'विवादित प्रमाणपत्र रद्द न किए जाने पर उम्मीदवार को सेवा से बर्खास्त नहीं किया जा सकता': पटना हाईकोर्ट ने बर्खास्तगी आदेश खारिज किया

Update: 2024-11-23 13:25 GMT

पटना हाईकोर्ट की जस्टिस पी.बी. बजंथरी और जस्टिस एस.बी. पीडी. सिंह की खंडपीठ ने बर्खास्तगी आदेश खारिज करते हुए कहा कि जब तक विवादित प्रमाणपत्रों को रद्द नहीं किया जाता, तब तक अधिकारी अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं कर सकते या बर्खास्तगी आदेश के रूप में दंड नहीं लगा सकते।

मामले की पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता को बिहार लोक सेवा आयोग के तहत 23.06.1987 को बिहार में असिस्टेंट इंजीनियर के रूप में नियुक्त किया गया। उनके पिता उत्तर प्रदेश के थे, लेकिन वे बिहार राज्य में तैनात थे। अपीलकर्ता ने दावा किया कि वह 'चमार' जाति से हैं। इस प्रकार उनकी उम्मीदवारी अनुसूचित जाति श्रेणी में आती है। उन्होंने 3 सितंबर 2014 को बिहार में आवासीय प्रमाण पत्र और 04 सितंबर 2014 को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र प्राप्त किया, जिससे वह मौद्रिक लाभों सहित सेवा लाभ उठा सकें।

बाद में 2017 में अधिकारियों ने पाया कि अपीलकर्ता बिहार का स्थायी निवासी नहीं था। इस प्रकार उसके द्वारा प्राप्त प्रमाण पत्र कानून के अनुसार नहीं थे। अपीलकर्ता के खिलाफ विभागीय जांच शुरू की गई और पाया गया कि प्रमाण पत्र झूठे थे।

हालांकि, बिहार राज्य सरकार द्वारा अधिनियमित बिहार पदों और सेवाओं में रिक्तियों का आरक्षण (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए) अधिनियम 1991 नामक कानून के अनुसार, ऐसा कोई प्रावधान नहीं था, जिसके द्वारा सरकारी कर्मचारी द्वारा प्राप्त जाति प्रमाण पत्र को रद्द किया जा सके। इस प्रकार, अपीलकर्ता के निवास प्रमाण पत्र के साथ-साथ अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र भी रद्द नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार प्रतिवादियों ने अपीलकर्ता के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की और उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया। अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट की एकल पीठ का दरवाजा खटखटाया, जिसमें दिनांक 08.10.2021 के आदेश के आधार पर उसकी याचिका खारिज कर दी गई।

इससे व्यथित होकर अपीलकर्ता ने अपील दायर की।

न्यायालय के निष्कर्ष:

न्यायालय ने पाया कि कुमारी माधुरी पाटिल एवं अन्य बनाम अपर आयुक्त, आदिवासी विकास एवं अन्य (1994) 6 एससीसी 241 में पारित निर्णय के अनुसार अपीलकर्ता को सेवा से बर्खास्त करने से पहले प्रमाणपत्र रद्द नहीं किए गए। इसके अलावा, यहां तक ​​कि जाति प्रमाण पत्र सत्यापन भी अधिकारियों के समक्ष लंबित था, रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा था। आगे कोई कार्रवाई नहीं की गई।

न्यायालय ने एकल न्यायाधीश के निर्णय पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा कि यदि 03.09.2014 का जाति प्रमाण पत्र रद्द नहीं किया गया होता तो सेवा से बर्खास्तगी का दंड लगाना समय से पहले होगा।

बिहार पदों एवं सेवाओं में रिक्तियों का आरक्षण (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए) अधिनियम 1991 की धारा 15 के तहत नियमों का हवाला देते हुए न्यायालय ने माना कि नियम बनने के बाद राज्य सरकार के लिए विवादित प्रमाण पत्र रद्द करने के लिए सक्षम प्राधिकारी की पहचान करना अनिवार्य हो गया।

