क्या पुलिस द्वारा दायर चार्जशीट को तकनीकी कारणों से मजिस्ट्रेट द्वारा लौटाया जाता है, तब भी आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत का अधिकार प्राप्त होगा?
अचपाल @ रामस्वरूप और अन्य बनाम राजस्थान राज्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल पर विचार किया कि क्या यदि 90 दिन की निर्धारित अवधि में जांच पूरी नहीं होती है, तो आरोपी को जमानत (Bail) दी जा सकती है। इस लेख में अदालत द्वारा कानून की व्याख्या, प्रमुख न्यायिक फैसले (Judicial Precedents), और इस मामले में आरोपी के जमानत के अधिकार (Right to Bail) के मुद्दे पर चर्चा की जाएगी, खासकर जब जांच कानूनी समय सीमा से अधिक हो जाती है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के प्रावधान (Provisions of Section 167(2) of the CrPC)
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167(2) के तहत, जब कोई आरोपी हिरासत में होता है, तो जांच पूरी करने के लिए एक समय सीमा निर्धारित की गई है। गंभीर अपराधों के लिए, जिनकी सजा मृत्यु या आजीवन कारावास हो सकती है, जांच 90 दिनों के भीतर पूरी होनी चाहिए।
अन्य अपराधों के लिए यह समय सीमा 60 दिन है। यदि इस समय सीमा के भीतर जांच पूरी नहीं होती, तो आरोपी को जमानत पाने का "अवधारणा के अनुसार अटल अधिकार" (Indefeasible Right) मिल जाता है, बशर्ते कि वह आवश्यक जमानत भरने को तैयार हो।
इस मामले में, अभियुक्त 90 दिनों से अधिक समय से हिरासत में थे, लेकिन आरोप पत्र (Charge-sheet) एक उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार दाखिल नहीं किया गया था। इसने यह सवाल उठाया कि क्या अभियुक्त को देरी के कारण डिफ़ॉल्ट जमानत (Default Bail) मिलनी चाहिए।
समय पर जांच और न्यायिक देखरेख का महत्व (Importance of Timely Investigation and Judicial Oversight)
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को दोहराया कि समय पर जांच पूरी करना आरोपी के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अदालत ने उदय मोहनलाल आचार्य बनाम महाराष्ट्र राज्य के ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था कि 90 या 60 दिनों की निर्धारित अवधि के समाप्त होते ही, यदि जांच पूरी नहीं होती है, तो आरोपी जमानत पाने का हकदार हो जाता है।
अदालत ने यह भी कहा कि यह अधिकार (Right) एक कानूनी सुरक्षा उपाय (Statutory Safeguard) है, जिसे आपराधिक प्रक्रियाओं में अनावश्यक देरी को रोकने और यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है कि आरोपी को अनिश्चितकाल तक हिरासत में नहीं रखा जा सके। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इन सिद्धांतों को लागू किया और पाया कि 90 दिनों के भीतर जांच पूरी नहीं हुई थी।
पूर्व के निर्णय और कानूनी सिद्धांत (Previous Judgments and Legal Principles)
सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला दिया ताकि अपने निर्णय को मजबूती दी जा सके। हितेंद्र विष्णु ठाकुर बनाम महाराष्ट्र राज्य में अदालत ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि यदि निर्धारित समय सीमा में जांच पूरी नहीं होती है, तो आरोपी को स्वचालित रूप से जमानत पाने का अधिकार मिल जाता है।
इसी प्रकार संजय दत्त बनाम राज्य (CBI) में अदालत ने स्पष्ट किया कि जैसे ही निर्धारित समय सीमा समाप्त होती है, आरोपी का डिफ़ॉल्ट जमानत का अधिकार सक्रिय हो जाता है और इसके लिए किसी अतिरिक्त न्यायिक विवेकाधिकार (Judicial Discretion) की आवश्यकता नहीं होती।
अदालत ने राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य मामले का भी हवाला दिया, जहां यह कहा गया था कि यदि जांच निर्धारित समय सीमा के भीतर पूरी नहीं होती है, तो आरोपी का जमानत का अधिकार पूर्ण और अटल (Absolute) है, जिसे तब तक नकारा नहीं जा सकता जब तक कि वह जमानत भरने से इनकार न करे।
मुख्य मुद्दा: आरोपी का डिफ़ॉल्ट जमानत का अधिकार (Fundamental Issue: The Accused's Right to Default Bail)
इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या अभियुक्त 90 दिनों के भीतर जांच पूरी न होने के कारण धारा 167(2) के तहत जमानत पाने के हकदार थे। अदालत ने यह माना कि आरोप पत्र अधूरा था और अदालत के पूर्व आदेश का पालन नहीं किया गया था, जिससे अभियुक्तों का डिफ़ॉल्ट जमानत का अधिकार सक्रिय हो गया।
अदालत ने यह तर्क अस्वीकार कर दिया कि उच्च न्यायालय का पूर्व आदेश जांच पूरी करने की समय सीमा बढ़ाने के रूप में समझा जा सकता है। CrPC की धारा 167(2) के तहत जांच पूरी करने की समय सीमा को बढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं है, जब तक कि विशेष कानून, जैसे महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA), समय सीमा बढ़ाने की अनुमति न दें। इस मामले में, समय सीमा बढ़ाने का कोई कानूनी आधार नहीं था।
अपने निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को दोहराया कि यदि जांच निर्धारित समय सीमा के भीतर पूरी नहीं होती है, तो आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत पाने का अधिकार मिल जाता है, जैसा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) में निर्धारित है। अदालत ने यह भी कहा कि यह अधिकार यह सुनिश्चित करने के लिए है कि आरोपी को बिना मुकदमे के अनिश्चितकाल तक हिरासत में न रखा जा सके और न्याय समय पर सुनिश्चित हो।
अचपाल @ रामस्वरूप बनाम राजस्थान राज्य के फैसले ने इस बात को और मजबूत किया कि न्यायिक देखरेख (Judicial Oversight) आरोपी के अधिकारों की रक्षा के लिए कितनी महत्वपूर्ण है और यह सुनिश्चित करता है कि जांच समयबद्ध तरीके से हो। अदालत का निर्णय CrPC के तहत आरोपी को दिए गए कानूनी संरक्षण (Legal Protection) को और भी मजबूत करता है, ताकि जांच में देरी या प्रशासनिक लापरवाही के कारण न्याय में देरी या इनकार न हो।