सीआरपीसी : जानिए निर्णय (Judgement) क्या होता है और कैसे लिखा जाता है

Update: 2020-07-19 16:01 GMT

साधारण तौर पर निर्णय (Judgement)से आशय किसी विवाद के तथ्यों पर कोई निष्कर्ष से लगाया जाता है। भारतीय दंड प्रणाली के अंतर्गत किसी व्यक्ति का विचारण करने के उपरांत उस पर निर्णय दिया जाता। इसके अंदर अभियुक्त जिसका विचारण किया गया था या तो दोषसिद्ध होता है या फिर दोषमुक्त होता है।

न्यायालय अपने समक्ष विचारण के लिए प्रेषित अभियुक्त के दोषी होने या निर्दोष होने के बारे में अपना निर्णय देता है। यदि अभियुक्त दोषी पाया जाता है तो उसके दंड का निर्धारण करना तथा उसे युक्तिसंगत निर्णय के रूप में अभिलिखित करना न्यायालय का काम होता है।

किसी भी विचारण को सुनने के बाद तुरंत निर्णय देना होता है अतः न्यायालय विचारण के बाद अधिक समय निर्णय के लिए नहीं लेता है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 353 के अंतर्गत (Section 353 in The Code Of Criminal Procedure, 1973)

दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 353 निर्णय (Judgement) के संदर्भ में संपूर्ण और विस्तारपूर्वक जानकारी देती है। इस धारा के अधीन निर्णय किए जाने की रीति तथा धारा 354 के अधीन निर्णय में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा और उसकी अंतर्वस्तु के बारे में उपबंध दिए गए है। निर्णय अध्याय की दो धाराएं धारा 353 धारा 354 सर्वाधिक महत्वपूर्ण धाराएं हैं।

यदि इन दो धाराओं को समझ लिया जाए तो निर्णय की रीति को भी समझा जा सकता है तथा निर्णय की अंतर्वस्तु को भी समझा जा सकता है। राम अवतार ठाकुर बनाम बिहार राज्य एआईआर 1957 पटना 23 के मामले में कहा गया कि उस न्यायालय की अभिव्यक्ति को निर्णय कहा जाता है, जिसको वह मामले के प्रस्तुत साक्ष्यों के विचारण के पश्चात युक्तिसंगत रीति से प्रस्तुत करता है।

रघुवंश प्रसाद बनाम राज्य एआईआर 1961 पटना 397 के मामले में कहा गया है कि आपराधिक कार्यवाही में अंतिम निर्णय को दोषसिद्धि या दोषमुक्ति के रुप में होना आवश्यक है। भारतीय आपराधिक विधि की प्रक्रिया विधि दंड प्रक्रिया संहिता 1973 ही है तथा इस संहिता की धारा 353 के अंतर्गत जो निर्णय दिया जाता है उसमें दोषसिद्धि या दोषमुक्ति आवश्यक रूप से होना चाहिए। किसी भी विचारण की मंज़िल निर्णय होता है और निर्णय की मंजिल दोषमुक्ति या दोषसिद्धि होती है।

नागेश्वर श्री कृष्ण घोवे बनाम महाराष्ट्र राज्य एआईआर 1973 उच्चतम न्यायालय 165 के मामले में कहा गया है कि निर्णय लिखते समय न्यायाधीश को अपनी राय संगत भाषा में व्यक्त करनी चाहिए तथा न्यायिक संयम बरतते हुए किसी प्रकार की व्यक्तिगत राय व्यक्त करने से बचना चाहिए। निर्णय में किसी भी न्यायाधीश का अपना व्यक्तिगत विचार नहीं होता है।

उच्चतम न्यायालय ने जगवीर सिंह बनाम दिल्ली राज्य के वाद में कहा कि सुनवाई के दौरान जो कुछ हुआ उसका ब्यौरा यदि निर्णय में अभिलिखित हो तो यह आत्यंतिक होगा और इसका शपथ पत्र या अन्य साक्ष्य के द्वारा खंडन नहीं किया जा सकेगा।

