इस आधार पर जमानत खारिज नहीं की जा सकती कि ट्रायल में तेजी लाई जाएगी: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-09-03 04:51 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि सिर्फ इस आधार पर जमानत खारिज नहीं की जा सकती कि मुकदमे में तेजी लाई जाएगी।

जस्टिस अभय ओक और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने डकैती के आरोपी की एसएलपी में नोटिस जारी करते हुए यह बात कही। इस एसएलपी में कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई, जिसमें उसकी जमानत याचिका खारिज करने लेकिन मुकदमे में तेजी लाने का आदेश दिया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट बार एसोसिएशन बनाम स्टेट ऑफ यूपी के मामले में संविधान पीठ के फैसले के बावजूद, जिसमें कहा गया कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को मुकदमे को पूरा करने के लिए समय-सीमा तय नहीं करनी चाहिए, कई हाईकोर्ट जमानत देने से इनकार करने के बाद भी ऐसा करते रहते हैं।

न्यायालय ने अपने आदेश में कहा,

“हाईकोर्ट बार एसोसिएशन, इलाहाबाद बनाम स्टेट ऑफ यूपी और अन्य के मामले में इस कोर्ट की संविधान पीठ ने यह विचार किया कि नियम के तौर पर हाईकोर्ट या इस कोर्ट को किसी मामले के संचालन के लिए समय-सीमा तय नहीं करनी चाहिए। यह दृष्टिकोण केवल असाधारण मामलों में ही अपनाया जा सकता है। इस न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा कानून की घोषणा के बावजूद, हमने देखा है कि कई हाईकोर्ट जमानत खारिज करते समय मुकदमे के संचालन के लिए समयबद्ध कार्यक्रम तय कर रहे हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि इस आधार पर जमानत से इनकार किया जाए कि मुकदमे का निपटारा शीघ्रता से किया जाएगा। जारी नोटिस 4 अक्टूबर को वापस किया जाना चाहिए।”

इसी खंडपीठ ने इस वर्ष जुलाई में पटना हाईकोर्ट का आदेश खारिज कर दिया था, जिसमें आपराधिक मामले में निचली अदालत को एक वर्ष के भीतर मुकदमा पूरा करने का निर्देश दिया गया था, जिसमें कहा गया कि हाईकोर्ट ने निचली अदालतों में लंबित मामलों की बड़ी संख्या पर विचार नहीं किया। खंडपीठ ने संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए पिछले महीने मौखिक रूप से कहा था कि वह हाईकोर्ट में सुनवाई में तेजी लाने की मांग करने वाली याचिकाओं पर विचार नहीं कर सकती।

वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता डकैती के एक मामले में कई आरोपियों में से एक है, जो दो साल से अधिक समय से हिरासत में है। उसने शुरू में जमानत के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि मामले में आरोप पत्र में 72 गवाहों के नाम हैं, लेकिन अभी तक केवल तीन गवाहों की जांच की गई। गवाहों की जांच के लिए अंतिम निर्धारित तिथि 18 जून, 2024 थी, लेकिन उस तिथि पर किसी भी गवाह की जांच नहीं की गई। याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि लंबे समय तक कारावास और मुकदमे की धीमी गति के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और त्वरित सुनवाई के उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।

हाईकोर्ट ने आरोप की गंभीरता और याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रथम दृष्टया साक्ष्य को देखते हुए याचिकाकर्ता की जमानत याचिका खारिज कर दी। हाईकोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि याचिकाकर्ता की पहचान टेस्ट आइडेंटिफिकेशन (टीआई) परेड में की गई थी। उसके पास से बरामद सामग्री कथित अपराध में उसे दोषी ठहराती है।

हालांकि, कारावास की लंबी अवधि और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को देखते हुए हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को साक्ष्य रिकॉर्ड करने के लिए निर्धारित अगली तिथि से एक वर्ष के भीतर बिना किसी अनावश्यक स्थगन के ट्रायल समाप्त करने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि निर्धारित समय सीमा के भीतर ट्रायल समाप्त नहीं होता तो याचिकाकर्ता अपनी जमानत याचिका को नवीनीकृत करने के लिए स्वतंत्र होगा।

केस टाइटल- रूप बहादुर मगर @ सांकी@ राबिन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य

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