प्रत्यक्ष तटस्थता के पहलू: क्या हम महिलाओं और उनकी पसंद का सम्मान करते हैं?
शिवानी विज
उत्तर प्रदेश में अंतर-धार्मिक विवाहों के खिलाफ बढ़ती असहिष्णुता के मध्य, प्रदेश की राज्यपाल द्वारा हाल ही में पारित किए गए धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश (विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020) के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। सेक्यूलरवाद की आधारशिला के रूप में, मुख्य रूप से, पसंद के धर्म के पालन और प्रचार की स्वतंत्रता के इर्दगिर्द ही तर्कों और आलोचनाओं को गढ़ा गया है और आकार दिया गया है। प्रदेश की विविधतापूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास की पृष्ठभूमि ने धर्म के तर्क को गति दी है, और मेरा मानना है कि 'कानून व्यवस्था' की आड़ में धर्म पर असंवैधानिक प्रतिबंध लगा रहे अध्यादेश को भ्रूण में ही खत्म किया जाना चाहिए। हालांकि, मैं और अधिक दृढ़ता से यह भी मानती हूं कि अध्यादेश 'धर्म' पर प्रत्यक्ष हमला करता है, और 'यौनिकता' पर परोक्ष हमला करता है और उसे प्रभावित करता है।
महिलाओं के धर्मांतरण पर कठोर दंड देने का नया कानून मानता है कि (क) पुरुषों के विपरीत महिलाएं, अरस्तूवादी अभिप्राय में अभिगम नहीं हैं और विवेकपूर्ण निर्णय लेने में असमर्थ हैं, विशेषकर शादी और धर्म के संबंध में। कार्यान्वयन में, विशेष रूप से, विवाह के मकसद से महिलाओं के धर्मांतरण सवाल उठाता है, (ख) कानून महिलाओं और शादी में पंसद का साथी के चुनाव पर निराशाजनक प्रभाव डालता है। यह दिल्ली और उत्तर प्रदेश की अदालतों में अब तक दर्ज मामलों से स्पष्ट है, जिनकी लेख में आगे चर्चा की गई है। इस प्रकार अध्यादेश, यौन भेद अर्थात् संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष असमान संरक्षण, के आधार पर संवैधानिक चुनौती का करण पैदा करता है।
क्या है कानून
अध्यादेश किसी अन्य धर्म में छलपूर्ण तरीकों, गलत बयानी, जबरदस्ती आदि या विवाह ( धारा 3, 5) द्वारा धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाता है और इसे दंडनीय अपराध बनाता है। यह धर्मांतरण के एकमात्र उद्देश्य से किए गए विवाह पर रोक लगाता है और विवाह के उद्देश्य से किए गए धर्मांतरण को भी गैरकानूनी मानता है और इस प्रकार के विवाह को रद्द करता है (धारा 6)। यह गैरकानूनी रूप से धर्मान्तरित और ऐसे व्यक्ति की सहायता करने, प्रेरित करने या परामर्श देने, ( धारा11) करने वाले को न्यूनतम एक वर्ष और अधिकतम पांच वर्ष की सजा का प्रावधान करता है।
मुख्य रूप से, अपराध लिंग-तटस्थ भाषा में है और यह प्रथम दृष्टया आभास देता है कि यह दोनों लिंगों पर समान रूप से लागू होता है। हालांकि, सजा के प्रावधान के सावधानीपूर्वक अवलोकन से पता चलता है कि महिलाओं के धर्मांतरण के लिए सजा ज्यादा है, यानी न्यूनतम दो साल से अधिकतम दस साल (धारा 5)। साथ ही बार-बार अपराध करने वालों के लिए सजा दोगुनी हो सकती है। इसके अलावा, कानून यह प्रावधान करता है कि धर्म परिवर्तन की घोषणा पहले राज्य प्रशासन के समक्ष की जाए। यहां, प्रावधान अन्य विवरणों के साथ पिता/पति के विवरण देना अनिवार्य करता है। (धारा 9 (3)) इसके अलावा, कानून किसी भी व्यक्ति को गैरकानूनी धर्मांतरण (धारा 4) के मामले में एफआईआर दर्ज कराने की अनुमति देता है, यदि वह रक्त, विवाह या गोद लेने के कारण धर्मांतरित व्यक्ति से संबंधित है। इस घोषणा को जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) के समक्ष धर्मांतरण की घोषण किए जाने के बाद 'किसी भी व्यक्ति' द्वारा आपत्ति दर्ज कराई जा सकती है।