यदि कोई पक्षकार यह अनुभव करता है कि न्यायालय की कार्यवाही को निर्णय में गलत रिकॉर्ड किया गया है इस और संबंधित न्यायालय का ध्यान आकर्षित कर सकता है और रिकॉर्ड को सही कराने का यही एकमात्र तरीका पक्षकार को उपलब्ध होगा।

प्रस्तुत वाद में भारतीय दंड संहिता की धारा 342, 365, 330 और धारा 34 के साथ अपराध के लिए दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था। अपील के निर्णय में कहा गया था कि अपील केवल दंड की मात्रा से संबंधित थी जबकि पक्षकार ने ऐसे किसी दंड लघुकरण की मांग नहीं की थी। उच्चतम न्यायालय ने अपील खारिज करते हुए अभिकथन किया कि अपील के निर्णय में रिकॉर्ड किए गए तथ्य अखण्डनीय होने के कारण आत्यंतिक थे इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।

निर्णय की अंतर्वस्तु धारा (354)

निर्णय देने के संबंध में धारा 354 दंड प्रक्रिया संहिता निर्णय की भाषा और उसकी अंतर्वस्तु का उल्लेख करती है। इस धारा से आशय यह है कि निर्णय का मटेरियल क्या होगा! निर्णय में किन चीजों का उल्लेख होगा। इस धारा में निर्णय की भाषा तथा अंतर्वस्तु के बारे में विस्तारपूर्वक उपबंध दिए गए हैं। कोई भी विचारण का निर्णय धारा 353 के अंतर्गत दिया जाता है और उस दिए गए निर्णय की अंतर्वस्तु का उल्लेख धारा 354 के अंतर्गत किया गया है।

धारा 354 के उपबंध आज्ञापक प्रकृति के है अतः प्रत्येक निर्णय की अंतर्वस्तु से संबंधित इन सभी बातों का समावेश आवश्यक होगा अन्यथा निर्णय अवैध होगा।

मध्य प्रदेश राज्य बनाम मुन्ना चौबे एआईआर 2005 उच्चतम न्यायालय 682 के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने धारा 354 के संदर्भ में अभिकथन किया कि अभियुक्त के दोषसिद्ध होने पर उसे उचित दंड दिए जाना चाहिए अथवा दंड को लघु किए जाने के पूर्व विचारण न्यायालय को सुसंगत कारकों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए।

प्रस्तुत वाद में अभियुक्त को बलात्कार के अपराध के लिए दोषसिद्ध करके भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में विनिर्दिष्ट न्यूनतम दंड से कम दंड केवल इस आधार पर दिया गया कि अभियुक्त ग्रामीण युवक था।

अपील में उच्च न्यायालय ने इस आधार को अपर्याप्त अनुचित मानते हुए अभिनिर्धारित किया की धारा 354 के उपबंध को लागू किए जाने हेतु निर्णय में दर्शाए गए कारण विशेष होने चाहिए न की कपोल कल्पित। किसी व्यक्ति के ग्रामीण होने और अशिक्षित होने पर उसका दंड यदि लघु किया है तो उसके विशेष कारण दर्शाए जाए।

न्यायालय ने कहा कि बलात्कार डकैती अपहरण जैसे अनैतिकता से जुड़े अपराधों के लिए अभियुक्त को दंडित करते समय न्यायालय को इन अपराधों का सामाजिक व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव की ओर ध्यान देना चाहिए। अभियुक्त के प्रति अनावश्यक सहानुभूति से बचना चाहिए।

न्यायालय की भाषा (Language of Courts)

कोई भी निर्णय न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा। न्यायालय की भाषा वह होती है जिसे दंड प्रकिया सहिंता की धारा 272 के अंतर्गत राज्य सरकार द्वारा न्यायालय की भाषा के तौर पर घोषित किया जाता है। यह निर्णय जो धारा 353 के अंतर्गत दिया जाता है या आरंभिक अधिकारिकता के न्यायालय में होने वाले प्रत्येक विचारण में दिया जाता है। इस निर्णय से आशय आरंभिक न्यायालय के निर्णय से है, न कि किसी अपील के निर्णय या उच्चतम न्यायालय के निर्णय से। 

