क्या राज्य सरकार द्वारा कानून अधिकारियों की नियुक्ति को मनमानी और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन मानकर चुनौती दी जा सकती है?

Himanshu Mishra

4 Nov 2024 9:56 PM IST

  • क्या राज्य सरकार द्वारा कानून अधिकारियों की नियुक्ति को मनमानी और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन मानकर चुनौती दी जा सकती है?

    इस लेख में हम एक महत्वपूर्ण कानूनी सवाल पर चर्चा करेंगे: क्या राज्य सरकार द्वारा कानून अधिकारियों (Law Officers) की नियुक्ति प्रक्रिया को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि यह प्रक्रिया मनमानी (Arbitrary) है और इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों का उल्लंघन करती है?

    इस सवाल का विश्लेषण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट ऑफ पंजाब एंड अनर. वि. बृजेश्वर सिंह चहल एंड अनर. मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें सरकारी नियुक्तियों में न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की जरूरत और गैर-मनमानी प्रक्रिया का महत्व स्पष्ट किया गया।

    अनुच्छेद 14: समानता का आधार (Article 14: The Foundation of Equality)

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 प्रत्येक नागरिक के लिए कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान करता है और राज्य द्वारा किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकता है। नियुक्तियों (Appointments) के संदर्भ में, अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करने में सहायक है कि सरकारी निर्णयों में पारदर्शिता (Transparency) हो और पक्षपात या मनमानी का कोई स्थान न हो।

    इस मामले में, कोर्ट ने इस बात पर बल दिया कि मनमानी, समानता के सिद्धांत के विपरीत है और नियमों पर आधारित कानून (Rule of Law) की आवश्यकता सरकारी कार्यों में पारदर्शिता है, विशेषकर उन नियुक्तियों में जो जनता के धन से होती हैं।

    राज्य की नियुक्तियों की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review of State Appointments)

    श्रिलेखा विद्यर्थी बनाम राज्य उत्तर प्रदेश मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक मिसाल कायम की थी कि सरकारी नियुक्तियों को, चाहे वे संविदात्मक (Contractual) ही क्यों न हों, न्यायिक समीक्षा के अधीन रखा जा सकता है। कोर्ट ने इस सिद्धांत पर जोर दिया कि सरकारी कार्यों का उद्देश्य जनहित (Public Interest) में होना चाहिए और वे मनमानी नहीं हो सकतीं।

    पंजाब और हरियाणा मामले में कोर्ट ने पुनः इस बात को दोहराया कि राज्य कानून अधिकारियों की नियुक्ति सिर्फ एक पेशेवर कार्य नहीं बल्कि इसमें सार्वजनिक तत्व (Public Element) भी शामिल है। इस प्रकार, राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि चयन प्रक्रिया निष्पक्ष और गैर-पक्षपाती (Non-discriminatory) हो, ताकि इसे पक्षपातपूर्ण ना माना जाए और संवैधानिक (Constitutional) समानता का पालन हो सके।

    नियुक्तियों में पारदर्शिता और वस्तुनिष्ठ मानदंड (Transparency and Objective Standards in Appointments)

    पंजाब और हरियाणा की नियुक्ति प्रक्रिया की जांच के दौरान, कोर्ट ने देखा कि यहाँ कोई संरचित चयन प्रक्रिया नहीं थी। कोई मानदंड (Criteria), समिति (Committee), या हाईकोर्ट (High Court) से परामर्श नहीं लिया गया जो सक्षम उम्मीदवारों का चयन सुनिश्चित कर सके। पारदर्शिता की इस कमी ने पक्षपात की संभावनाओं को बढ़ावा दिया।

    कोर्ट ने जोर दिया कि इस प्रकार के पदों के लिए राज्यों को उम्मीदवारों के योग्यता (Merit) और उपयुक्तता (Suitability) का मूल्यांकन करने के लिए स्पष्ट मानदंड स्थापित करने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नियुक्तियाँ जनहित में हों।

    महत्वपूर्ण निर्णय और मामले (Important Precedents and Case Law)