ये प्रावधान नए कानून के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष निकालने में मदद करते हैं। पहला यह कि , महिलाओं के धर्म परिवर्तन और पिता/ पति के नाम के विशिष्ट प्रकटीकरण पर ज्यादा सजा कानून के लैंगिक विनियोग को दर्शाता है। और दूसरा यह कि धर्मांतरण के बाद विवाह पर आपत्ति जताने में परिवार की संलिप्तता, या उसके उलट, हालांकि तटस्थ प्रतीत होती है, लेकिन यह भारत में महिलाओं के लिए एक विशेष मामला बनाती है, जो अक्सर अपने निर्णय लेने के लिए खुद को एक पदानुक्रमित और पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचना में संघर्षरत पाती हैं।
मानक एजेंसी और अनुच्छेद 21
यह कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए, जिन्हें समाज में एक संवेदनशील समूह माना जाता है, कड़े और लैंगिक झुकाव वाले दंड प्रावधान को संभवतः एक उपाय के रूप में चित्रित करता है। इस तर्क का समर्थन किया जा सकता है कि अन्य कमजोर समूहों, जैसे अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए भी कड़ी सजा का प्रावधान रखा गया है। जो अध्यादेश का एक न्यायोचित उद्देश्य प्रतीत होता है, वह अन्यथा गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक आत्मनिरीक्षण है। वास्तव में ऐसा सामाजिक चिंतन बताता है कि महिलाएं खुद के बारे में निर्णय लेने में, विवाह के लिए अपना साथी चुनने में या अपने धर्म का पालन करने में कम सक्षम होती हैं। इस मोड़ पर मानव कृत्यों के अरस्तुवादी सिद्धांत पर चर्चा करना प्रासंगिक है जो 'एजेंसी' पर केंद्रित है।
एजेंसी, जैसा कि अरस्तू द्वारा परिभाषित किया गया है, का अर्थ है एक मूलभूत मानवीय गुण जो सभी मानव क्रियाओं को निर्देशित करता है। यह कार्य करने, तर्कपूर्ण निर्णय लेने, सोचने-समझने और चुनाव करने की क्षमता के अलावा कुछ भी नहीं है। 'नॉर्मेटिव एजेंसी' के सिद्धांत के आधार पर, ग्रिफिन ने मानवाधिकारों की अपनी धारणा का विकास किया है, जिसके अनुसार मानवाधिकार केवल वे अधिकार हैं जो इस एजेंसी को आगे बढ़ाने में सक्षम हैं, यानी पसंद और निर्णय लेने की क्षमता। इस धारणा से हालांकि बुनियादी मानवाधिकारों के अनुदान से कुछ को हटा दिया गया, विशेषकर महिलाओं को। प्रसिद्ध शिक्षाविद सैंड्रा फ्रेडमैन ने इसी कारण से अधिकारों के आधार के रूप में एजेंसी और स्वायत्तता (अरस्तू के अर्थ में) की आलोचना की है। वह बताती हैं कि चूंकि अरस्तू मानते हैं कि एजेंसी केवल तर्कसंगत प्राणियों के पास होती थे, इसलिए इसका इस्तेमाल महिलाओं को बाहर करने और परिवार और राज्य में उन्हें आश्रित ठहराने के लिए किया गया था (सैंड्रा फ्रेडमैन, 'तुलनात्मक मानवाधिकार कानून' (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 2019)। महिलाओं के पास तर्क की असमान प्रवृत्ति मानी जाती था। यही कारण था कि अमेरिका में 1920 के दशक तक महिलाओं को मतदान से विमुख रखा गया था और अश्वेत पुरुषों को वोट का अधिकार दिए जाने के काफी बाद उन्हें वोट का हक दिया गया। और यही कारण है कि भारत में महिलाओं की पसंद को संपत्ति के विभाजन से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए कम प्रासंगिक माना जाता है या यहां तक कि शादी और धर्म के बारे में उनके निर्णय महत्वपूर्ण नहीं माने जाते हैं। अफसोसजनक और प्रतिगामी रूप से, धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है।
