धारा 227 CrPC : जानिए डिस्चार्ज होने के लिए अभियुक्त के दलील या दस्तावेज प्रस्तुत करने पर क्या सीमाएं हैं?

Update: 2020-06-01 05:29 GMT

जब कभी किसी मामले का अभियुक्त, मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है, और मजिस्ट्रेट को ऐसा लगता है कि उस अभियुक्त द्वारा कथित तौर पर किया गया अपराध, अनन्यतः (exclusively) सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय (triable) है तो वह मजिस्ट्रेट, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 209 की शर्तों के अधीन, मामले को सुपुर्द (commit) कर देता है (सेशन न्यायालय को)।

गौरतलब है कि मजिस्ट्रेट इस बात की सूचना, लोक अभियोजक (Public Prosecutor) को भी दे देता है कि उसके द्वारा वह मामला सेशन न्यायलय को सुपुर्द किया जा रहा है।

ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि संहिता की धारा 226 के अनुसार, एक अभियोजक अपने मामले का कथन, अभियुक्त के विरुद्ध लगाये गए आरोप का वर्णन करते हुए और यह बताते हुए आरम्भ करता है कि वह अभियुक्त के दोष को किस साक्ष्य से साबित करेगा।

जैसा कि हम जानते हैं कि आपराधिक न्याय प्रशासन की एडवरसेरियल प्रणाली में, आरोप पत्र से अभियुक्त के खिलाफ सामग्री को बाहर निकालना ट्रायल कोर्ट का कार्य नहीं होता है, क्योंकि इस प्रणाली में, जिस भारत में लागू किया गया है, न्यायालय एक तटस्थ मध्यस्थ के तौर पर कार्य करता है।

यही कारण है कि यह अभियोजक का कार्य होता है कि वह एक अभियुक्त के खिलाफ मामला अदालत में शुरू करे, न कि न्यायाधीश स्वयं ऐसा करता है।

रामनरेश एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य Cr. R. No. 608/2016 के मामले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा यह देखा गया था कि लोक अभियोजक यह स्टैंड नहीं ले सकता कि उसका मामला वही है जैसा पुलिस द्वारा दायर चार्जशीट में कहा गया है।

इसके विपरीत, धारा 226 का जनादेश यह है कि अभियोजक को, रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत के माध्यम से ट्रायल कोर्ट का नेतृत्व करना होगा, जिसके आधार पर अभियोजक, अभियुक्त के अपराध को स्थापित करना चाहता है और इस तरह वह सबूत के आधार पर, न्यायालय को आरोपियों के खिलाफ आरोप तय करने के संबंध में अपनी राय बनाने में सहायता प्रदान करता है।

उन्मोचन (Discharge) क्या है एवं क्या होता है इसका उद्देश्य?

लोक अभियोजक द्वारा मामला खोले जाने के पश्च्यात (धारा 226 के अंतर्गत), उन्मोचन (Discharge) की सम्भावना जगती है और इसका वर्णन हमे दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 227 में मिलता है।

इसके अंतर्गत, यदि न्यायाधीश को ऐसा उचित लगता है, तो वह अभियुक्त को आरोपों से उन्मोचित (Discharge) करदेता है। यानी कि अब उसपर अभियोजन द्वारा बताये गए आरोपों के तहत मामला नहीं चलेगा। अब यह उन्मोचन कब किया जाता है, इसे समझने से पहले हमे इस धारा को पढ़ लेना चाहिए।

यह धारा यह कहती है कि,

[धारा 227] "यदि मामले के अभिलेख (record of the case) और उसके साथ दिए गए दस्तावेजों (documents) पर विचार कर लेने पर, और इस निमित्त अभियुक्त और अभियोजन के निवेदन की सुनवाई कर लेने के पश्चात् न्यायाधीश यह समझता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह अभियुक्त को उन्मोचित (Discharge) कर देगा और ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध (record) करेगा।"

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 227, जोकि एक लाभकारी प्रावधान है, इसका मुख्य उद्देश्य अभियुक्त को लंबे समय तक उत्पीड़न से बचाना है जोकि स्वाभाविक रूप से होगा यदि मामले की सुनवाई लम्बी चलेगी। इसीलिए, संहिता में यह व्यवस्था की गयी है कि असल परिक्षण/ट्रायल शुरू होने से पहले अभियुक्त को उन्मोचित होने का एक मौका दिया जाए।

