के नाम पर ट्रांसफर करवाया जाता है। ऐसे ट्रांसफर पर सरकार को ड्यूटी भी प्राप्त होती है जो राज्य सरकार का राजस्व होता है। आजकल केवल स्टांम्प के माध्यम से वाहन बेचे जाने का चलन भी चल रहा है जो गैर कानूनी है। कई वाहन ऐसे हैं जो बगैर ट्रांसफर के ही कई लोगों को बिक...

उपभोक्ता फोरम में किस तरह के केस लगाएं जा सकते हैं और क्या है इसकी प्रक्रिया
उपभोक्ता फोरम में किस तरह के केस लगाएं जा सकते हैं और क्या है इसकी प्रक्रिया

उपभोक्ता फोरम भी एक अदालत है और उसे कानून द्वारा एक सिविल कोर्ट को दी गई शक्तियों की तरह ही शक्तियां प्राप्त हैं। उपभोक्ता अदालतों की जननी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम,1986 है। इस अधिनियम के साथ उपभोक्ता फोरम की शुरुआत हुई। उपभोक्ता का मतलब ग्राहक होता है। पहले इंडिया में उपभोक्ता के लिए कोई परफेक्ट लॉ नहीं था जो सिर्फ ग्राहकों से जुड़े हुए मामले ही निपटाए। किसी भी ग्राहक के ठगे जाने पर उसे सिविल कोर्ट में मुकदमा लगाना होता था। इंडिया में सिविल कोर्ट पर काफी कार्यभार है ऐसे में ग्राहकों को परेशानी का...

धारा 156 (3) और 202 सीआरपीसी : सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व संज्ञान और संज्ञान को बाद के चरण में मजिस्ट्रेट की शक्ति का फर्क समझाया
धारा 156 (3) और 202 सीआरपीसी : सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व संज्ञान और संज्ञान को बाद के चरण में मजिस्ट्रेट की शक्ति का फर्क समझाया

हाल ही के एक फैसले (कैलाश विजयवर्गीय बनाम राजलक्ष्मी चौधरी और अन्य) में, सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 156 (3) के तहत प्राथमिकी दर्ज करने और अध्याय XV (मजिस्ट्रेट को शिकायत) के तहत संज्ञान लेने के बाद कार्यवाही और पूर्व-संज्ञान चरण में जांच करने के लिए एक मजिस्ट्रेट की शक्ति के बीच अंतर को स्पष्ट किया।सीआरपीसी की धारा 156(3) में कहा गया है कि एक मजिस्ट्रेट जिसे संहिता की धारा 190 के तहत संज्ञान लेने का अधिकार है, संज्ञेय अपराध के लिए जांच का आदेश दे सकता...