सभी को एक फ्रेम में रखने के लिए, अध्यादेश शादी के उद्देश्य के लिए धर्मांतरण को प्रतिबंधित करता है और महिलाओं के धर्म परिवर्तन को एक कठोर अपराध के रूप में देखता है। ऐसा करके यह शादी में साथी चुनने के उनके अधिकार पर रोक लगाता है और धर्म को उनकी पसंद को प्रभावित करने वाला मापदंड बनाता है। अफसोस की बात है कि यह जोसेफ शाइन में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद है, जहां परिस्थितियों के अनुसार अदालत ने विशेष रूप से महिलाओं की व्यक्तिगत पसंद को अनुच्छेद 21 के तहत कानूनी मान्यता प्रदान की है।
असमान प्रभाव और अनुच्छेद 14
अध्यादेश लागू होने के बाद से धर्मांतरण के आरोप में गिरफ्तारी के कई मामले, जिसमें सहमति नहीं होने का बहाना दिया गया है कोर्ट तक पहुंचे हैं। बढ़ी हुई मुकदमेबाजी भी मामले को संज्ञेय और गैर-जमानती बनाने का भी नतीजा है। कानून के तहत धर्मांतरण के इच्छुक व्यक्ति पर सहमति का प्रमाण देना के बोझ है। इसके अलावा, यह संयोग नहीं है कि नए कानून के तहत अधिकांश मामलों को दुल्हन के परिवार द्वारा शुरू किया गया है, धर्म से बाहर शादी करने पर आपत्ति की गई है और महिला की सहमति के अभाव को आधार बनाया गया है।
नदीम बनाम यूपी राज्य मामले में मुस्लिम पति के खिलाफ उसकी हिंदू पत्नी के परिवार द्वारा गैरकानूनी धर्मांतरण के आरोप में शिकायत दर्ज की गई थी। यह देखते हुए कि जबरदस्ती के कोई सबूत मौजूद नहीं थे और यह शिकायत केवल संदेह पर आधारित थी, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तुरंत पति को गिरफ्तारी से बचाया और पुट्टास्वामी का हवाला देकर दोहराया कि निजता के अधिकार के तहत रिश्ते का अधिकार शामिल है।
न्यायालय ने उचित टिप्पणी की कि एक वयस्क महिला अपनी भलाई के बारे में जानती है और उसके संबंध और उसकी स्वायत्तता और एजेंसी के परिणामों का सम्मान किया जाना चाहिए। इसी तरह का मामला शिखर बनाम यूपी राज्य का भी था, जहां उच्च न्यायालय ने माना कि एक वयस्क महिला अपने पति को चुनने और उसके साथ रहने के लिए स्वतंत्र है और इस तरह के विकल्प में किसी तीसरे पक्ष द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। सिमरन सागर के एक ऐसे ही मामले में एक अंतर-धार्मिक दंपत्ति जो अध्यादेश के तहत उपद्रवियों द्वारा उत्पीड़न और गिरफ्तारी के डर से भाग गई थी, ने दिल्ली उच्च न्यायालय से पुलिस सुरक्षा मांगी।
अदालत ने न केवल दंपति को सुरक्षा प्रदान की, बल्कि उनकी शादी के फैसले में हस्तक्षेप या बाधा नहीं डालने का महिला के पिता को निर्देश भी दिया। ये कुछ मामलों के उदाहरण हैं जो अदालत में पहुंचे, यह बताया गया है कि नए कानून के तहत दर्ज 14 मामलों में से 13 मामलों में महिलाओं के धर्मांतरण से संबंधित हैं, जिनमें से 12 परिजनों द्वारा दायर किए गए थे (संदर्भ: इंडियन एक्सप्रेस )। नया कानून इस प्रकार असंगत रूप से माहिलाओं पर लागू होता है है और परिवार और/ या सतर्कता समूहों के इशारे पर उनकी पसंद पर उठाता है।
