सुप्रीम कोर्ट ने लंबित मुकदमों और अंडरट्रायल कैदियों को जमानत देने के मुद्दे को कैसे सुलझाया?

Update: 2024-10-17 12:41 GMT

Hussain बनाम Union of India के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लंबित मुकदमों (Delayed Trials) और अंडरट्रायल कैदियों (Undertrial Prisoners) को जमानत देने के मुद्दे पर अहम निर्देश दिए। कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत न्याय में देरी (Delayed Justice) से व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का उल्लंघन होता है।

इस फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया कि बिना दोष सिद्ध हुए किसी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में रखना संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता और त्वरित न्याय से जुड़े प्रावधान (Constitutional and Statutory Provisions on Personal Liberty and Speedy Trials)

कोर्ट ने अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई (Speedy and Fair Trial) का अधिकार देने पर जोर दिया। कोर्ट ने कहा कि मुकदमों में देरी से व्यक्ति की स्वतंत्रता छिनती है, जो असंवैधानिक है। इस संदर्भ में, कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 436A (Section 436A) का जिक्र किया।

इस प्रावधान के तहत, यदि किसी अंडरट्रायल कैदी ने उस अपराध की अधिकतम सजा की आधी अवधि जेल में काट ली है, तो उसे जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए।

अदालत ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक हिरासत में रखना न्यायिक प्रणाली की कमियों को दर्शाता है। हालांकि, गंभीर अपराधों में हिरासत जरूरी हो सकती है, लेकिन मुकदमे जल्दी निपटाए जाने चाहिए ताकि अनावश्यक रूप से स्वतंत्रता का हनन (Unjustified Deprivation of Liberty) न हो।

न्याय में देरी और जमानत से जुड़े महत्वपूर्ण फैसले (Key Judgments Referenced Regarding Speedy Trials and Bail)

कोर्ट ने कई प्रमुख फैसलों का उल्लेख किया, जिन्होंने त्वरित न्याय (Speedy Justice) और जमानत (Bail) के अधिकार को मजबूती से स्थापित किया:

1. Hussainara Khatoon बनाम Home Secretary, Bihar (1980) – इस ऐतिहासिक मामले में अदालत ने पाया कि गरीब अंडरट्रायल कैदी, जो वकील की सुविधा न होने के कारण जेल में सालों से बंद हैं, के अधिकारों का हनन हो रहा है। कोर्ट ने कहा कि जमानत न देना और सुनवाई में देरी उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

2. Akhtari Bi बनाम Madhya Pradesh (2001) – इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि आरोपी जेल में हैं, तो उनकी अपीलों का निपटारा पांच साल के भीतर किया जाना चाहिए। यदि मुकदमा या अपील इस अवधि में पूरी नहीं होती, तो आरोपी को जमानत दी जानी चाहिए, जब तक कि विशेष परिस्थितियां न हों।

3. Thana Singh बनाम Central Bureau of Narcotics (2013) – इस फैसले में अदालत ने अनावश्यक स्थगन (Adjournments) से बचने पर जोर दिया और गवाहों (Witnesses) की निरंतर जांच सुनिश्चित करने के निर्देश दिए। अदालत ने सबूत की जांच के लिए अतिरिक्त प्रयोगशालाएं (Laboratories) स्थापित करने का भी आदेश दिया ताकि मामलों में देरी कम हो सके।

4. Imtiyaz Ahmad बनाम State of Uttar Pradesh (2012) – इस मामले में अदालत ने कहा कि न्यायिक देरी कानून के शासन (Rule of Law) को कमजोर करती है और जनता का विश्वास कम करती है। कोर्ट ने कहा कि मुकदमों के प्रबंधन (Case Management) और नियमित निगरानी (Monitoring Mechanism) से देरी को कम किया जा सकता है।

न्याय और सार्वजनिक सुरक्षा के बीच संतुलन (Balancing Justice and Public Safety)

अदालत ने यह भी माना कि गंभीर अपराधों, जैसे हत्या और मादक पदार्थों से जुड़े अपराध (Murder and Narcotics Offenses) में, सार्वजनिक सुरक्षा (Public Safety) के मद्देनजर मुकदमों में सावधानी बरतनी चाहिए। हालांकि, यदि किसी आरोपी का मुकदमा अनावश्यक रूप से लंबित रहता है, तो जमानत देना या मुकदमा जल्द निपटाना आवश्यक है ताकि व्यक्ति की स्वतंत्रता से समझौता न हो।

न्यायिक प्रशासन में सुधार के निर्देश (Administrative Reforms Suggested by the Court)

अदालत ने चीफ जस्टिस और हाईकोर्ट से आग्रह किया कि वे लंबित मुकदमों की संख्या कम करने के लिए विशेष कदम उठाएं। अदालत ने कहा कि विशेष बेंच (Special Benches) का गठन कर पुराने मामलों को प्राथमिकता दी जाए। कोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग (Video Conferencing) के उपयोग और अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of Judges) जैसे उपायों को भी अपनाने पर जोर दिया।

अदालत ने यह भी कहा कि धारा 436A CrPC के प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाए और सुनिश्चित किया जाए कि योग्य अंडरट्रायल कैदी अनावश्यक रूप से जेल में न रहें। इसके लिए, अदालतों को नियमित समीक्षा (Periodic Review) करने का निर्देश दिया गया।

Hussain बनाम Union of India का यह फैसला न्यायपालिका की जिम्मेदारी को रेखांकित करता है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और त्वरित न्याय का संरक्षण किया जाए। अदालत ने स्पष्ट किया कि न्यायिक देरी न केवल मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का उल्लंघन है, बल्कि इससे जनता का न्याय प्रणाली में विश्वास भी कम होता है।

यह फैसला प्रशासनिक सुधारों और हाईकोर्ट की सक्रिय भागीदारी का आह्वान करता है, ताकि अपराध प्रक्रिया निष्पक्ष और समयबद्ध (Timely Justice) हो सके।

Tags:    

Similar News