यह देखा गया कि सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों के अनुसार, यदि किसी प्रमाण पत्र रद्द करने की आवश्यकता होती है तो राज्य सरकार को जाति प्रमाण पत्र के सत्यापन और रद्द करने के लिए एक समिति का गठन करना चाहिए था। समिति का नेतृत्व जिला मजिस्ट्रेट करेंगे।

न्यायालय ने आगे कहा कि अपीलकर्ता के खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू करने से पहले अधिकारियों को यह स्थापित करना चाहिए था कि प्रमाण पत्र प्राप्त करने में अपीलकर्ता ने खुद को गलत तरीके से प्रस्तुत किया, जो कदाचार के बराबर था, जिसके परिणामस्वरूप बिहार सी.सी.ए. नियम, 2005 के अनुसार सेवा से बर्खास्तगी का आधार प्रस्तुत किया गया।

इसके अलावा, न्यायालय ने समन्वय पीठ के दिनांक 06.02.2023 के आदेश का अवलोकन किया और निष्कर्ष निकाला कि प्रमाणपत्रों को रद्द न किए जाने के बावजूद अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करना और सेवा से बर्खास्तगी का दंड लगाना स्पष्ट रूप से अपरिपक्व था।

इन टिप्पणियों के साथ बर्खास्तगी के आदेश के साथ-साथ एकल न्यायाधीश का आदेश भी रद्द कर दिया गया।

न्यायालय ने जाति प्रमाण-पत्र रद्द करने और उसके बाद सेवा से बर्खास्तगी से संबंधित कई निर्णयों पर भरोसा किया। इनमें से कुछ निर्णयों में कुमारी माधुरी पाटिल और अन्य बनाम अपर आयुक्त, आदिवासी विकास और अन्य (1994) 6 एससीसी 241, डाकघर अधीक्षक और अन्य बनाम आर. वलसीना बाबू 2006 एससीसी ऑनलाइन एससी 1412 और भुवनेश्वर विकास प्राधिकरण बनाम मधुमिता दास और अन्य 2023 एससीसी ऑनलाइन एससी 977 शामिल हैं।

निर्णयों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कुछ मुख्य बिंदुओं को रेखांकित किया:

1. इरादा महत्वहीन है।

2. सुरक्षा करना सुशासन के लिए हानिकारक है।

3. जांच समिति का आदेश अंतिम है।

4. शैक्षणिक संस्थान या नियुक्ति प्राधिकारी को सूचित करें।

5. प्रमाण-पत्र का सत्यापन।

इन बिंदुओं पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने माना कि प्रमाण-पत्र रद्द न किए जाने की स्थिति में न तो विभागीय कार्यवाही शुरू की जा सकती है और न ही अधिकारी जुर्माना लगा सकते हैं।

इन टिप्पणियों को करते हुए न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि बर्खास्तगी का आदेश समय से पहले दिया गया।

परिणामस्वरूप, न्यायालय ने प्रतिवादियों को आदेश प्राप्त होने के छह महीने के भीतर दोनों प्रमाणपत्रों को रद्द करने के लिए कार्रवाई करने का निर्देश दिया। इसने देखा कि यदि अधिकारी प्रमाणपत्रों को रद्द करने में असमर्थ थे तो अपीलकर्ता के खिलाफ कोई भी कार्रवाई समाप्त कर दी जाएगी।

इसके अतिरिक्त, प्रतिवादियों को छह महीने की अवधि के बाद तीन महीने के भीतर वेतन निर्धारण सहित अपीलकर्ता के लिए सभी देय मौद्रिक और सेवा लाभों का निपटान करने का निर्देश दिया गया।

केस टाइटल: राजीव नंदन मौर्य बनाम बिहार राज्य और अन्य

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