बेटी के नवजात शिशु को माता-पिता ने अवैध रूप से कस्टडी में लिया और अनाथ बताकर छोड़ दिया, बेटी ने केरल हाईकोर्ट में हैबियस कार्पस याचिका दायर की
एक 22 वर्षीय महिला अनुपमा एस चंद्रन ने केरल हाईकोर्ट में एक बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कार्पस) याचिका दायर कर आरोप लगाया है कि उसके नवजात शिशु को उसके माता-पिता ने अवैध रूप से अपनी कस्टडी में ले लिया था और उसे एक वर्ष से अधिक समय तक सभी बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित रखा है।
इस घटना को हाल ही में राज्य में काफी मीडिया कवरेज मिली है क्योंकि यह महिला अपने बच्चे की तलाश कर रही है और उसने इस काम में मीडिया से मदद मांगी थी। उसे अपने बच्चे के बारे में अभी कुछ पता नहीं है।
इस मामले में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रतिवादी माता-पिता अत्यधिक प्रभावशाली राजनीतिक नेता हैं।
अधिवक्ता आरके आशा उन्नीथन और अभिलाष एजे के माध्यम से दायर याचिका के अनुसार, याचिकाकर्ता ने 19 अक्टूबर 2020 को बच्चे को जन्म दिया था। जन्म के बाद बच्चे को तत्काल उसके माता-पिता को सौंपा गया था, जिसके बाद वह याचिकाकर्ता की सहमति या जानकारी के बिना नवजात को जबरदस्ती अपने साथ ले गए।
याचिकाकर्ता का आरोप है कि चूंकि वह कोरोना से संक्रमित थी, इसलिए प्रतिवादियों ने नवजात को संक्रमण से बचाने के बहाने बच्चे को उसकी जैविक मां से जबरदस्ती अलग कर दिया।
उसने अपने माता-पिता पर यह भी आरोप लगाया है कि उन्होंने बच्चे की पहचान छिपाने और उसे अनाथ बनाने की साजिश रचने के बाद उसके बच्चे को अम्मा थोट्टिल को सौंप दिया,जो बाल कल्याण समिति द्वारा संचालित एक संगठन है।
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि बाल कल्याण समिति ने भी एक परित्यक्त (छोड़े गए) बच्चे के आत्मसमर्पण के संबंध में किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों का पालन नहीं किया है।
याचिका में कहा गया है कि,''याचिकाकर्ता का दृढ़ विश्वास है कि एक समान इरादे से प्रतिवादियों ने एक 4 दिन के बच्चे को उसकी जैविक मां से अलग करने के लिए साजिश रची थी और उसे एक शिशु के सभी बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित कर दिया।''
उसने पेरूकार्दा पुलिस स्टेशन के थाना प्रभारी के समक्ष एक शिकायत दर्ज कराई थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई।
याचिकाकर्ता ने एसएचओ पर भी आरोप लगाया है कि वह उसके माता-पिता के साथ उसके बच्चे के सभी विवरण छिपाने की साजिश में शामिल है, ताकि याचिकाकर्ता अपने बच्चे को खोजने में सफल न हो पाए।
याचिका में कहा गया है कि,''यह संस्थागत आपराध के समान है। वैधानिक संस्थान, एक सरकारी संगठन और एक बच्चे की रक्षा और देखभाल के लिए बाध्य व्यक्तियों (नाना व नानी) ने एक साथ मिलकर शिशु को उसकी जैविक मां से अलग करने की साजिश रची है। इस प्रकार उसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मिले बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित किया गया है।''
याचिकाकर्ता के अनुसार, उसके माता-पिता ने बच्चे के पिता अजिथ कुमार के साथ उसके संबंधों को मंजूरी नहीं दी थी। जब वह गर्भवती हुई तो उसने 8वां महीना शुरू होने के बाद ही अपने माता-पिता को इस संबंध में जानकारी दी थी ताकि उसका जबरन गर्भपात न करवाया जा सके।
गर्भावस्था के काफी उन्नत चरण में पहुंचने के बावजूद भी उसके माता-पिता ने कथित तौर पर बच्चे का जबरदस्ती गर्भपात कराने के लिए कई प्रयास किए, जिसका याचिकाकर्ता ने जोरदार विरोध किया।
इसके बाद, उसे अपनी बड़ी बहन की शादी होने तक अपने बच्चे के जन्म का खुलासा नहीं करने के लिए मजबूर किया गया। याचिका में कहा गया है कि उसके माता-पिता ने उसकी गर्भावस्था को न केवल अशोभनीय माना बल्कि उसकी बड़ी बहन की शादी में आने वाली बाधा भी बताया।
याचिकाकर्ता ने यह भी आरोप लगाया है कि उसे घर में नजरबंद रखा गया था और उसके माता-पिता उसे मनश्चिकित्सीय दवाएं देते थे। एक दिन वह वहां से भाग गई और अजिथ कुमार के साथ रहने लगी। उसके बाद उन दोनों ने मिलकर अपने बच्चे की तलाश शुरू की, लेकिन यह एक निष्फल प्रयास था।
याचिका में आगे खुलासा किया गया है कि हालांकि उसने अप्रैल 2021 में इस मामले में शिकायत दर्ज की थी, परंतु प्राथमिकी 18 अक्टूबर 2021 को दर्ज की गई और एसएचओ ने उसके बच्चे को खोजने के लिए कोई भी कदम उठाने से इनकार कर दिया।
याचिका में आरोप लगाया है कि बाल कल्याण समिति ने बच्चे को अपनी जैविक मां के साथ रहने के अधिकार से वंचित किया है क्योंकि सीडब्ल्यूसी अध्यक्ष ने अपने बच्चे के संबंध में किए गए उसके दावों पर कोई कार्रवाई नहीं की।
''एक शिशु को उसके जैविक माता-पिता से अलग कर दिया गया और सभी अमानवीय तरीकों से और अपनी आधिकारिक / न्यायिक शक्ति और क्षमता के दुरुपयोग के साथ उसे अनाथ बताकर छोड़ दिया गया। वे बच्चे की देखभाल और सुरक्षा करने के लिए कानून तौर पर बाध्य थे और अब अपने आपराधिक कृत्य के प्रति जवाबदेह हैं। उन्होंने एक शिशु के जीवन के अधिकार का उल्लंघन किया है।''
बाद में, याचिकाकर्ता और उसके पति को पता चला कि 23.10.2020 को अम्मा थोट्टिल में दो बच्चों को रखा गया था और उन्होंने इन दोनों शिशुओं के डीएनए परीक्षण की मांग की। यद्यपि एक शिशु के संबंध में उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया गया परंतु सीडब्ल्यूसी ने दूसरे बच्चे के मामले में उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया।
इस कारण से, याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि समिति ने कानून के प्रावधानों और उसके कानूनी अधिकार का दुरुपयोग किया है।
उसने अपने नाबालिग बच्चे की ओर से यह याचिका दायर की है, 'जो जैविक मां की देखभाल और सुरक्षा पाने के लिए एक शिशु के मूल मानव अधिकार की मांग करने के लिए अदालत का रुख करने में सक्षम नहीं है।'
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में आरोप लगाया है कि उसके बच्चे को कस्टडी में रखना पूरी तरह से अवैध है, जो संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और उनकी इच्छा के विपरीत है।
याचिकाकर्ता ने तदनुसार प्रार्थना की है कि उसके बच्चे को उसके माता-पिता द्वारा अदालत के समक्ष पेश किया जाए और उसको सौंपा जाए।