मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों को केरल हाईकोर्ट में चुनौती, निर्वसीयती उत्तराधिकार में लैंगिक भेदभाव का आरोप
केरल हाईकोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की गई है, जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 और मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन (केरल एमेंडमेंट) एक्ट, 1963 के विभिन्न प्रावधानों को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वे पुरुषों और महिला मुस्लिम निर्वसीयत उत्तराधिकारी में भेदभाव करते हैं।
जस्टिस वीजी अरुण ने हाल ही में याचिका को स्वीकार किया और सरकारी वकील को निर्देश प्राप्त करने के लिए कहा। छुट्टी के तुरंत बाद मामले को उठाया जाएगा।
एडवोकेट अतुल सोहन के माध्यम से दायर याचिका में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 की वैधता और मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन (केरल संशोधन) एक्ट, 1963 की प्रतिस्थापित धारा 2 को इस आधार पर चुनौती दी गई हे कि "यह" भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है।"
याचिका में एक घोषणा की मांग की गई है कि उक्त प्रावधान "लैंगिक आधार पर भेदभाव की हद तक शून्य हैं।"
याचिका एक मुस्लिम महिला द्वारा दायर की गई है, जिसके पिता की मृत्यु 1981 में बिना वसीयत के हो गई थी। उसने शरीयत के अनुसार बंटवारे के लिए दावा दायर किया था। हालांकि, याचिकाकर्ता ने दलील दी कि महिला और पुरुष के बीच भेदभाव किया जाता है, क्योंकि महिला उत्तराधिकारी को विरासत में शरियत के अनुसार पुरुष उत्तराधिकारी को प्राप्त संपत्ति का आधा ही मिलता है।
याचिका में तर्क दिया गया है,
"मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम महिला के बीच 1: 2 के रूप में भेदभाव करने वाला हिस्सा संवैधानिक रूप से गलत है, संविधान के अनुच्छेद 15 में निहित मौलिक अधिकार के खिलाफ है। इस तरह का "भेदभाव" अनुच्छेद 13 के खिलाफ है।
निचली अदालत ने शरीयत कानून का पालन करते हुए फैसला सुनाया और अपने भाइयों को आवंटित हिस्से में से आधे हिस्से की ही अनुमति दी। निचली अदालत के अंतिम आदेश को चुनौती देने वाली अपील हाईकोर्ट में लंबित है।
महिला ने रिट याचिका में तर्क दिया,
"याचिकाकर्ता ने संविधान के तहत शरीयत अधिनियमों के उल्लंघन के बारे में सलाह लिए बिना मुकदमा दायर किया ... और प्रारंभिक डिक्री पारित की गई। उप-न्यायाधीश वतकरा द्वारा पारित डिक्री भारतीय संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों के खिलाफ है।"
केस टाइटल : बुशरा अली बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य।