    कोर्ट ने इस मामले में कई महत्वपूर्ण फैसलों का उल्लेख किया। एस. जी. जैसिंघानी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में कोर्ट ने कहा कि मनमानी विवेकाधिकार (Discretion) को स्पष्ट सीमाओं में बाँधा जाना चाहिए, जो कि विधि के शासन का मूल तत्व है।

    इसी प्रकार, ई.पी. रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य ने जोर दिया कि समानता और मनमानी "कट्टर दुश्मन" हैं, और मनमानी कार्य अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है।

    रमणा दयाराम शेट्टी बनाम इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया में कोर्ट ने पुनः घोषित किया कि राज्य के कार्यों को तर्कसंगत और गैर-पक्षपाती मानकों के अनुरूप होना चाहिए। इन सभी फैसलों से यह सिद्धांत स्थापित होता है कि राज्य कार्यों में मनमानी का कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विशेषकर तब जब सार्वजनिक पद (Public Office) का मामला हो।

    राज्य कानून अधिकारियों की नियुक्तियों में सार्वजनिक तत्व (The Public Element in State Law Officer Appointments)

    कोर्ट ने यह भी जांचा कि क्या राज्य कानून अधिकारियों का पद एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक तत्व (Public Element) वाला पद है, जिसे एक सामान्य निजी सगाई (Engagement) से अलग समझा जाना चाहिए।

    श्रिलेखा विद्यर्थी मामले से प्राप्त सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए, कोर्ट ने पुष्टि की कि कानून अधिकारी, जो सार्वजनिक खजाने (Public Treasury) से वेतन पाते हैं और राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, इस प्रकार का एक ऐसा पद है, जो न्याय की गुणवत्ता और न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास बनाए रखने पर प्रभाव डालता है।

    इसलिए, कानून अधिकारियों का चयन विवेकाधीन (Arbitrary) तरीके से नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसमें प्रतिभा (Merit) और ईमानदारी (Integrity) की कसौटी होनी चाहिए।

    व्यावहारिक प्रभाव और सुधार की आवश्यकता (Practical Implications and Need for Reform)

    कोर्ट ने सुझाव दिया कि राज्य को नियुक्तियों की आवश्यक संख्या का यथार्थ आकलन (Realistic Assessment) करना चाहिए और उनकी चयन प्रक्रिया में स्पष्ट मानदंड (Clear Criteria) तय करने चाहिए। इन उपायों के बिना, नियुक्ति प्रक्रिया सार्वजनिक हित की बजाय राजनीतिक संरक्षण (Political Patronage) का साधन बन सकती है।

    इस निर्णय ने इस बात पर जोर दिया कि मनमानी नियुक्तियाँ न्याय प्रणाली और जनता के विश्वास को नुकसान पहुँचा सकती हैं, जैसा कि हरियाणा में निष्पक्षता की कमी से हुए निष्क्रिय वेतन (Idle Salaries) पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक

    निष्पक्षता और जवाबदेही को बनाए रखना (Conclusion: Upholding Fairness and Accountability)

    इस मामले ने पुनः यह पुष्टि की कि राज्य द्वारा की गई नियुक्तियाँ, विशेष रूप से जिनमें सार्वजनिक कार्य शामिल हैं, उन्हें निष्पक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही (Accountability) के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।

    सरकारी कार्यों में मनमानी संवैधानिक समानता के सिद्धांत के अनुकूल नहीं है और राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि वे पक्षपात से बचें और यह सुनिश्चित करें कि उनकी चयन प्रक्रियाएं वस्तुनिष्ठ मानकों (Objective Standards) का पालन करें।

    सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इन मूल्यों को सुरक्षित रखने में न्यायिक समीक्षा की भूमिका का महत्वपूर्ण अनुस्मारक है और इस बुनियादी सिद्धांत को भी पुनः स्पष्ट करता है कि सभी राज्य कार्यों का अंतिम उद्देश्य जनता की भलाई के लिए होना चाहिए।

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