महिला की वैवाहिक स्थिति उसके बच्चे को गोद देने के लिए निर्णायक कारक नहीं हो सकती: मद्रास हाइकोर्ट
मद्रास हाइकोर्ट ने कहा कि किसी महिला की वैवाहिक स्थिति उसके बच्चे को गोद देने पर विचार करते समय निर्णायक कारक नहीं होनी चाहिए।
जस्टिस जीआर स्वामीनाथन ने हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 9(2) के प्रावधान पर गौर कियाजिसके अनुसार गोद दिए जाने वाले बच्चे के माता/पिता की अनुपस्थिति में दूसरे माता-पिता की सहमति लागू नहीं होगी।
अदालत ने कहा,
“अंतर्निहित धारणा यह है कि 18 वर्ष से अधिक आयु की अविवाहित महिला अपने जैविक बच्चे को गोद नहीं दे सकती। महिला की वैवाहिक स्थिति निर्णायक कारक नहीं हो सकत यह संभव है कि बच्चा लिव-इन रिलेशनशिप या अवैध अंतरंगता के कारण पैदा हो। बच्चे के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए मां बच्चे को गोद देना चाहती है। पिता ने अपने बच्चे को छोड़ दिया होगा। वह जिम्मेदारी लेने के लिए मौजूद नहीं हो सकता है।”
अदालत पत्रकार की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें पंजीकरण प्राधिकरण द्वारा गोद लेने के कार्य को पंजीकृत करने से इनकार करने को चुनौती दी गई।
याचिकाकर्ता अशोक कुमार चाहते हैं कि तीन वर्षीय लड़के "ए" को गोद लिया जाए, जो "के" से पैदा हुआ था जो गर्भधारण के समय नाबालिग है और बच्चे को गोद देना चाहती है।
प्राधिकरण ने याचिका पर आपत्ति जताई और कहा कि पंजीकरण को सही तरीके से खारिज किया गया, क्योंकि जैविक पिता की सहमति नहीं है।
अदालत ने कहा कि दोनों पक्ष हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम से बंधे हुए हैं, जिसमें "के" हिंदू है और बच्चे "ए" का पालन-पोषण हिंदू के रूप में करता है। अदालत ने कहा कि अधिनियम के अनुसार एक पिता या माता अपने बच्चे को अन्य माता-पिता की सहमति के बिना गोद देने के अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते, जब तक कि माता-पिता में से एक ने पूरी तरह से और अंततः दुनिया को त्याग नहीं दिया हो या हिंदू नहीं रहा हो।
न्यायालय ने यह भी कहा कि हिंदू अल्पवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम की धारा 6(बी) के अनुसार, मां नाजायज नाबालिग लड़के या नाजायज अविवाहित लड़की की स्वाभाविक संरक्षक होती है। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि “के” अपने जैविक बच्चे को गोद देने के लिए सक्षम है।
गीता हरिहरन बनाम आरबीआई में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने कहा कि हिंदू अल्पवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम की धारा 6(ए) में आने वाले “बाद” शब्द का अर्थ अनिवार्य रूप से “जीवनपर्यंत बाद” नहीं है, बल्कि इसका अर्थ नाबालिग की संपत्ति या व्यक्ति की देखभाल से “अनुपस्थिति” है।
न्यायालय ने कहा कि जब पिता नाबालिग के मामले में पूरी तरह से उदासीन हो और मां विशेष रूप से प्रभारी हो तो पिता को अनुपस्थित माना जा सकता है जैसा कि वर्तमान मामले में था। न्यायालय ने इस प्रकार कहा कि “के” से जैविक पिता की सहमति प्राप्त करने के लिए कहना उचित नहीं होगा।
इस प्रकार न्यायालय ने प्राधिकरण के आदेश को रद्द कर दिया और उसे अन्य औपचारिकताओं की पूर्ति के अधीन पुनः प्रस्तुतीकरण पर दत्तक-पत्र पंजीकृत करने का निर्देश दिया।
केस टाइटल- अशोक कुमार बनाम महानिरीक्षक पंजीकरण और अन्य