बच्चा कोई वस्तु नहीं है, माता-पिता की आय और बेहतर शिक्षा की संभावना कस्टडी तय करने का एकमात्र मानदंड नहीं: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 9 साल की एक बच्ची की गॉर्जियनशिप उसकी मां को प्रदान की है। जस्टिस गौतम भादुड़ी ने अपने फैसले में कहा, ऐसे मामलों का फैसला केवल कानूनी प्रावधानों की व्याख्या करके नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा, 'यह एक मानवीय समस्या है और इसे मानवीय स्पर्श से हल करना होगा।'
मौजूदा मामले में पिता ने एक फैसले के खिलाफ अपने बच्चे की कस्टडी की मांग करते हुए एक अपील दायर की। फैसले में उन्हें उसे मुलाक़ात के अधिकार से वंचित कर दिया गया था।
उन्होंने 2007 में शादी की और 2012 में उन्हें एक बच्चा हुआ। हालांकि, बिगड़ते रिश्ते के कारण बाद में पति और पत्नी आरोपों और अदालती मामलों में लिप्त हो गए। बच्चे की कस्टडी के लिए गार्जियन एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 की धारा 25 के तहत अर्जी दाखिल की गई।
कोर्ट ने गॉर्जियन की नियुक्ति और घोषणा की प्रक्रिया (धारा 7), गॉर्जियनशिप के आदेश के लिए आवेदन करने के हकदार व्यक्ति (धारा 8), और गॉर्जियनशिप की प्रक्रियाओं के निस्तारण के लिए कोर्ट के अधिकार क्षेत्र (धारा 9) का अध्ययन किया।
कोर्ट ने हिंदू माइनारिटी एंड गॉर्जियनशिप एक्ट, 1956 और परिभाषा से संबंधित संबंधित प्रावधानों (धारा 2), कौन प्राकृतिक अभिभावक हो सकता है (धारा 6), प्राकृतिक अभिभावक की शक्तियां (धारा 8), और नाबालिग के कल्याण ( धारा 13), आदि के पहुलओं का भी अध्ययन किया।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 26 में बच्चों की कस्टडी का प्रावधान है। कोर्ट ने कहा कि उक्त धारा घोषित करती है कि उक्त अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में, समय-समय पर, ऐसे अंतरिम आदेश, जो नाबालिग बच्चों की कस्टडी, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में उचित समझे, उनकी इच्छा के अनुरूप, जहां भी संभव हो, दिए जा सकते हैं।
यह ध्यान में रखते हुए कि 'बच्चे का कल्याण' उनकी कस्टडी तय करने में सर्वोपरि है, न कि किसी कानून के तहत माता-पिता के अधिकार। कोर्ट ने निल रतन कुंडू और अन्य बनाम अभिजीत कुंडू (2008) के मामले पर भरोसा किया, जहां यह माना गया था कि एक नाबालिग की कस्टडी के रूप में एक कठिन और जटिल प्रश्न का निर्णय करने में अदालत को प्रासंगिक कानून और अधिकार को ध्यान में रखना चाहिए।
इसलिए, कोर्ट ने माना कि जब माता-पिता परस्पर विरोधी मांगें करते हैं तो यह बच्चे का कल्याण ही है, जो प्रमुख मामला होना चाहिए; दोनों मांगों को उचित ठहराया जाना चाहिए और कानूनी आधार पर तय नहीं किया जा सकता है। इसने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 13 में प्रयुक्त 'कल्याण' शब्द का शाब्दिक अर्थ होना चाहिए और इसे इसके व्यापक अर्थों में लिया जाना चाहिए - जिसमें नैतिक, नैतिक और शारीरिक कल्याण शामिल है।
मुलाकात के अधिकार पर
अदालत ने माना कि बच्ची अपने पिता से डरी हुई थी और जब उसने उनसे बात करने से इनकार कर दिया तो उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया, यह पिता को मुलाकात के अधिकार से इनकार करने में निर्णायक कारक नहीं हो सकता।
अदालत ने यशिता साहू बनाम राजस्थान राज्य के मामले पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में, हिरासत की लड़ाई में हमेशा बच्चा ही शिकार होता है।
कोर्ट ने मामले में बच्चे के पिता और दादा-दादी दोनों को मुलाकात का अधिकार दिया।
केस टाइटल: निमिश एस अग्रवाल बनाम श्रीमती रूही अग्रवाल