धारा 353 का निर्णय शुरुआती अधिकारिकता वाले न्यायालय में होने वाले विचारण का निर्णय होता है इसलिए आरंभिक अधिकारिता के न्यायालय की जो भाषा होती है उसी में निर्णय लिखा जाता है। जैसे कि मध्यप्रदेश राज्य के लिए हिंदी भाषा आरंभिक न्यायालय की भाषा है।

दंडादेश के कारणों को लेखबद्ध करना-

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (3) के अंतर्गत दोषसिद्धि मृत्युदंड अथवा आजीवन कारावास से है या फिर अनेक वर्ष के कारावास की अवधि से दंडनीय किसी अपराध के लिए है तो निर्णय में दिए गए दंडादेश के कारणों का तथा मृत्यु दंडादेश के आदेश की दशा में ऐसे दंडादेश के विशेष कारणों का उल्लेख किया जाना परम आवश्यक है।

पंजाब राज्य बनाम दलबीर सिंह एआईआर 2012 उच्चतम न्यायालय 1040 के मामले में यह आरोप था कि अभियुक्त जो कि केंद्र सुरक्षा बल कि 36 वीं बटालियन में एक सिपाही था।

उसने बटालियन के हवलदार की रायफल से गोली मारकर हत्या कर दी तथा डिप्टी कमांडेंट की हत्या का प्रयास किया।

विवाद थकान ड्यूटी को लेकर हुआ जिसे करने से अभियुक्त ने मना कर दिया था और इस कारण उसे चेतावनी दी गयी थी जो उसने लिखित में दी जाने की जिद की थी। अभियुक्त ने कथित रूप से 24 कारतूस दागे परंतु इनमें से केवल 7 खाली कारतूस ही बरामद हुए थे। अभियुक्त के विरुद्ध आयुध अधिनियम 1959 की धारा 27 एवं 27(3 ) एवं दंड संहिता की धारा 302, 307 के अपराध का आरोप था।

विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को हत्या के लिए आजीवन कारावास तथा ₹2000 जुर्माना और हत्या के प्रयास के लिए 3 वर्ष के कठोर कारावास तथा ₹3000 जुर्माना से दंडित किया। इसके विरुद्ध अपील में पंजाब उच्च न्यायालय ने अभियुक्त की दोषसिद्धि तथा दंडादेश को इस आधार पर अपास्त कर दिया कि अभियोजन पक्ष मामले के महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपा रहा है तथा उसका अन्वेषण वास्तविक तथ्यों से परे है।

इसके विरुद्ध राज्य द्वारा उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जाने पर न्यायालय ने अभियुक्त की दोषमुक्ति को उचित ठहराया बल्कि अपने निर्णय में उल्लेख किया कि आयुध अधिनियम 1959 की धारा 27(3) जिसमें अभियुक्त को अनिवार्यता मृत्युदंड दिए जाने का प्रावधान है न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धांत में होने के कारण शक्ति के बाहर है, यह उक्त प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 353 के भी प्रतिकूल नहीं है, इसे अधिनियम से हटाया जाना चाहिए।

धारा 354 (3) के उपबंध भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 के विपरीत नहीं है क्योंकि इस धारा के अधीन निर्णय में मृत्युदंड के कारणों का उल्लेख किया जाना आवश्यक बताया गया है। इस धारा को इसलिए गैर संवैधानिक नहीं कहा जा सकता है क्योंकि हत्या के मामले में मृत्युदंड अपवाद है जबकि आजीवन कारावास एक सामान्य नियम है।

शेख अब्दुल हमीद बनाम मध्य प्रदेश राज्य एआईआर 1998 उच्चतम न्यायालय 942 के मामले में अभियुक्त को अपनी पत्नी पुत्री और पुत्र की हत्या के आरोप में सेशन न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध ठहराया गया तथा हत्या के अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 302 एवं 34 के अधीन मृत्युदंड दिया गया। उच्च न्यायालय द्वारा इसकी पुष्टि की गयी।

उच्चतम न्यायालय ने अपील में अभिनिर्धारित किया था यह ढंग स्थापित नहीं हुआ कि मृत्युदंड के कारणों का उल्लेख हो सकें और प्रकरण विरल से विरलतम की श्रेणी में नहीं आता है।