यह कहते हुए कि, हमारे न्यायालय असमान (गैरआनुपातिक) प्रभाव पर समानता कानून न्यायशास्त्र लागू करने में निपुण हैं, जिसे विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर में मान्यता दी थी। माननीय न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के शब्दों में, "राज्य द्वारा प्रत्यक्षतः तटस्थ कार्रवाई का एक विशेष वर्ग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है" और इसलिए असमानता हो सकती है। अदालत ने ईयू (निर्देश 2006/54 / EC) से कानून का हवाला भी दिया जो एक निष्पक्ष प्रावधान के कारण हुए भेदभाव को अप्रत्यक्ष भेदभाव के रूप में परिभाषित करता है, जो एक लिंग के व्यक्तियों को दूसरे की तुलना में विशेष नुकसान की स्थिति में डालता है। यह एक समूह के संघ के आधार पर एक व्यक्ति की व्यक्तिगत विशेषताओं के कारण होता है (एंड्रयूज बनाम ब्रिटिश कोलंबिया (कनाडा)) । इस प्रकार, उद्देश्य न केवल इस भेदभाव को रोकना होना चाहिए, बल्कि उन प्रथाओं को भी शामिल करना चाहिए जो क्रियान्यवयन में भेदभावपूर्ण हैं (ग्रिग्स बनाम ड्यूक पावर (यूएस)।
निष्कर्ष यह है कि एक ऐसा कानून जो विवाह और धर्म के व्यक्तिगत पसंद पर सवाल उठाता है और महिला की पसंद पर परिवार की पसंद को गैरआनुपातिक रूप से तवज्जों देता है, और अकेले इसी आधार पर चुनौती आमंत्रित करता है। इस प्रकार, यद्यपि धर्म और निजता पर कानून के प्रभाव को अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है, लेकिन इसका 'सेक्स' और इसके सामाजिक निर्माण पर इसका प्रभाव एक समान रूप से शक्तिशाली है। परिवार और विवाह में पदानुक्रम पर पनपने वाले समाज में, समानता केवल औपचारिक और सतही नहीं होनी चाहिए, लेकिन महिला के आसपास के सामाजिक कारकों को ध्यान में रखते हुए, सार्थक होनी चाहिए।
अध्यादेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष अनिल कुमार यादव द्वारा दायर एक जनहित याचिका में संवैधानिक चुनौती दी गई है और 07 जनवरी 2021 को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है; मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की सरकारों ने फिर भी अपने राज्यों में समान कानून लागू करने के लिए कमर कस ली है।
जैसा भी हो, तब तक, हमें पता होना चाहिए कि महिलाओं का धर्मांतरण परिवार और समाज के लिए इतना हानिकारक क्यों है और इस तरह एक कठोर सजा का औचित्य क्या है? क्या यह कहना, इससे अलग है कि महिलाएं परिवार की गरिमा और सम्मान का निर्माण करती हैं और उनकी रक्षा की जानी चाहिए? क्या यह पुरुषों की तुलना में परिवार और विवाह में उन्हें पसंद का कम अधिकार देने के समान नहीं है? क्या यह समाज में महिलाओं के रूप में विद्यमान पदानुक्रमित संरचनाओं और शक्ति असंतुलन को सुदृढ़ और वास्तविक नहीं बनाता है? क्या यह हमें हमारी लैंगिकता की योनि तक सीमित नहीं करता है? क्या यह लैंगिक आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से भेदभाव नहीं करता है?
लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
(लेखक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में बैचलर ऑफ सिविल लॉज (BCL) की कैंडिडेट हैं)