जुवनाइल जस्टिस एक्टः पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने पीठासीन अधिकारी को लगाई फटकार, कहा- जुवनाइल को‌ नियमित जमानत देना सामान्य

Update: 2020-07-15 14:47 GMT

Punjab & Haryana High Court

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने सोमवार को जुवनाइल जस्टिस बोर्ड के पीठासीन अधिकारी को फटकार लगाते हुए कहा कि न्यायिक अधिकारियों, जिन्हें "कल्याणकारी कानून" को प्रभावी बनाने का दाय‌ित्व सौंपा गया है, की "लापरवाह और मूर्खतापूर्ण कार्यशैली" ऐसे बोर्डों के गठन के उद्देश्य को विफल कर देती है।

हाईकोर्ट ने बोर्ड द्वारा एक नाबालिग को नियमित जमानत देने से इनकार करने पर नाराजगी जाहिर की, जबकि मामले में मुख्य आरोपी को भी बरी कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने संबंधित प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट की कार्यशैली के मानकों में सुधार के लिए आवश्यक उपचारात्मक कार्रवाई को भी आवश्यक माना।

कोर्ट के समक्ष, 17 साल के एक नाबालिग याचिकाकर्ता ने प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट, जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड, गुरदासपुर के दिनांक 18.03.2020 के आदेश के खिलाफ संशोधन दायर किया था, जिसमें उनकी जमानत अर्जी खारिज कर दी गई थी। याचिकाकर्ता व एक अन्‍य के खिलाफ अगस्त, 2019 में धारा 363, 366, 376, 506, 34, 120-बी आईपीसी और POCSO अधिनियम, 2012 की धारा 4 और 6 के तहत अपराध दर्ज किए गए थे।

अभियोजन पक्ष के अनुसार, 21.08.2019 को याचिकाकर्ता और सह-आरोपी ने अपने चेहरे को रूमाल से ढक कर पीड़िता का अपहरण किया था। याचिकाकर्ता पर आरोप लगाया गया था कि जब सह-आरोपी ने पीड़िता के साथ बलात्कार किया था, वह वहां पहरेदारी कर रहा था। याचिकाकर्ता को 30.08.2019 को गिरफ्तार किया गया था और तब से वह गुरदासपुर के विशेष गृह में ही कैद था। उसने जुवनाइल जस्टिस बोर्ड, गुरदासपुर के समक्ष नियमित जमानत के लिए आवेदन किया ‌था, जिसे 18.03.2020 को रद्द कर दिया गया।

हाईकोर्ट के जस्टिस संजय कुमार ने कहा कि याचिकाकर्ता का सह-अभियुक्त, जिसने कथित तौर पर वास्तविक अपराध किया था, के खिलाफ अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, गुरदासपुर के समक्ष ट्रायल चला था, और 03.03.2020 को दिए गए फैसले में उसे सभी आरोपों से, बरी कर दिया गया था।

पीठ ने कहा कि 2015 अधिनियम की धारा 8 के तहत निर्धारित बोर्ड की शक्तियां, कार्य और जिम्मेदारियां और धारा 12, जिसका संबंध कानून के साथ संघर्ष की ‌स्‍थ‌िति में बच्चे को जमानत से है, स्पष्ट करती है कि जुवनाइल जस्टिस बोर्ड को, कानून लागू करने में, बच्चे के हितों को ध्यान में रखना होगा।

पीठ ने कहा कि, 2015 अधिनियम की धारा 12 में यह स्पष्ट है कि कानून के साथ संघर्ष की स्‍थति में बच्चे को जमानत देना आदर्श होना चाहिए। ऐसी जमानत से तभी वंचित किया जा सकता है, जब रिहा होने के बाद बच्चे की अपने परिचित अपराधियों से जुड़ जाने की आशंका है, या उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरा है या न्याय का उद्देश्य विफल हो रहा है।

ज‌स्टिस कुमार ने प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट को लापरवाही से यह दर्ज करने के लिए फटकार लगाई कि यह मानने के उचित आधार हैं कि अगर याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा किया गया, तो वह अपने परिचित अपराधियों से जुड़ सकता है, या उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरा है.....।

मजिस्ट्रेट को "कानूनी प्रावधान के यांत्रिक पुनरुत्पादन" पर फटकार लगाते हुए, पीठ ने प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट के कृत्य को लिप सर्विस करार दिया। ज‌स्टिस कुमार ने अपने आदेश में यह कहते हुए कठोर शब्दावली का प्रयोग किया है कि "जुवनाइल ज‌स्टिस बोर्ड के मजिस्ट्रेट से देखभाल के इस स्तर या दृष्टिकोण की अपेक्षा नहीं थी।"

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