(यौन शोषण) समय पर जांच से इनकार करना पीड़ित के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन, सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को पूर्व रॉ कर्मचारी को मुआवजा देने को कहा
रॉ की एक पूर्व कर्मचारी की यौन उत्पीड़न की शिकायत को 'उचित तरीके से हैंडल' नहीं करने पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी आपत्ति जताई है। सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों का हनन होने के कारण एक लाख रुपए का 'संवैधानिक मुआवजा' देने का निर्देश दिया है।
जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को यौन उत्पीड़न की शिकायत के बाद "असंवेदनशील और अनिच्छुक परिस्थितियों" का सामना करना पड़ा। संगठन ने विसाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य और अन्य में निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुरूप आंतरिक शिकायत समिति का गठन तीन महीने के बाद किया। समिति का निष्कर्ष था कि यौन उत्पीड़न के आरोप साबित नहीं किए जा सकते।
कोर्ट ने कहा,
"मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता की यौन उत्पीड़न की शिकायत को उचित तरीके हैंडल नहीं किया गया, जिसकी वजह से उन्हें अत्यधिक असंवेदनशील और अनिच्छुक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। शिकायत की जांच के नतीजों के बावजूद याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया गया। परिस्थितियों को समग्र रूप से देखने के बाद हमारा मत है कि याचिकाकर्ता को, जीवन और सम्मान के अधिकारों का उल्लंघन होने के कारण, मुआवजा के रूप मे एक लाख रुपए दिए जाएं।
याचिकाकर्ता ने अपने वरिष्ठों, संगठन के तत्कालीन प्रभारी सचिव अशोक चतुर्वेदी और तत्कालीन संयुक्त सचिव सुनील उके के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत की थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि आरोपित अधिकारियों ने उन्हें तेजी से प्रमोशन पाने के लिए संगठन के भीतर चल रहे सेक्स रैकेट में शामिल होने को कहा और इनकार करने पर उनका उत्पीड़न किया गया।
अदालत ने कहा कि यौन उत्पीड़न की शिकायत के जवाब में संगठन ने तीन महीने बाद शिकायत कमेटी का गठन किया, हालांकि उस कमेटी में विसाखा गाइडलाइंस के अनुसार, किसी तीसरे पक्ष, जैसे किसी एनजीओ के सदस्य या यौन उत्पीड़न के मुद्दे से वाकिफ किसी निकाय, को शामिल नहीं किया गया।
बाद में समिति का पुनर्गठन किया गया और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (NSCS)के निदेशक डॉ तारा करथा को शामिल किया गया। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सुनील उके के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप साबित नहीं हुए हैं।
कोर्ट ने कहा, इस दरमियान याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया, उनकी यौन उत्पीड़न की शिकायत के प्रति वरिष्ठों ने "प्रक्रियागत अज्ञानता" और "आकस्मिक रवैया" अपनाया। बेंच ने कहा कि याचिकाकर्ता की मनोवैज्ञानिक स्थिति पर "अनुचित तरीके से हमले" किए गए। यह स्पष्ट रूप से 'गरिमा के साथ जीवन के अधिकार' का उल्लंघन था।
कोर्ट ने कहा,
"कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के संबंध में कानून का दृष्टिकोण उत्पीड़न के वास्तविक कृत्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन स्थितियों को भी शामिल किया गया है, जिनके तहत महिला कर्मचारी को कार्यस्थल पर पक्षपातपूर्ण, शत्रुतापूर्ण, भेदभावपूर्ण और अपमानजनक रवैये का सामना करना पड़ता है।"
पीठ ने भारत सरकार को याचिकाकर्ता को शत्रुतापूर्ण माहौल में काम करने, शिकायत समिति के समक्ष समय पर प्रतिनिधित्व से वंचित करने, और सम्मान के साथ जीवन के अधिकार का उल्लंघन करने के लिए मुआवजा देने का आदेश दिया।
कोर्ट ने कहा,
"जब कानूनी मशीनरी निष्क्रियता या शिथिलता (जानबूझकर या किसी अन्य कारण से) बरतती है तो न केवल कानून की सहायता का व्यक्तिगत आग्रह दांव पर होता है, बल्कि कानून के शासन से संचालित समाज के मौलिक विश्वास भी दांव पर होते हैं, जिससे जनता के हितों को खतरा होता है।"
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता/याचिकाकर्ता के खिलाफ दिए गए रॉ के अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को बरकरार रखा।
मामले में रॉ (भर्ती, कैडर और सेवा) नियम, 1975 के नियम 135 की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी गई थी, जिसके तहत केंद्र सरकार को ऐसे रॉ कर्मचारियों की, जिनकी पहचान उजागर हो चुकी है, को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति देने का अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के अधिकारों को बरकरार रखते हुए कहा, "एक खुफिया अधिकारी की पहचान उजागर होना न केवल संगठन के लिए बल्कि संबंधित अधिकारी के लिए भी खतरनाक हो सकता है।"
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