उच्चतम न्यायालय ने मृत्युदंड अपास्त कर दिया और उसके स्थान पर आजीवन कारावास से दंडित कर दिया। निश्चित किया की हत्या के अपराध के लिए आजीवन कारावास का दंड दिए जाने का नियम है जबकि मृत्युदंड अपवाद है।

मृत्युदंड दिए जाने के लिए प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 354(3) के अधीन विशेष कारणों को भी अभिलिखित किया जाना चाहिए।

मृत्युदंड कैसे दिया जाएगा- (धारा 354 (5))

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (5) के अंतर्गत मृत्युदंड का निर्देश दिए जाने पर गर्दन में फांसी लगाकर तब तक लटकाए जाने का नियम बताया गया है जब तक सिद्ध दोष की मृत्यु न हो जाए।

श्रीमती शशि नैयर बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस धारा को संवैधानिक माना है तथा न्याय हित में माना है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष धारा 354 (5) को संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन बतलाया गया था परंतु न्यायालय ने इस दलील को खारिज कर दिया।

इसी प्रश्न को दीना बनाम भारत संघ एआईआर 1983 उच्चतम न्यायालय 1155 के मामले में भी उठाया गया था परंतु उस समय भी उच्चतम न्यायालय ने यही बात कही है कि मृत्युदंड एक नियम नहीं है अपितु यह केवल एक अपवाद है जो की विरल से विरलतम मामलों में उपयोग किया जाता है तथा दंड के महत्व को बनाए रखने हेतु मृत्युदंड को संविधान के अनुच्छेद 21 के विरुद्ध नहीं माना जा सकता।

स्वामी श्रद्धानंद उर्फ मुरली मनोहर मिश्रा बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में अभियुक्त ने एक सीधी सरल स्त्री को प्रेम प्रवचना में फंसा कर उसकी संपत्ति को हड़पने हेतु महिला की हत्या कर उसे बंगले के पोर्च में गाड़ दिया। डेढ़ वर्ष के पश्चात जांच होने पर अभियुक्त को धारा 302 के अंतर्गत आरोपी बनाया गया तथा परिस्थिति के साक्ष्य के आधार पर अभियुक्तों को मृत्युदंड का कारावास दिया गया।

अभियुक्त ने उच्चतम न्यायालय में अपील की थी। अभियुक्त की आयु 61 वर्ष थी इस उम्र को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को अंतिम सांस तक कारावास में रहने का दंड दिया तथा उसके मृत्युदंड के निर्णय को पलट दिया। कुछ इसी प्रकार राम सिंह बनाम सोनिया के बाद में एआईआर 2007 उच्चतम न्यायालय 1218 के प्रकरण में दो पति पत्नी अभियुक्तों को मृत्यु दंड को कम करके आजीवन कारावास में बदल देना न्यायोचित माना गया।

मध्य प्रदेश राज्य बनाम काशीराम 2009 के मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि अपराध के लिए दिया गया दंड असंगत नहीं होना चाहिए। अपराध की गुरुता, क्रुरता और बर्बरता के अनुरूप होना चाहिए। ऐसा दंड हो जो अपराधी के विरुद्ध समाज के न्याय हेतु समुचित समाधान कर सकें।

अंकुश मारुति शिंदे बनाम महाराष्ट्र राज्य 2009 उच्चतम न्यायालय 2609 के मुकदमे में कहा है कि अभियुक्तों के विरुद्ध लूट बलात्कार और हत्या के आरोप थे। उन्होंने एक ही परिवार के पांच सदस्यों की निर्ममता से हत्या की तथा एक अवयस्क बालिका को खेत में घसीटते हुए ले गए और ले जाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसकी मृत्यु कारित कर दी।

यह केवल क्रूरतापूर्वक, बर्बरतापूर्वक ना होकर नृशंस भी था। जिसने समाज की अंतरात्मा को झकझोर दिया। उच्चतम न्यायालय के अनुसार विरल से विरलतम अपराध की श्रेणी में आता है जिसके लिए मृत्युदंड ही एकमात्र उचित दंड था, यदि न्यायालय ने अन्य कारावास के दंड में परिवर्तित कर दिया तो न्याय प्रणाली के लिए हानिकारक होगा। 

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