यह धारा यह प्रदान करती है कि यदि मामले के अभिलेख एवं इसके साथ जमा किए गए दस्तावेज और अभियुक्तों और अभियोजन पक्ष की प्रस्तुतियों पर विचार करते हुए, न्यायाधीश को यह विश्वास नहीं होता है कि अभियुक्त के खिलाफ कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं, तो वह अभियुक्त को उन्मोचित (Discharge) कर सकता है और ऐसा करते हुए उसे इस धारा के तहत ऐसा करने के कारणों को रिकॉर्ड करना होगा - केवल कृष्ण बनाम सूरज भान एवं अन्य AIR 1980 SC 1780।

अब यहाँ एक मुख्य सवाल यह उठता है कि आखिर इस स्तर पर अभियुक्त को किस प्रकार की दलील देने की अनुमति होती है और क्या अभियुक्त पक्ष भी, अभियोजन पक्ष के सामान, दस्तावेज अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है जिससे उसे उन्मोचित किया जा सके? इन सवालों का जवाब हमे आगे इस लेख में मिलेगा।

डिस्चार्ज के स्तर पर अभियुक्त के दलील देने या दस्तावेज प्रस्तुत करने की सीमाएं क्या हैं?

यदि हम दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 227 पर गौर करें तो हम यह पाएंगे कि यह मुख्य तौर पर अदालत को अभियोजन द्वारा रिकॉर्ड पर लायी गयी सामग्री के आधार पर मामले के साथ आगे बढ़ने या नहीं बढ़ने का निर्णय लेने को कहती है।

हमारे लिए यह जानना जरुरी है कि आखिर संहिता की धारा 227 में उपयोग की गयी अभिव्यक्ति "मामले के अभिलेख" से संहिता/कानून का क्या तात्पर्य है? हालांकि शब्द 'मामले' को संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन संहिता की 'धारा 209' उक्त शब्द पर रौशनी अवश्य डालती है।

आप याद करें कि हमने इस लेख की शुरुआत में संहिता की धारा 209 के विषय में क्या पढ़ा था? हमने यह जाना था कि संहिता की धारा 209, मजिस्ट्रेट द्वारा सेशन न्यायालय को मामला सुपुर्द करने से सम्बंधित है जब अपराध, अनन्यतः (exclusively) सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय (triable) हो।

आगे इस धारा के बारे में हमे यह भी जानना चाहिए कि मजिस्ट्रेट द्वारा मामला सुपुर्द करते हुए, सेशन अदालत को 'केस का रिकॉर्ड' और दस्तावेज, यदि कोई हों तो, जो सबूत में पेश किया जाना है, वह भी भेजा जाता है और मामले के विषय में लोक अभियोजक को सूचना दी जाती है (लोक अभियोजक को सूचना देने वाली बात हम पहले ही समझ चुके हैं)।

अब यहाँ से यह बात स्पष्ट की जा सकती है कि जिस 'मामले के अभिलेख और दस्तावेज' की बात धारा 227 में की गयी है वे वही 'रिकॉर्ड और दस्तावेज' हैं जो धारा 209 के अंतर्गत, मजिस्ट्रेट द्वारा सेशन न्यायलय को भेजे गए हैं। अब चूँकि यही अभिलेख एवं दस्तावेज, सेशन अदालत को मिलेंगे तो जाहिर है उसके पास गौर करने को यही अभिलेख एवं दस्तावेज दस्तावेज मौजूद होंगे।

इस प्रकार से, धारा 227 का स्पष्ट अर्थ है कि इसे धारा 209 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। और इसी से सीधा मतलब यह निकलता है कि धारा 227 के अंतर्गत, और 228 के दौरान भी, चार्ज फ्रेम करने के चरण में, अभियुक्त को किसी भी सामग्री/अभिलेख या दस्तावेज को दाखिल करने का अधिकार संहिता में प्रदान नहीं किया गया है। वह अधिकार, अभियुक्त को केवल ट्रायल के चरण में दिया गया है।

