दुखद है कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी लोगों को अंतिम संस्‍कार करने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा हैः आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय

Update: 2021-08-27 04:45 GMT

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा, "यह दुखद है कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी समाज के कुछ ‌हिस्सों को कुछ गांवों और शहरों में शवदाहगृह और कब्रगाहों की कमी के कारण अंतिम संस्कार में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।" उक्त टिप्‍पणियों के साथ न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन का अधिकार न केवल एक जीवित व्यक्ति को बल्कि उसके मृत शरीर को भी उपलब्ध है।

ज‌स्टिस बट्टू देवानंद की खंडपीठ ने एक रिट याचिका का ‌निपटारा किया, जिसमें हिंदू अंत्येष्ट‌ि स्‍थल के एक हिस्से को ईसाई अंत्येष्टि स्‍थल के रूप में आवंटित करने के स्थानीय सरकार के प्रस्ताव को चुनौती दी गई थी।

स्थानीय सरकार के प्रस्ताव के खिलाफ याचिकाकर्ताओं की दलीलों को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने कहा- "... वे सभी तर्क एससी समुदाय के लोगों को दफनाने के लिए उक्त भूमि को आवंटित करने के प्रतिवादी अधिकारियों के प्रस्ताव के खिलाफ हैं।"

नतीजतन, अदालत ने फैसला किया कि आवंटन न तो अवैध था और न ही याचिकाकर्ताओं के किसी भी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था क्योंकि लोगों को कब्रिस्तान/ श्मशान की जगह देना स्थानीय स्व-सरकारों का कर्तव्य है।

कोर्ट ने कहा, "प्रतिवादियों ने अपने संवैधानिक और वैधानिक दायित्वों का निर्वहन करने के लिए उस गांव के अनुसूचित जाति समुदाय के लोगों को कब्रिस्तान के उपयोग के लिए जमीन के टुकड़े को आवंटित करने का फैसला किया। इस तरह, इसे किसी भी कोण से दोष नहीं पाया जा सकता है।"

इसके अलावा, न्यायालय ने प्रतिवादियों को संबंधित सभी पक्षों की उपस्थिति में क्षेत्र का सर्वेक्षण करने का भी निर्देश दिया और यदि यह पाया जाता है कि कब्रिस्तान की जमीन पर अतिक्रमण है, तो अतिक्रमणकारियों को हटाने के लिए तत्काल कदम उठाने के लिए उचित प्रक्रिया का पालन करने का निर्देश दिया।

इस पृष्ठभूमि में न्यायालय ने परमानंद कटारा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (1995) 3 एससीसी 248 के फैसले का उल्लेख किया और आगे कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार में सम्मान का अधिकार शामिल है। वह न केवल एक जीवित व्यक्ति के लिए बल्कि उसके मृत शरीर के लिए भी उपलब्ध है।

रिट याचिका की सुनवाई के दौरान, जब इस न्यायालय के संज्ञान में आया कि उचित कब्रिस्तान/श्मशान की कमी के कारण, अनुसूचित जाति के लोगों का एक वर्ग पेडाकाकनी गांव के टैंक बांध पर अंतिम संस्कार कर रहा है और अन्य ग्रामीण उस पर आपत्ति जता रहे हैं, कोर्ट ने कहा- "यह देखना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्र भारत के 75 वर्षों के बाद भी समाज के कुछ वर्गों को कुछ गांवों और कस्बों में कब्रिस्तान और श्मशान की कमी के कारण अंत्येष्टि के लिए भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इस मामले में पारित आदेश के आलोक में भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार में सम्मान का अधिकार शामिल है और यह न केवल एक जीवित व्यक्ति के लिए बल्कि उसके मृत शरीर के लिए भी उपलब्ध है और यह विचार माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार-बार दोहराया गया है। इस न्यायालय को उम्मीद है कि राज्य सरकार और स्थानीय स्व-सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से देखने का प्रयास करेगी और धर्म, क्षेत्र, जाति, लिंग, आदि के के बावजूद कब्रिस्तान और श्मशान प्रदान करना सुनिश्चित करेगी।"

ऑर्डर डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




Tags:    

Similar News