एनडीपीएस एक्ट | एमपी हाईकोर्ट ने एफएसएल रिपोर्ट चार्जशीट के साथ जमा नहीं होने के बावजूद डिफॉल्ट जमानत से इनकार किया, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की राय से असहमति प्रकट की

Update: 2022-08-24 15:27 GMT

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की राय से यह कहते हुए अपनी अलग राय प्रकट कि एनडीपीएस मामले में यदि अभियोजन पक्ष चालान (चार्जशीट) के साथ एफएसएल रिपोर्ट जमा करने में विफल रहा हो तो भी एक आरोपी डिफॉल्ट जमानत पाने का हकदार नहीं है।

जस्टिस सुजॉय पॉल की खंडपीठ ने तदनुसार कहा-

इस न्यायालय की सुविचारित राय में, सीआरपीसी की धारा 173 (5) में प्रयुक्त शब्द 'होगा' नरेंद्र के अमीन (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर प्रकृति में निर्देशिका मात्र है।

पूर्वोक्त प्रावधानों को एक साथ पढ़ने से यह न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता है कि चालान के साथ एफएसएल रिपोर्ट दाखिल न करने से या तो चालान का उल्लंघन होता है या आवेदक डिफॉल्ट जमानत का हकदार हो जाता है। इस प्रकार, मैं उपरोक्त मामलों में राजस्थान, गुजरात और बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा लिए गए दृष्टिकोण से सहमत हूं और पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा लिए गए दृष्टिकोण से खुद को समझाने में असमर्थ हूं।

आवेदक के खिलाफ एनडीपीएस एक्ट की धारा 8/20 और मोटर वाहन अधिनियम की धारा 130 और धारा 177 (3) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था। सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत के लिए आवेदन पेश करते हुए उसने एकमात्र और महत्वपूर्ण सवाल यह उठाया था कि चालान जमा करते समय अभियोजन पक्ष कथित रूप से बरामद पदार्थ के संबंध में फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी की रिपोर्ट दर्ज नहीं कर सका और इस प्रकार वह धारा 167 (2) सीआरपीसी के तहत डिफॉल्ट जमानत का लाभ पाने का हकदार बन गया था।

आवेदक ने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि अपराध की प्रकृति को देखते हुए पूरा चालान निर्धारित अवधि के भीतर दायर किया जाना चाहिए था, और इसलिए अजीत सिंह उर्फ जीता और अन्‍य बनाम पंजाब राज्य और हरियाणा राज्य बनाम दिलदार राम @ दारी का संदर्भ देत हुए आवेदक ने तर्क दिया कि वह डिफॉल्ट जमानत का लाभ पाने का हकदार था।

उसने आगे कहा कि पदार्थ की प्रकृति के बारे में एफएसएल रिपोर्ट चालान का अविभाज्य हिस्सा है और चूंकि इसे वैधानिक समय सीमा के भीतर दायर नहीं किया गया था, इसलिए वह डिफॉल्ट जमानत के हकदार थे क्योंकि यह एक लागू करने योग्य अधिकार था जिसका वह लाभ लेने के योग्य थे।

रिकॉर्ड पर पार्टियों और दस्तावेजों की प्रस्तुतियों की जांच करते हुए, कोर्ट ने आवेदक द्वारा संदर्भित पी एंड एच हाईकोर्ट के निर्णयों के विश्लेषण के साथ आगे बढ़े। न्यायालय ने कहा कि हाईकोर्टों ने संबंधित विषय पर अलग-अलग विचार दिए हैं-

निस्संदेह, अजीत सिंह और दिलदारम (सुप्रा) के मामले में, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने इस आधार पर डिफॉल्ट जमानत का लाभ दिया है कि रासायनिक परीक्षक की रिपोर्ट एनडीपीएस अधिनियम के तहत जांच का एक आवश्यक, अभिन्न और अंतर्निहित हिस्सा है। यह एक आरोपी के दोष की नींव की तरह है जिसके बिना एक मजिस्ट्रेट एक राय बनाने में सक्षम नहीं होगा और उक्त अधिनियम के तहत अपराध के कमीशन में आरोपी की संलिप्तता का संज्ञान नहीं ले पाएगा।

पहली बार में उक्त दो निर्णयों पर आधारित तर्क आकर्षक प्रतीत होता है, लेकिन जब प्रासंगिक वैधानिक प्रावधानों और विभिन्न अन्य हाईकोर्टों द्वारा दिए गए निर्णयों की जांच की जाती है तो इसकी पूरी चमक खो जाती है।

न्यायालय ने उक्त विषय पर विभिन्न हाईकोर्टों के निर्णयों की छानबीन की, जिनमें से कुछ ने पी एंड एच हाईकोर्ट के निर्णयों पर विचार किया था, जिन पर आवेदक द्वारा भरोसा किया जा रहा था, लेकिन उसी से भिन्न दृष्टिकोण लिया था।

राजस्थान, गुजरात और बॉम्बे हाईकोर्ट जैसे अन्य हाईकोर्टों के तर्क के साथ सहमत होते हुए कोर्ट ने कहा कि धारा 173 (2), 173 (5) और 190 सीआरपीसी के तहत भाषा और तर्क को देखते हुए, वह खुद को पी एंड एच हाईकोर्ट द्वारा लिए गए विचार से राजी करने में असमर्थ है।

उपरोक्त टिप्पणियों के साथ अदालत ने आवेदक द्वारा उठाए गए तर्कों को खारिज कर दिया, और तदनुसार, उसका आवेदन खारिज कर दिया गया।

केस टाइटल: खिलन सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य

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