एम. ई. शिवलिंगमूर्ति बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, बेंगलुरु Criminal Appeal No. 957/2017 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह तय किया गया है कि धारा 227 में उपयोग की गयी अभिव्यक्ति, "मामले के अभिलेख (record of the case) और उसके साथ दिए गए दस्तावेजों (documents)" से तात्पर्य अभियोजन पक्ष द्वारा सामने लाये गए दस्तावेजों और अभिलेखों, यदि कोई हों, से है न कि अभियुक्त पक्ष द्वारा सामने लाये गए दस्तावेजों और अभिलेखों से (जिसकी इस स्तर पर इजाजत ही नहीं होती है)।

अब सवाल यह उठता है कि आखिर धारा 227 में अभिव्यक्ति "अभियुक्त और अभियोजन के निवेदन की सुनवाई" का क्या तात्पर्य है? तो यह साफ़ है कि अभियोजन के निवेदन से तात्पर्य 226 में लोक अभियोजक द्वारा मामला खोलने के दौरान दिए गए निवेदन (Submission) से है।

वहीँ अभिव्यक्ति "अभियुक्त...के निवेदन" को समझने के लिए हम उड़ीसा राज्य बनाम देबेन्द्र नाथ पढ़ी AIR 2005 SC 359 के मामले को देख सकते हैं। इस मामले में उच्चतम न्यायलय ने यह साफ़ किया था कि आरोप तय करने (चार्ज फ्रेम करने) के चरण में, अभियुक्त को केवल यह इजाजत होती है कि वह पुलिस द्वारा पेश की गयी सामग्री तक सीमित रहकर ही अपनी दलीलें दे।

गौरतलब है कि, सुपरिंटेंडेंट और रिमेंबरेंसर ऑफ़ लीगल अफेयर्स, पश्चिम बंगाल बनाम अनिल कुमार भुंजा एवं अन्य [(1980) 1 एससीआर 323] के मामले में उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों वाली बेंच ने यह तय किया था कि मजिस्ट्रेट को आरोप तय करने के चरण में यह देखना होता है कि क्या अभियोजन पक्ष द्वारा जो तथ्य साबित किये जाने हैं, वह अन्वेषण अधिकारी द्वारा आपूर्ति की गई सामग्रियों के अनुसार सामान्य विचार में प्रथम दृष्टया अपराध के कमीशन का खुलासा करते हैं अथवा नहीं।

हालाँकि इस मामले में यह विशिष्ट प्रश्न अदालत ने तय नहीं किया था कि क्या आरोप लगाने के चरण में किसी अभियुक्त के पास किसी भी सामग्री को अदालत के समक्ष पेश करने का अधिकार है या नहीं, लेकिन अदालत के निर्णय में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे लगे कि अभियुक्त को ऐसा कोई अधिकार है, क्योंकि संहिता के अनुसार, मजिस्ट्रेट के पास उसके सामने, केवल अभियोजन पक्ष द्वारा लायी गयी सामग्री (अन्वेषण अधिकारी द्वारा लाये गए दस्तावेज/रिपोर्ट/ समेत एवं मामले के अभिलेख) पर ही विचार करने का अधिकार होता है।

अंत में, यह भी देखा जा सकता है कि चूँकि धारा 227 एक लाभकारी प्रावधान है, जहाँ न्यायाधीश को यह निर्णय लेना होता है कि अभियोजन द्वारा बताये गए मामले/अभिलेख/दस्तावेज के आधार पर अभियुक्त के खिलाफ मामला बनता है या नहीं। और क्या अभियुक्त को उन्मोचित कर दिया जाना उचित होगा या नहीं, तो यह आवश्यक भी नहीं कि अभियुक्त को इस स्तर पर कोई दस्तावेज प्रस्तुत करने, अथवा लम्बी चौड़ी दलीलें देने का अधिकार दिया जाए, क्योंकि अदालत स्वयं उसके मामले में बेहतर ढंग से निर्णय ले सकती है।

यह भी गौरतलब है कि इस स्तर पर बहुत गहराई से जाकर साक्ष्य देखे जाने की उम्मीद नहीं होती क्योंकि यह परिक्षण/ट्रायल की स्टेज नहीं होती है, बल्कि यहाँ केवल यह देखा जाता है कि अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है अथवा नहीं और उसी के आधार पर अदालत अपना निर्णय लेती है। 

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